- प्रो. (डॉ) संजय द्विवेदी
लेखक लोकेन्द्र सिंह बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं। कवि, कहानीकार, स्तम्भलेखक होने के साथ ही यात्रा लेखन में भी उनका दखल है। घुमक्कड़ी उनका स्वभाव है। वे जहाँ भी जाते हैं, उस स्थान के अपने अनुभवों के साथ ही उसके ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक महत्व से सबको परिचित कराने का प्रयत्न भी वे अपने यात्रा संस्मरणों से करते हैं। अभी हाल ही उनकी एक पुस्तक ‘हिन्दवी स्वराज्य दर्शन’ मंजुल प्रकाशन से प्रकाशित हुई है, जो छत्रपति शिवाजी महाराज के किलों के भ्रमण पर आधारित है। हालांकि, यह एक यात्रा वृत्तांत है लेकिन मेरी दृष्टि में इसे केवल यात्रा वृत्तांत तक सीमित करना उचित नहीं होगा। यह पुस्तक शिवाजी महाराज के किलों की यात्रा से तो परिचित कराती ही है, उससे कहीं अधिक यह उनके द्वारा स्थापित ‘हिन्दवी स्वराज्य’ या ‘हिन्दू साम्राज्य’ के दर्शन से भी परिचित कराती है। स्वयं लेखक ने पुस्तक की भूमिका में लिखा है- “इस यात्रा के कारण शिवाजी महाराज के दुर्गों का ही दर्शन नहीं किया अपितु अपने गौरवशाली इतिहास से जुड़े, जो हमारी पाठ्यपुस्तकों और राष्ट्रीय विमर्श में शामिल ही नहीं रहा। इस यात्रा ने ‘स्वराज्य’ की कल्पना को उस समय में मन में गहरे उतार दिया, जब हम भारत की स्वाधीनता का अमृत महोत्सव मना रहे हैं। ‘स्वराज्य’ कैसा होना चाहिए, शिवाजी महाराज के व्यक्तित्व के अध्ययन से इसको भली प्रकार समझा जा सकता है। हम कह सकत हैं कि श्री शिवछत्रपति दुर्ग दर्शन यात्रा ने हमें ‘स्व’ की अनुभूति करायी और ‘स्व’ की समझ भी बढ़ायी। यह यात्रा अविस्मरणीय है”। उल्लेखनीय है कि शिवाजी महाराज के जीवन में किलों का बहुत महत्व है। हिन्दवी स्वराज्य में लगभग 300 दुर्ग थे। इन दुर्गों को ‘स्वराज्य के प्रतीक’ भी कहा जाता है। स्वराज्य के मजबूत प्रहरी के तौर पर किलों के महत्व को समझकर छत्रपति शिवाजी महाराज नये दुर्गों का निर्माण करने में और पुराने दुर्गों को दुरुस्त करने में महाराज मुक्त हस्त से खर्च करते थे। यही कारण है कि महाराष्ट्र में मुहिम निकालने की परंपरा है, जिसमें यात्रियों के बड़े-बड़े जत्थे शिवाजी महाराज के किलों का दर्शन करने के लिए जाते हैं। शुक्राचार्य ने शुक्रनीति में दुर्गों का महत्व बताते हुए लिखा है-
“एक: शतं योधयति दुर्गस्थ: अस्त्रधरो यदि।
शतं दशसहस्त्राणि तस्माद् दुर्गं समाश्रयेत्।।”
अर्थात् दुर्ग की सहायता से एक सशस्त्र मनुष्य भी सौ शत्रुओं से लोहा ले सकता है और सौ वीर दस हजार शत्रुओं से लड़ सकते हैं। इसलिए राजा ने दुर्ग का आश्रय लेना चाहिए।
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हम सब जानते हैं कि जिस वक्त शिवाजी महाराज ने स्वराज्य का स्वप्न देखा था, उस समय भारत के अधिकांश भाग पर मुगलिया सल्तनत की छाया थी। गाय, गंगा और गीता, कुछ भी सुरक्षित नहीं था। चारों ओर घना अंधकार छाया हुआ था। उस दौर में पराक्रमी राजाओं ने भी स्वतंत्र हिन्दू राज्य की कल्पना करना छोड़ दिया था। तब एक वीर किशोर ने अपने आठ-नौ साथियों के साथ महादेव को साक्षी मानकर ‘हिन्दवी स्वराज्य’ की प्रतिज्ञा ली। अपनी इस प्रतिज्ञा को पूरा करने में हिन्दवी स्वराज्य के मावलों का जिस प्रकार का संघर्ष, समर्पण और बलिदान रहा, उसे आज की पीढ़ी को बताना बहुत आवश्यक है। लोकेन्द्र सिंह की पुस्तक इस उद्देश्य में भी बहुत हद तक सफल होती है। जिस स्थान पर हिन्दवी स्वराज्य की प्रतिज्ञा ली गई, उस स्थान का रोचक वर्णन लेखन ने अपनी पुस्तक में किया है।
