उत्तरप्रदेश के प्रमुख रेलवे स्टेशन 'मुगलसराय' का नाम भारतीय विचारक 'पंडित दीनदयाल उपाध्याय' के नाम पर क्या रखा गया, प्रदेश के गैर-भाजपा दलों को ही नहीं, अपितु देशभर में तथाकथित सेकुलर बुद्धिवादियों को भी विरोध करने का दौरा पड़ गया है। मौजूदा समय में केंद्र सरकार के प्रत्येक निर्णय का विरोध करना ही अपना धर्म समझने वाले गैर-भाजपा दल और कथित बुद्धिवादी अपने थके हुए तर्कों के सहारे भाजपा की नीयत को कठघरे में खड़ा करने का प्रयास कर रहे हैं। साथ में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा को भी लपेटने का प्रयास कर रहे हैं। 'पंडित दीनदयाल उपाध्याय रेलवे स्टेशन' के विरोध में दिए जा रहे तर्क विरोधियों की मानसिकता और उनके वैचारिक अंधत्व को प्रदर्शित करते हैं। उनका कहना है कि भारतीय जनता पार्टी 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' को थोप रही है और इसके लिए वह मुगल संस्कृति को मिटाने का काम कर रही है। मुस्लिम समाज में भाजपा के लिए नफरत और अपने लिए प्रेम उत्पन्न करने के लिए विरोधी यह भी सिद्ध करने का प्रयास करते हैं कि भाजपा की विचारधारा मुस्लिम विरोधी है, इसलिए चिह्नित करके मुस्लिम नामों को मिटाया जा रहा है। बड़े उत्साहित होकर वह यह भी पूछ रहे हैं कि भारतीय राजनीति और लोकतंत्र में पंडित दीनदयाल उपाध्याय का योगदान क्या है? मजेदार बात यह है कि कांग्रेस, कम्युनिस्ट या दूसरे दलों की सरकारें जब नाम बदलती हैं, तब इस तरह के प्रश्न नहीं उठते। सबको पीड़ा उसी समय होती है, जब भाजपा सरकार नाम बदलती है। भारतीय राजनीति की थोड़ी-बहुत समझ रखने वाला व्यक्ति भी बता सकता है कि मुगलसराय स्टेशन का नाम बदलने पर लगाए जा रहे आरोप और पूछे जा रहे प्रश्न, बचकाने और अपरिपक्व हैं।
सबसे पहले इस तर्क को कसौटी पर कस कर परखते हैं, जिसमें कहा गया है कि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नाम पर मुस्लिम पहचान को मिटाने का षड्यंत्र रचा जा रहा है। सबसे पहले यह समझ लेना चाहिए कि सांस्कृति राष्ट्रवाद कोई बुरी बात नहीं है। कम्युनिस्ट विचारकों के अभारतीय दिमागों ने 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' को गलत अर्थों में प्रस्तुत करने के षड्यंत्र रचे हैं। हालाँकि उनकी तमाम कोशिशें सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के समक्ष परास्त हुई हैं। भारतीय जनता पार्टी पर यह आरोप इसलिए लगाया जाता है, क्योंकि उसकी पहचान 'हिंदू पार्टी' की है। इसी पहचान के कारण पहली फुरसत में यह आरोप सत्य प्रतीत होता है। लेकिन, यह सच नहीं। सामान्य जीवन में जिस प्रकार की उदारता हिंदू समाज दिखाता है, वही उदारता भाजपा की नीति में भी दिखती है। भाजपा सरकार ने इससे पहले दिल्ली में 'औरंगजेब रोड' का नाम बदला था। अब विचार करें कि क्या भाजपा ने औरंगजेब की जगह सड़क का नाम किसी हिंदू शासक के नाम पर किया? उत्तर है- नहीं। भाजपा ने क्रूर औरंगजेब की जगह उस सड़क को महान व्यक्ति एपीजे अब्दुल कलाम के नाम किया। क्या पूर्व राष्ट्रपति कलाम किसी भी प्रकार औरंगजेब से कम मुसलमान थे? इसके बाद दिल्ली में ही राष्ट्रपति भवन के नजदीक 'डलहौजी रोड' का नाम बदला गया। आश्चर्य की बात है कि आजादी के 70 साल बाद तक देश की राजधानी में एक सड़क उस अंग्रेज गवर्नर जनरल के नाम पर बनी रही, जिसने यहाँ के लोगों पर अत्याचार किया। आजादी के बाद कितने ही नेता उस सड़क से गुजरे होंगे, किंतु किसी का मन आहत नहीं हुआ। दरअसल, यह मानसिक औपनिवेशकता की पहचान है। हमारे लोग अब भी गुलामी की स्मृतियों को कलेजे से लगाए रखने में आनंदित होते हैं। बहरहाल, भाजपा सरकार ने जब 'डलहौजी रोड' का नाम बदला तब भी किसी हिंदू शासक या महापुरुष के नाम का चुनाव नहीं किया। डलहौजी रोड का नाम 'दारा शिकोह मार्ग' करके मुस्लिम समाज के उस शासक की स्मृतियों को संजोया गया, जो उदारमना था। दारा शिकोह हिंदू-मुस्लिम एकता की इमारत को मजबूत करने वाले श्रेष्ठ शिल्पी का नाम है। जबकि भाजपा चाहती तो इस सड़क का नामकरण हिंदू व्यक्ति के नाम पर कर सकती थी। ऐसा करते समय उस पर 'मुस्लिम नाम मिटाने' का आरोप भी नहीं लगता। स्पष्ट है कि भाजपा मुस्लिम नामों को नहीं मिटा रही है, बल्कि उन नामों को हटा रही है, जिन्होंने भारतीय संस्कृति को चोट पहुँचाई थी। भाजपा का यह चेहरा उन लोगों को दिखाई नहीं देगा, जिन्होंने अपनी आँखों पर पट्टी बाँध रखी है।
