रतौना आंदोलन : ब्रिटिश सरकार को देखना पड़ा हार का मुंह
आज की पत्रकारिता के समक्ष जैसे ही गोकशी का प्रश्न आता है, वह हिंदुत्व और सेकुलरिज्म की बहस में उलझ जाता है। इस बहस में मीडिया का बड़ा हिस्सा गाय के विरुद्ध ही खड़ा दिखाई देता है। सेकुलरिज्म की आधी-अधूरी परिभाषाओं ने उसे इतना भ्रमित कर दिया है कि वह गो-संरक्षण को सांप्रदायिक मुद्दा मान बैठा है। हद तो तब हो जाती है जब मीडिया गो-संरक्षण या गो-हत्या को हिंदू-मुस्लिम रंग देने लगता है। गो-संरक्षण शुद्धतौर पर भारतीयता का मूल है। इसलिए ही 'एक भारतीय आत्मा' के नाम से विख्यात महान संपादक पंडित माखनलाल चतुर्वेदी गोकशी के विरोध में अंग्रेजों के विरुद्ध अपनी पत्रकारिता के माध्यम से देशव्यापी आंदोलन खड़ा कर देते हैं। गोकशी का प्रकरण जब उनके सामने आया, तब उनके मन में द्वंद्व कतई नहीं था। उनकी दृष्टि स्पष्ट थी- भारत के लिए गो-संरक्षण आवश्यक है। कर्मवीर के माध्यम से उन्होंने खुलकर अंग्रेजों के विरुद्ध गो-संरक्षण की लड़ाई लड़ी और अंत में विजय सुनिश्चित की। आज की पत्रकारिता इतिहास के पन्ने पलट कर दादा माखनलाल चतुर्वेदी की पत्रकारिता से सबक ले सकती है।
वर्ष 1920 में मध्यप्रदेश के शहर सागर के समीप रतौना में ब्रिटिश सरकार ने बहुत बड़ा कसाईखाना खोलने का निर्णय लिया। इस कसाईखाने में केवल गोवंश काटा जाना था। प्रतिमाह ढाई लाख गोवंश का कत्ल करने की योजना थी। अंग्रेजों की इस बड़ी परियोजना का संपूर्ण विवरण देता हुआ चार पृष्ठ का विज्ञापन अंग्रेजी समाचार-पत्र हितवाद में प्रकाशित हुआ। परियोजना का आकार कितना बड़ा था, इसको समझने के लिए इतना ही पर्याप्त होगा कि लगभग 100 वर्ष पूर्व कसाईखाने की लागत लगभग 40 लाख रुपये थी। कसाईखाने तक रेल लाइन डाली गई थी। तालाब खुदवाये गए थे। कत्लखाने का प्रबंधन सेंट्रल प्रोविंसेज टेनिंग एंड ट्रेडिंग कंपनी ने अमेरिकी कंपनी सेंट डेविन पोर्ट को सौंप दिया था, जो डिब्बाबंद बीफ को निर्यात करने के लिए ब्रिटिश सरकार की अनुमति भी ले चुकी थी। गोवंश की हत्या के लिए यह कसाईखाना प्रारंभ हो पाता उससे पहले ही दैवीय योग से महान कवि, स्वतंत्रता सेनानी और प्रख्यात संपादक पंडित माखनलाल चतुर्वेदी ने यात्रा के दौरान यह विज्ञापन पढ़ लिया। वह तत्काल अपनी यात्रा खत्म करके वापस जबलपुर लौटे। वहाँ उन्होंने अपने समाचार पत्र कर्मवीर में रतौना कसाईखाने के विरोध में तीखा संपादकीय लिखा और गो-संरक्षण के समर्थन में कसाईखाने के विरुद्ध व्यापक आंदोलन चलाने का आह्वान किया। सुखद तथ्य यह है कि इस कसाईखाने के विरुद्ध जबलपुर के एक और पत्रकार उर्दृ दैनिक समाचार पत्र 'ताज' के संपादक मिस्टर ताजुद्दीन मोर्चा पहले ही खोल चुके थे। उधर, सागर में मुस्लिम नौजवान और पत्रकार अब्दुल गनी ने भी पत्रकारिता एवं सामाजिक आंदोलन के माध्यम से गोकशी के लिए खोले जा रहे इस कसाईखाने का विरोध प्रारंभ कर दिया। मिस्टर ताजुद्दीन और अब्दुल गनी की पत्रकारिता में भी गोहत्या पर वह द्वंद्व नहीं था, जो आज की मीडिया में है। दादा माखनलाल चतुर्वेदी की प्रतिष्ठा संपूर्ण देश में थी। इसलिए कसाईखाने के विरुद्ध माखनलाल चतुर्वेदी की कलम से निकले आंदोलन ने जल्द ही राष्ट्रव्यापी रूप ले लिया। देशभर से प्रकाशित होने वाले समाचार पत्रों में रतौना कसाईखाने के विरोध में लिखा जाने लगा। लाहौर से प्रकाशित लाला लाजपत राय के समाचार पत्र वंदेमातरम् ने तो एक के बाद एक अनेक आलेख कसाईखाने के विरोध में प्रकाशित किए। दादा माखनलाल चतुर्वेदी की पत्रकारिता का प्रभाव था कि मध्यभारत में अंग्रेजों की पहली हार हुई। मात्र तीन माह में ही अंग्रेजों को कसाईखाना खोलने का निर्णय वापस लेना पड़ा।
आज उस स्थान पर पशु प्रजनन का कार्य संचालित है। जहाँ कभी गो-रक्त बहना था, आज वहाँ बड़े पैमाने पर दुग्ध उत्पादन हो रहा है। कर्मवीर के माध्यम से गो-संरक्षण के प्रति ऐसी जाग्रती आई कि पहले से संचालित कसाईखाने भी स्वत: बंद हो गए। हिंदू-मुस्लिम सौहार्द का वातावरण बना सो अलग। दादा माखनलाल चतुर्वेदी की पत्रकारिता का यह प्रसंग किसी भव्य मंदिर के शिखर कलश के दर्शन के समान है। यह प्रसंग पत्रकारिता के मूल्यों, सिद्धांतों और प्राथमिकता को रेखांकित करता है। माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल ने एक शोधपूर्ण पुस्तक 'रतौना आंदोलन : हिंदू-मुस्लिम एकता का सेतुबंध' का प्रकाशन किया है, जिसमें विस्तार से इस ऐतिहासिक आंदोलन और पत्रकारिता की भूमिका की विवेचना है।
आलेख प्रतियोगिता से पड़ी पत्रकारिता की नींव :
पंडित माखनलाल चतुर्वेदी उन विरले स्वतंत्रता सेनानियों में अग्रणी हैं, जिन्होंने अपनी संपूर्ण प्रतिभा को राष्ट्र की स्वतंत्रता के लिए समर्पित कर दिया। उन्होंने साहित्य और पत्रकारिता, दोनों को स्वतंत्रता आंदोलन में हथियार बनाया। वैसे तो दादा माखनलाल का मुख्य क्षेत्र साहित्य ही रहा, किंतु एक लेख प्रतियोगिता उनको पत्रकारिता में खींच कर ले आई। मध्यप्रदेश के महान हिंदी प्रेमी स्वतंत्रता सेनानी पंडित माधवराव सप्रे समाचार पत्र 'हिंदी केसरी' का प्रकाशन कर रहे थे। हिंदी केसरी ने 'राष्ट्रीय आंदोलन और बहिष्कार' विषय पर लेख प्रतियोगिता आयोजित की। इस लेख प्रतियोगिता में माखनलाल जी ने हिस्सा लिया और प्रथम स्थान प्राप्त किया। आलेख इतना प्रभावी और सधा हुआ था कि पंडित माधवराव सप्रे माखनलाल जी से मिलने के लिए खण्डवा पहुंच गए। इस मुलाकात ने ही पंडित माखनलाल चतुर्वेदी की पत्रकारिता की नींव डाली। सप्रे जी ने माखनलाल जी को लिखते रहने के लिए प्रेरित किया।