छत्रपति शिवाजी महाराज ने भारत के ‘स्व’ के आधार पर ‘हिन्दवी स्वराज्य’ की स्थापना की थी। हिन्दवी स्वराज्य में राज व्यवस्था से लेकर न्याय व्यवस्था तक का चिंतन ‘स्व’ के आधार पर किया गया। भाषा का प्रश्न हो या फिर प्रकृति संरक्षण का, सबका आधार ‘स्व’ रहा। इसलिए हिंदवी स्वराज्य के मूल्य एवं व्यवस्थाएं आज भी प्रासंगिक हैं। पुस्तक में विस्तार से इसका वर्णन आया है कि कैसे शिवाजी महाराज ने स्वराज्य की स्थापना करने के साथ ही शासन व्यवस्था से अरबी-फारसी के शब्दों को बाहर करके स्वभाषा को बढ़ावा दिया। जल एवं वन संरक्षण की क्या अद्भुत संरचनाएं खड़ी कीं। मुगलों की मुद्रा को बेदखल करके स्वराज्य की अपनी मुद्राएं चलाईं। तोपखाने का महत्व समझकर स्वराज्य की व्यवस्था के अनुकूल तोपों के निर्माण का कार्य आरंभ कराया। समुद्री सीमाओं का महत्व जानकर, नौसेना खड़ी की। पुर्तगालियों एवं फ्रांसिसियों पर निर्भर न रहकर नौसेना के लिए जहाजों एवं नौकाओं के निर्माण के कारखाने स्थापित किए। किसानों की व्यवहारिक आवश्यकताएं एवं मजबूरियों को समझकर कृषि नीति बनायी। इन सब विषयों पर भी लेखक लोकेन्द्र सिंह ने अपनी पुस्तक ‘हिन्दवी स्वराज्य दर्शन’ में बात की है।
‘हिन्दवी स्वराज्य दर्शन’ की यह यात्रा ‘सिंहगढ़’ के रोमांचक वर्णन के साथ शुरू होती है। वैसे तो शिवाजी महाराज का अध्ययन करनेवाले स्वराज्य में सिंहगढ़ दुर्ग के महत्व को जानते हैं लेकिन ‘तानाजी : द अनसंग वॉरियर’ फिल्म के माध्यम से इसका लोकव्यापीकरण हो गया। आज देश में बड़ी संख्या में लोग जानते हैं कि सिंहगढ़ किले पर विजय के लिए स्वराज्य की सेना और मुगलिया सल्तनत के बीच ऐतिहासिक युद्ध हुआ। स्वराज्य की ओर से तानाजी मालुसरे और मुगलों की ओर से उदयभान ने लड़ाई का नेतृत्व किया। रणनीतिक रूप से महत्व के इस युद्ध में नरवीर तानाजी का बलिदान हुआ लेकिन स्वराज्य के हिस्से विजय आई। फिल्म के कारण कुछ अस्पष्टताएं लोगों के मन में बनी, जिन्हें लेखक ने अपनी पुस्तक में दूर किया है। जैसे, तानाजी के बलिदान के बाद इस किले का नामकरण सिंहगढ़ नहीं किया गया, बल्कि पूर्व से ही इसका नाम सिंहगढ़ था। इसे कोंढाना दुर्ग के नाम से भी पहचाना जाता था। इसी तरह ‘यशवंती’ नाम की गोह के माध्यम से किले पर चढ़ने की बात, कोरी कल्पना ही है। फिल्म में जिस ‘नागिन’ नाम की तोप को प्रमुखता से दिखाया गया है, वैसी कोई तोप सिंहगढ़ पर नहीं लाई गई थी और उसके कारण यह युद्ध भी नहीं हुआ था। सिंहगढ़ दुर्ग का रणनीतिक महत्व बहुत है। इसलिए शिवाजी महाराज ने इसे पुन: अपने अधिकार क्षेत्र में लाने की योजना बनायी थी।
'नरवीर' तानाजी मालुसरे की प्रतिमा, सिंहगढ़ दुर्ग |
