पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद जिले में तृणमूल कांग्रेस के निलंबित विधायक हुमायूं कबीर ने कथित तौर पर बाबरी मस्जिद की नींव रखकर ‘बाबर की औलादों’ को जिंदा कर दिया है। अब तहरीक मुस्लिम शब्बन नाम के संगठन ने ग्रेटर हैदराबाद में बाबरी स्मारक बनाने का ऐलान किया है। ये घटनाएं केवल अपने मत-संप्रदाय के प्रति अपना विश्वास प्रकट करने का विषय नहीं है, बल्कि देश की न्यायिक व्यवस्था, सांप्रदायिक सौहार्द और संवैधानिक मूल्यों को चुनौती देने की कोशिश के तौर पर इन्हें देखना चाहिए। यह एक प्रकार से अलगाववादी सोच है, जो पहले भी भारत का विभाजन करा चुकी है। यह सोच इसलिए और भी अधिक खतरनाक दिखायी दे रही है क्योंकि ये किसी सिरफिरे कट्टरपंथियों की घोषणा मात्र नहीं है, अपितु इस विचार के पीछे मुसलमानों की अच्छी-खासी भीड़ भी खड़ी दिखायी दे रही है। कथित बाबरी मस्जिद की नींव रखने के लिए जिस तरह सिर पर ईंटें ढोकर लाते मुसलमानों की भीड़ दिखायी दी, उसे हल्के में नहीं लेना चाहिए। ‘नारा-ए-तकबीर, अल्लाहु अकबर’ के नारों के बीच लाखों समर्थकों का जुटना और बाबरी मस्जिद के निर्माण की बात दोहराना, साफ तौर पर मुस्लिम समुदाय की सांप्रदायिक लामबंदी को स्पष्टतौर पर रेखांकित करता है।
राम-कृष्ण के देश में जो भी आक्रांता बाबर के प्रति श्रद्धा रखता है, नि:संदेह उनकी निष्ठा भारत में नहीं है। भला किस देश के नागरिक उस व्यक्ति के प्रति श्रद्धावान हो सकते हैं, जिसने उस देश पर आक्रमण किया हो। मुस्लिम समुदाय के भीतर इस तरह की सोच बाबा साहब डॉ. भीमराव अंबेडकर की उन आशंकाओं को पुष्ट करती है, जिसमें उन्होंने कहा था कि मुसलमानों की आस्था के केंद्र भारत से बाहर होने के कारण, उनके लिए यह देश प्राथमिक नहीं है। एक के बाद एक जिस तरह से बाबर के प्रति आस्था का प्रकटीकरण किया जा रहा है, उससे साफ होता है कि मुसलमानों के एक वर्ग में भारतीय न्यायपालिका के प्रति भी निष्ठा नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय ने अयोध्या विवाद पर दशकों पुरानी कानूनी लड़ाई का समाधान कर दिया है, जिसके तहत विवादित स्थल पर श्रीराम मंदिर निर्माण की अनुमति दी गई और मुसलमानों के लिए मस्जिद बनाने हेतु वैकल्पिक भूमि आवंटित की गई। इसके बावजूद, मुर्शिदाबाद से लेकर हैदराबाद में बाबरी मस्जिद का डिज़ाइन हूबहू दोहराने का प्रयास, न्यायिक निर्णय को अस्वीकार करने और भारतीय न्याय व्यवस्था को चुनौती देने जैसा है।
सांप्रदायिकता के प्रतिनिधि हुमायूं कबीर का यह दावा कि 1992 में लगे ‘गहरे घाव पर मरहम’ लगाया जा रहा है, न केवल विवादास्पद है, बल्कि यह देश के बहुसंख्यक समुदाय की भावनाओं को भी ठेस पहुँचाने वाला कदम है। इस तरह के प्रतीकात्मक निर्माण अतीत के घावों को भरने के बजाय, वर्तमान में नए राजनीतिक और सांप्रदायिक तनाव पैदा करते हैं। इस तरह के कदम कट्टरपंथी तत्वों को बढ़ावा देते हैं और दोनों समुदायों के बीच अविश्वास की खाई को और चौड़ा करते हैं। जब देश विकास और एकता की बात कर रहा है, तब मुर्शिदाबाद और हैदराबाद में अतीत के प्रतीकों को जानबूझकर पुनर्जीवित करना राष्ट्रीय प्रगति में बाधा उत्पन्न करता है। अगर मुस्लिम समुदाय स्वयं को आक्रांता बाबर के साथ जोड़ेगा, तब उसके प्रति अविश्वास और मजबूत होगा। मुस्लिम समुदाय के उदारवादी वर्ग को चाहिए कि वह आगे आए और स्पष्ट घोषणा करे कि उनकी जड़ें भारत में हैं, भारत पर आक्रमण करनेवाले बाबर से उनका कोई लेना-देना नहीं है।
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बलराज मधोक ने अपनी पुस्तक 'जिन्दगी का सफर-२, स्वतंत्र भारत की राजनीति का संक्रमण काल' में उल्लेख किया है कि वह अगस्त १९६४ में काबुल यात्रा पर गए। वहां उन्होंने ऐतिहासिक महत्व के स्थान देखे। संग्रहालयों में शिव-पार्वती, राम, बुद्ध आदि हिन्दू देवी-देवताओं और महापुरुषों की पुरानी पत्थर की मूर्तियां देखीं। इसके अलावा उन्होंने काबुल स्थित बाबर का मकबरा देखा। मकबरा ऊंची दीवार से घिरे एक बड़े आहते में स्थित था। परन्तु दीवार और मकबरा की हालत खस्ता थी। इसके ईदगिर्द न सुन्दर मैदान था और न फूलों की क्यारियां। यह देख बलराज मधोक ने मकबरा की देखभाल करने वाले एक अफगान कर्मचारी से पूछा कि इसके रखरखाव पर विशेष ध्यान क्यों नहीं दिया जाता? उसका उत्तर सुनकर बलराज मधोक अवाक् रह गए और शायद आप भी सोचने पर मजबूर हो जाएं। उसने मधोक को अंग्रेजी में जवाब दिया था - “Damned foreigner why should we maintain his mausaleum.” अर्थात् कुत्सित विदेशी विदेशी के मकबरे का रखरखाव हम क्यों करें?
काबुल में वह वास्तव में विदेशी ही था। उसने फरगना से आकर काबुल पर अधिकार कर लिया था। परन्तु कैसी विडम्बना है कि जिसे काबुल वाले विदेशी मानते हैं उसे हिन्दुस्तानी के सत्ताधारी और कुछ पथभ्रष्ट बुद्धिजीवी हीरो मानत हैं और उसके द्वारा श्रीराम जन्मभूमि पर मंदिर तोड़कर बनाई गई कथित बाबरी मस्जिद को बनाए रखने में अपना बड़प्पन मानते हैं। इसका मूल कारण उनमें इतिहास-बोध और राष्ट्रभावना का अभाव होना है।

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