अपनी बात सामान्य जन तक पहुँचाने के लिए समाचार-पत्र को प्रभावी माध्यम के रूप में माखनलाल चतुर्वेदी ने देखा। किंतु, उस समय उनके लिए समाचार-पत्र प्रकाशित करना कठिन काम था। इसलिए उन्होंने अपने शब्दों को लिखने और रचने की प्रेरणा देने के लिए एक वार्षिक हस्तलिखित पत्रिका 'भारतीय-विद्यार्थी' निकालना शुरू की। इस पत्रिका लिखने के लिए वह विद्यार्थियों को प्रोत्साहित करते थे। पत्रकारिता के माध्यम से युवाओं में स्वतंत्रता की अलख जगाने के लिए यह उनका पहला प्रयास था।
इसके बाद खण्डवा से प्रकाशित पत्रिका 'प्रभा' में वह सह-संपादक की भूमिका में आ गए। एक नई पत्रिका को पाठकों के बीच स्थापित करना आसान कार्य नहीं होता। चूँकि माखनलाल चतुर्वेदी जैसी अद्वितीय प्रतिभा प्रभा के संपादन में शामिल थी, इसलिए पत्रिका ने दो-तीन अंक के बाद ही अपनी उपस्थिति दर्ज करा दी। उस समय की सबसे महत्वपूर्ण एवं प्रतिष्ठित पत्रिका 'सरस्वती' के प्रभाव की छाया में 'प्रभा' ने अपना स्थान सुनिश्चित कर लिया। प्रभा के संपादन में दादा माखनलाल का मन इतना अधिक रमने लगा कि उन्होंने शासकीय सेवा (अध्यापन) से त्याग-पत्र दे दिया और पत्रकारिता को पूर्णकालिक दायित्व के तौर पर स्वीकार कर लिया। उस समय वे खण्डवा की बंबई बाजार पाठशाला में 13 रुपए मासिक वेतन पर अध्यापक थे। ब्रिटिश शासन के विरुद्ध लगातार लिखने और स्वतंत्रता की चेतना जगाने के प्रयासों के कारण अंग्रेज शासकों ने प्रभा का प्रकाशन बंद करा दिया। कानपुर से गणेश शंकर विद्यार्थी भी एक ओजस्वी समाचार-पत्र 'प्रताप' का संपादन-प्रकाशन करते थे। माखनलाल जी उनसे अत्यधिक प्रभावित थे। जब गणेश शंकर विद्यार्थी को ब्रिटिश सरकार ने गिरफ्तार किया, तब माखनलाल जी ने आगे बढ़ कर 'प्रताप' के संपादन की जिम्मेदारी संभाली।
कर्मवीर का यशस्वी संपादन :
पंडित माखनलाल चतुर्वेदी की पत्रकारिता का शीर्ष 'कर्मवीर' के संपादन में प्रकट होता है। कर्मवीर और माखनलाल एकाकार हो गए। दोनों एक-दूसरे के पर्याय हैं। स्वतंत्रता के प्रति एक वातावरण बनाने के लिए पंडित विष्णुदत्त शुक्ल और पंडित माधवराव सप्रे की प्रेरणा से जबलपुर से 17 जनवरी, 1920 को साप्ताहिक समाचार-पत्र 'कर्मवीर' का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। संपादन का दायित्व सौंपने का प्रश्न जब उपस्थित हुआ तो पंडित माखनलाल चतुर्वेदी का नाम सामने आया। 'प्रभा' के सफलतम संपादन से माखनलाल जी ने सबका ध्यान अपनी ओर पहले ही खींच लिया था। परिणामस्वरूप सर्वसम्मति से माखनलाल जी को कर्मवीर के संपादन की महती जिम्मेदारी सौंप दी गई। असहयोग आंदोलन में भाग लेने के कारण माखनलाल जी को जेल जाना पड़ा और 1922 में कर्मवीर का प्रकाशन बंद हो गया। बाद में, माखनलाल जी ने 4 अप्रैल, 1925 से कर्मवीर का पुन: प्रकाशन खण्डवा से प्रारंभ किया। 11 जुलाई, 1959 का कर्मवीर का अंक दादा द्वारा संपादित अंतिम अंक था।