यात्रा का दूसरा पड़ाव- शनिवारवाड़ा और लालमहल है। इस अध्याय में हमारे सामने लाल महल में शिवाजी महाराज द्वारा औरंगजेब के मामा शाइस्ता खान पर की गई सर्जिकल स्ट्राइक का वर्णन है। यहाँ लेखक ने स्थापित किया है कि शिवाजी महाराज किसी भी मुहिम की सूक्ष्म योजना करते थे। किसी भी हमले से पूर्व उसके सभी पहलुओं पर गंभीरता से विचार किया जाता था। दिन, समय और स्थान चुनने में बहुत सावधानी बरती जाती थी। इस अध्याय को पढ़ते समय पाठकों को अफजल खान के वध का स्मरण भी हो जाएगा। शिवाजी महाराज की युद्ध रणनीति और उनकी इन विजयों को सैनिकों को पढ़ाया जाना चाहिए। एक नेता को कैसा होना चाहिए, उसका बखूबी दर्शन इस अध्याय में होता है। जब शिवाजी महाराज अपनी माँ जिजाऊ साहेब और दादा कोंडदेव के साथ पुणे आए थे, तब यह नगर पूरी तरह उजड़ा हुआ था। आक्रांताओं ने यहाँ की भूमि को गधों से जुतवाकर जमीन को ही शापित कर दिया था। नदी किनारे की उपजाऊ भूमि होने के बाद भी खेती नहीं होती थी। शिवाजी महाराज और जिजाऊ माँ साहेब ने पुणेवासियों को अंधविश्वास से बाहर निकालने के लिए सोने के फाल से स्वयं खेत जोते। किसानों को प्रोत्साहित करने के लिए कृषि हितैषी नीति को तैयार किया। परिणामस्वरूप, जो नगर कभी खस्ताहाल हो गया था, अब वह वैभव की ओर बढ़ने लगा था। यह प्रसंग आज भी प्रासंगिक है। यह अध्याय आज की शासन व्यवस्था को भी संकेत देता है कि कृषि क्षेत्र के लिए ऐसी नीतियां बनानी चाहिए, जिनसे राज्य व्यवस्था पर भी भार न आए और किसानों को भी अत्यधिक लाभ पहुँचे।
पुस्तक का अगला अध्याय शौर्य और दर्द की कहानी को एकसाथ पाठकों के सामने प्रस्तुत करता है। यह यात्रा हमें ‘छत्रपति शंभूराज’ (छत्रपति संभाजी राजे) के समाधि स्थल पर लेकर जाती है, जहाँ से यह शंभूराजे की धर्मनिष्ठा एवं पराक्रम की कहानी सुनाती है। लेखक लोकेंद्र सिंह लिखते हैं- “औरंगजेब ने शंभूराजे को कैद करके अकल्पनीय और अमानवीय यातनाएं दीं। औरंगजेब ने जिस प्रकार की क्रूरता दिखाई, उसकी अपेक्षा एक मनुष्य से नहीं की जा सकती। कोई राक्षस ही उतना नृशंस हो सकता था। इतिहासकारों ने दर्ज किया है कि शंभूराजे की जुबान काट दी गई, उनके शरीर की खाल उतार ली गई, आँखें फोड़ दी थी। औरंगजेब इतने पर ही नहीं रुका, उसने शंभूराजे के शरीर के टुकड़े-टुकड़े करवाकर नदी में फिंकवा दिए थे”। यह अध्याय हमें बताता है कि हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए हमारे पुरुखों ने अकल्पनीय दर्द सहा है और अपना सर्वोच्च बलिदान दिया है। छत्रपति शंभूराजे, गुरु तेगबहादुर से लेकर स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती तक अनेक कहानियां है, जो अत्याचार, धर्मांधता एवं कट्टरता के विरुद्ध न्याय, सत्य और शौर्य की गौरव गाथाएं हैं।
अब यात्रा हमें मल्हारगढ़ लेकर पहुँचती है, जिसे हिन्दवी स्वराज्य की आर्टलरी कहा जाता है। मराठों का तोपखाना होने के साथ ही इस दुर्ग का उपयोग पुणे-सासवड मार्ग और दिवे घाट की निगरानी के लिए किया जाता था। माना जाता है कि मराठों द्वारा बनवाया गया यह आखिरी दुर्ग है। इसका निर्माणकाल 1757 से 1760 तक बताया जाता है। मल्हारगढ़ से उतरकर यात्रा आगे सासवड़ की ओर बढ़ती है। ऐतिहासिक पुरंदर दुर्ग पर पहुँच कर हिन्दवी स्वराज्य दर्शन की यात्रा हमें शिवाजी महाराज की कूटनीति से परिचित कराती है। हम सब जानते हैं कि पुरंदर की लड़ाई में शिवाजी महाराज को औरंगजेब को 23 किले सौंपने पड़े थे और आगरा जाकर बादशाह से भेंट के लिए तैयार होना पड़ा। यह माना जा सकता है कि पुरंदर की लड़ाई में मराठा सेना की हार हुई लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि पुरंदर की संधि में छत्रपति शिवाजी महाराज की दूरदर्शिता, कूटनीति एवं राजपुरुष के व्यक्तित्व की छाप दिखाई पड़ती है। लेखक ने पुरंदर की लड़ाई का बखूबी वर्णन किया है। इस युद्ध में पराक्रमी योद्धा मुरारबाजी देशपांडे का बलिदान हुआ, जिन्होंने केवल 500 मावलों की टुकड़ी के साथ 5000 की मुगल सेना को छठी का दूध याद दिला दिया।
