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रविवार, 3 सितंबर 2017

संस्कार की पाठशाला हैं महिलाएं एवं बुजुर्ग

हिन्दू गर्जना में प्रकाशित लेख
 भारतीय  परंपरा में परिवार व्यवस्था अद्धितीय है। हम जानते हैं कि किसी भी व्यक्ति की पहली गुरु माँ और पहली पाठशाला परिवार होता है। परिवार संस्कार की पाठशाला है। परिवार में व्यक्ति का सामाजिक शिक्षण होता है। यहाँ हम जीवनमूल्य सीखते हैं। भारतीयता की धुरी परिवार अपने ढंग से मनुष्य को त्याग, सहयोग, सम्मान, दुलार, आत्मीयता, कर्तव्य और अनुशासन इत्यादि का पाठ पढ़ाते हैं। लेकिन, हमारा दुर्भाग्य है कि विरासत में प्राप्त अपनी सबसे बड़ी और सुघड़ रचना को हम छिन्न-भिन्न कर रहे हैं। हम अपने शिक्षा के सबसे बड़े केंद्र को ध्वस्त करने में व्यस्त हैं। आज समाज में हम मानवीयता का जो अवमूल्यन देख रहे हैं, उसका सबसे बड़ा कारण है परिवार व्यवस्था का कमजोर होना। जब हम भारत के प्राचीन इतिहास के पन्ने पलटने बैठते हैं, तब हमें ध्यान आता है कि हमारे यहाँ महिलाओं और बुजुर्गों का अत्यधिक सम्मान था। उनका अपमान तो बहुत दूर की बात थी, उनकी अनदेखी भी संभव नहीं थी। घर में उनका शीर्ष स्थान था। उनकी देखरेख में ही परिवार का संचालन होता था। लेकिन, आज इस प्रकार के परिवार की कल्पना भी मुश्किल है। हालाँकि हमारी परिवार व्यवस्था कमजोर जरूर हुई है, लेकिन पूरी तरह समाप्त नहीं हुई है। हमारी संस्कृति की ताकत है कि वह अनेक झंझावात सहकर भी अपने संस्कारों को बचाते हुए गतिमान है।
          दरअसल, भौतिकवाद और वैश्वीकरण की चपेट में आकर हमने अपने रिश्तों को 'उत्पादकता' से जोड़ लिया है। इस चक्कर संबंधों की आत्मीयता खत्म हो गई। घर में जैसे ही हमने मातृशक्ति के 'उत्पादन' का मूल्यांकन और अनदेखी प्रारंभ की, वैसे ही हम उसे हेय दृष्टि से देखने लगे। चूँकि मातृशक्ति के बेशकीमती उत्पादन से नकद नारायण का सीधा संबंध नहीं है, इसलिए हमने उनके योगदान का मूल्यांकन खुद से कमतर करने का दुष्प्रयास किया है। जहाँ हमने उसे अपने से कमतर माना, वहीं उसका अपमान करना भी प्रारंभ कर दिया। इसी तरह हमने उन बुजुर्गों को भी घर में अनुपादक श्रेणी में रख दिया, जिनके समृद्ध अनुभव हमें दिशा दे सकते हैं। उनके अनुभव हमें कठिन परिस्थितियों का सामना करने का साहस और उससे बच निकलने की सूझबूझ दे सकते हैं। अहो दुर्भाग्य! हमने उन्हें विरासत और संरक्षक के रूप में देखना बंद करके खटराग करने वाला मान लिया। भारतीय समाज में वृद्धाश्रम इसी मानसिकता की देन हैं। जो समाज जड़-चेतन को अपने परिवार का हिस्सा बनाकर चलता था,  उसी समाज में वृद्धाश्रम भला किस प्रकार उचित ठहराए जा सकते हैं? इस दृष्टिकोण के विकसित और स्वीकार्य होने के बाद महिलाएं और बुजुर्ग समाज के एक बड़े वर्ग के लिए अनुपयोगी वस्तु भर रह गई हैं, जिन्हें ज्यादातर लोग घर के एक कोने में या फिर घर से बाहर करने में लगे हुए हैं। जबकि भारतीय परिवार की रचना और उसमें संबंधों की आत्मीयता ऐसी है कि उसके रस से प्रत्येक बालक का व्यक्तित्व इस प्रकार सिंचित होता है कि वह फलदार नम्र वृक्ष बनता है। दूसरों के प्रति सम्मान, करुणा, आत्मीयता, अपनत्व और आदर का भाव स्वत: जन्मता है। 
          दरअसल, हमें पता ही नहीं है कि हम परिवार व्यवस्था को पंगु करके न केवल राष्ट्र और समाज को क्षति पहुँचा रहे हैं, वरन अपना व्यक्तिगत नुकसान भी कर रहे हैं। पहले की व्यवस्था में किसी बालक को यह संस्कार अलग से सिखाने की जरूरत नहीं होती थी कि महिलाओं और बुजुर्गों का सम्मान करना चाहिए। व्यक्ति जैसा देखता है, वैसा सीखता है। बल्कि देखकर और प्रत्यक्ष उदाहरण से जाने-अनजाने ही हम गहरी सीख पा जाते हैं। हमारी परिवार की अवधारणा में व्यक्ति के प्रशिक्षण की यही व्यवस्था थी। छोटा बालक देखता-सुनता और अहसास करता था कि उसके पिता अपने पिता से और अपने पिता के पिता से किस प्रकार पेश आते थे। बहन, चाची, बुआ और माँ के प्रति उनका व्यवहार किस प्रकार का रहता था। भारतीय परिवार की रचना में महिलाएं और बुजुर्ग 'अनुपादक' नहीं हैं, बल्कि उन्हें इस दृष्टि से देखा ही नहीं जाता। हम तो मानते हैं कि परिवार के संचालन की धुरी महिलाएं और बुजुर्ग ही हैं। वह हमारे लिए संस्कार के केंद्र हैं। हम महसूस करते हैं कि आज एकल परिवारों में बच्चों के लालन-पालन में बड़ी समस्या आती है। पति-पत्नी दोनों नौकरी पर जाते हैं। घर में बच्चा या तो आया के भरोसे पलता है या फिर मशीनों (टीवी, कम्प्युटर, मोबाइल, टैब) के आसरे में बड़ा होता है। आया फिर भी उसे कुछ सिखा सकती है, लेकिन हृदयहीन मशीनें कैसे एक बच्चे को सभ्य, संवेदनशील और संस्कारी नागरिक बना सकती हैं? मनुष्य निर्माण का यह महत्त्वपूर्ण कार्य तो केवल दादा-दादी, नाना-नानी ही कर सकते हैं। उनके पास समय की उपलब्धता भी रहती है और जीवनभर का अनुभव भी। इसलिए हम कहते हैं कि घर में महिलाएं और वरिष्ठजन बच्चों के लिए केवल दादा-दादी, नाना-नानी या अन्य रिश्ते मात्र नहीं हैं, बल्कि यह सभी उनके लिए संस्कार की पाठशाला हैं।

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