कर्मवीर के संपादन को लेकर दादा माखनलाल चतुर्वेदी की स्पष्टता को समझने के लिए एक महत्वपूर्ण प्रसंग है। भारतीय भाषाई पत्रकारिता से अंग्रेजी शासन भयंकर डरा हुआ था। भाषाई समाचार पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन को प्रतिबंधित करने के लिए तमाम प्रयास प्रशासन ने कर रखे थे। यदि किसी को भारतीय भाषा में समाचार पत्र प्रकाशित करना है तो उसका अनुमति पत्र जिला मजिस्ट्रेट से प्राप्त करनी होती थी। अनुमति प्राप्त करने से पहले समाचार-पत्र के प्रकाशन का उद्देश्य स्पष्ट करना होता था। इसी संदर्भ में जब माखनलाल जी कर्मवीर के घोषणा पत्र की व्याख्या करने जबलपुर गये, तब वहाँ सप्रेजी, रायबहादुर जी, पं. विष्णुदत्त शुक्ल सहित अन्य लोग उपस्थित थे। जिला मजिस्ट्रेट मिस्टर मिथाइस आईसीएस के पास जाते समय रायबहादुर शुक्ल ने एक पत्र माखनलाल जी को दिया, जिसमें लिखा था कि मैं बहुत गरीब आदमी हूँ, और उदरपूर्ति के लिए कोई रोजगार करने के उद्देश्य से कर्मवीर नामक साप्ताहिक पत्र निकालना चाहता हूँ। रायबहादुर शुक्ल समझ रहे थे कि मजिस्ट्रेट के सामने माखनलाल जी कुछ बोल नहीं पाएंगे तो यह आवेदन देकर अनुमति पत्र प्राप्त कर लेंगे। किंतु, माखनलाल चतुर्वेदी साहस और सत्य के हामी थे, उन्होंने यह आवेदन मजिस्ट्रेट को नहीं किया। जब मिस्टर मिथाइस ने पूछा कि एक अंग्रेजी साप्ताहिक होते हुए आप हिन्दी साप्ताहिक क्यों निकालना चाह रहे हैं? तब दादा माखनलाल ने बड़ी स्पष्टता से कहा- 'आपका अंग्रेजी पत्र तो दब्बू है। मैं वैसा पत्र नहीं निकालना चाहता। मैं ऐसा पत्र निकालना चाहूँगा कि ब्रिटिश शासन चलते-चलते रुक जाए।' मिस्टर मिथाइस माखनलाल जी के साहस से बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने बिना जमानत राशि लिए ही कर्मवीर निकालने की अनुमति दे दी। यह घटना ही माखनलाल जी की पत्रकारिता के तेवर का प्रतिनिधित्व करती है। यह साहस और बेबाकी कर्मवीर की पहचान बनी।
जीवन :
पंडित माखनलाल चतुर्वेदी का जन्म 4 अप्रैल, 1889 को मध्यप्रदेश के होशंगाबाद जिले के बाबई गांव में हुआ। पिता का नाम नंदलाल चतुर्वेदी था, जो गाँव की प्राथमिल पाठशाला में अध्यापक थे। प्राथमिक शिक्षा के बाद घर पर ही इन्होंने संस्कृत, बांग्ला, अंग्रेजी और गुजराती आदि भाषाओं का ज्ञान प्राप्त किया। 30 जनवरी, 1968 को 80 वर्ष की आयु में माखनलाल चतुर्वेदी का निधन खण्डवा में हुआ।
प्रमुख प्रकाशन :
कृष्णार्जुन युद्ध, साहित्य के देवता, समय के पांव, अमीर इरादे : गरीब इरादे, हिमकिरीटिनी, हिम तरंगिनी, माता, युग चरण, समर्पण, मरण ज्वार, वेणु लो गूंजे धरा, बीजुरी काजल आँज रही।
रतौना आन्दोलन पर माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल से प्रकाशित पुस्तक |
काश आज के तथाकथित नेता गोसंरक्षण के इस भाव को सकें ...
जवाब देंहटाएंदादा अमर थे,अमर रहेंगे । शत-शत नमन
जवाब देंहटाएंबदलते माहौल में कई बार छोटी-छोटी बातें भी बड़ी प्रेरक सी बन जाती हैं। मेरा ब्लॉग कुछ यादों को सहेजने का ही जतन है। अन्य चीजों को भी साझा करता हूं। समय मिलने पर नजर डालिएगा
जवाब देंहटाएंHindi Aajkal