ऐसा नहीं है कि भारत में नाम बदलने की परंपरा का शुभारंभ भाजपा सरकारों ने किया है। कांग्रेस, कम्युनिस्ट और अन्य दल की सरकारें भी अपनी सुविधा के हिसाब से नाम बदलती रही हैं। किंतु उस दौरान किसी ने इस तरह हाय-तौबा नहीं मचाई। कांग्रेस ने ज्यादातर अवसरों पर 'नेहरू परिवार' के नाम पर पट्टिकाएं ठोंकी हैं। देशभर की इमारतें, सड़कें, बस अड्डे, विमानपत्तन, शहरों में बस्तियों के नाम और सरकारी योजनाओं के नाम इस बात की गवाही देते हैं। दिल्ली में ही कनॉट सर्कल का नाम इंदिरा गांधी चौक और कनॉट प्लेस का नाम राजीव चौक किया गया। जब नेहरू परिवार पर जगहों के नामकरण हुए, कहीं कोई प्रखर विरोध का सुर नहीं आया। जहाँ-तहाँ कम्युनिस्टों की सरकारें रहीं, वहाँ नामकरण की परंपरा देख लीजिए। अभारतीय नामों पर सड़क और भवन मिल जाएंगे। पश्चिम बंगाल की कम्युनिस्ट सरकार ने अमेरिका को चिढ़ाने के लिए ही एक सड़क का नामकरण वियतनाम के राष्ट्रपति 'हो ची मिन्ह सरानी' के नाम पर कर दिया। दरअसल, उस सड़क पर अमेरिकी वाणिज्यिक दूतावास था। नाम परिवर्तन का निर्णय लेने में इससे अधिक अपरिपक्वता क्या हो सकती है? गैर-भाजपा सरकारों के इन निर्णयों पर उस तरह से कभी भी विरोध नहीं हुआ, जैसा कि भाजपा सरकारों के निर्णयों पर होता है। विदेशी नामों पर आपत्ति दर्ज नहीं करने वाले लोगों को आखिर भारतीयता के प्रतीकों पर पीड़ा क्यों होती है? क्या यह माना जाना चाहिए कि उनकी निष्ठा भारतीय संस्कृति में नहीं है? गैर-भाजपाई राजनीतिक दलों का यह व्यवहार ही भारत के प्रति उनकी निष्ठा को संदिग्ध बनाता है।
मुगलसराय के नाम पर छाती पीट रहे लोग क्या यह बता सकते हैं कि 'मुगलसराय' नाम के साथ कौन-सा गौरव का विषय जुड़ा है? मुगलसराय के प्रति भावनात्मक लगाव का कारण क्या है? क्या यह लोग बता सकते हैं कि उन्हें भारतीय राजनीति में शुचिता के प्रतीक पुरुष पंडित दीनदयाल उपाध्याय के नाम से क्या दिक्कत है? दुनिया को 'एकात्म मानवदर्शन' जैसा अद्भुत विचार देने वाले अजातशत्रु महापुरुष दीनदयाल उपाध्याय की हत्या करके वैचारिक विरोधियों ने उनका शव इसी मुगलसराय स्टेशन के पोल क्रमांक-1276 फेंक दिया था। मुगलसराय रेलवे स्टेशन का नाम बदलकर भाजपा ने कोई अस्वाभाविक काम नहीं किया है। यह कार्य कांग्रेस सरकार को ही वर्ष 1968 में या उसके तत्काल बाद कर लेना चाहिए था। परंतु, खुद को उदारवादी पार्टी कहने वाली कांग्रेस ने अपनी संवेदनशीलता का प्रदर्शन नहीं किया। उसके लिए गाँधी-नेहरू परिवार के बाहर कोई महापुरुष नहीं हुए, जिनकी स्मृति को चिरस्थायी करने के प्रयास किए जाते। बहरहाल, अपने प्रेरणा पुरुष को श्रद्धांजलि देने के लिए भाजपा को 49 वर्ष का लम्बा इंतजार करना पड़ा। कितना अच्छा होता कि वैचारिक असहिष्णुता का प्रदर्शन करने वाले दल और बुद्धिवादी दीनदयाल उपाध्याय जैसे नाम का सम्मान करते और सरकार के इस निर्णय पर बेकार की बहस खड़ी करने से बचते। किन्तु, इसके लिए उदार और बड़े दिल की जरूरत होती है। राज्यसभा में इस बहस का जवाब देते समय अल्पसंख्यक मामलों के केंद्रीय राज्यमंत्री मुख्तार अब्बास नकवी ने उचित ही कहा- 'यह लोग मुगलों के नाम पर स्टेशन का नाम रख लेंगे, लेकिन दीनदयाल उपाध्याय के नाम पर नहीं रखेंगे।' भारतीयता के विरोध की यह आवाजें नक्कारखाने में तूती की तरह गूँज रही हैं, जिन्हें देश में कोई सुनने को तैयार नहीं हैं। भारत बदलाव के दौर से गुजर रहा है। यह बदलाव 'भारतीयता' के अनुरूप है।
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भाई साहब। बधाई। एक शानदार और तार्किक आलेख के लिए। राजीव चौक मेट्रो का नाम कांग्रेसी राजीव गांधी के नाम पर नहीं रखा गया है। यह राजीव गोस्वामी के नाम पर है। राजीव गोस्वामी, दिल्ली विश्वविद्यालय का छात्र था। यह मंडल कमीशन आंदोलन में आरक्षण का विरोध करते समय आत्मदाह कर लिया था। उसके स्मृति में इसका नाम राजीव चौक मेट्रो स्टेशन रखा गया है।
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