स्वदेश, भोपाल में प्रकाशित लोकेन्द्र सिंह की पुस्तक 'हिन्दवी स्वराज्य दर्शन' की समीक्षा |
हम कह सकते हैं कि ‘हिंदवी स्वराज्य दर्शन’ अपने पाठकों को छत्रपति शिवाजी महाराज के दुर्गों के दर्शन कराने के साथ ही स्वराज्य की अवधारणा एवं उसके लिए हुए संघर्ष–बलिदान से परिचित कराती है। पुस्तक में सिंहगढ़ दुर्ग पर नरवीर तानाजी मालूसरे के बलिदान की कहानी, पुरंदर किले में मिर्जाराजा जयसिंह के साथ हुए ऐतिहासिक युद्ध एवं संधि, पुणे के लाल महल में शाइस्ता खान पर की गई सर्जिकल स्ट्राइक का रोचक वर्णन लेखक लोकेन्द्र सिंह ने किया है। इसके साथ ही शिवाजी महाराज की राजधानी दुर्ग दुर्गेश्वर रायगढ़ का सौंदर्यपूर्ण वर्णन लेखक ने किया है। पुस्तक का यह सबसे अधिक विस्तारित अध्याय है। छत्रपति के राज्याभिषेक का तो आँखों देखा हाल सुनाने का लेखकीय कर्म का बखूबी निर्वहन किया गया है। पाठक जब राज्याभिषेक के वर्णन को पढ़ते हैं, तो स्वाभाविक ही वे स्वयं को छत्रपति के राज्याभिषेक समारोह में खड़ा हुआ पाते हैं। राज्याभिषेक का एक-एक दृश्य पाठक की आँखों में उतर आता है। उल्लेखनीय है कि ज्येष्ठ शुक्ल त्रयोदशी, विक्रम संवत 1731, तदनुसार ग्रेगोरियन कैलेंडर की दिनांक 6 जून 1674, बुधवार को छत्रपति शिवाजी महाराज का, स्वराज्य की राजधानी रायगढ़ में राज्याभिषेक हुआ था। आमतौर पर महापुरुषों की जन्म जयंती को उत्सव के रूप में मनाने की परंपरा है लेकिन शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक की यह घटना इतनी अधिक महत्वपूर्ण थी कि संपूर्ण देश में शिवाजी जयंती से अधिक उत्साह के साथ आज भी ‘हिन्द साम्राज्य दिवस’ को मनाया जाता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भी जब छह उत्सवों का चयन किया, तो उसमें हिन्दू साम्राज्य दिवस को शामिल किया है। शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक ने भारत के स्वाभिमान को एक बार फिर से जगाया था। यह घटना हिन्दुओं को आत्मदैन्य की स्थित से बाहर निकालकर लायी थी। हिन्दू साम्राज्य दिवस को उत्सव के रूप में स्मरण करना इसलिए भी प्रासंगिक है ताकि हमें याद आता रहे कि भारत की शासन व्यवस्था किन मूल्यों पर संचालित होनी चाहिए।
सुनिए- 'हिन्दवी स्वराज्य दर्शन' के विमोचन अवसर पर अतिथि विद्वानों के विचार
यह संयोग ही है कि यह वर्ष हिन्दवी स्वराज्य की स्थापना 350वां वर्ष है। इस निमित्त देशभर में हिन्दवी स्वराज्य की संकल्पना एवं उसकी प्रासंगिकता को जानने-समझने के प्रयत्न हो रहे हैं। ऐसे में लोकेंद्र सिंह की बहुचर्चित पुस्तक ‘हिंदवी स्वराज्य दर्शन’ को पढ़ना सुखद है। लेखक श्रीशिव छत्रपति दुर्ग दर्शन यात्रा के बहाने इतिहास के गौरवशाली पृष्ठ हमारे सामने खोलकर रख दिए हैं। लेखनी का प्रवाह मैदानी नदी की तरह सहज-सरल है। जो पहले पृष्ठ से आखिरी पृष्ठ तक पाठक को अपने साथ सहज ही लेकर चलती है। ‘हिन्दवी स्वराज्य दर्शन’ हमें छत्रपति शिवाजी महाराज के पुस्तक मंष स्थल दुर्ग, गिरिदुर्ग के साथ ही जलदुर्गों का भ्रमण भी कराती है। कोलाबा दुर्ग के साथ ही खांदेरी-उंदेरी दुर्ग की यात्रा में समुद्र में हुए रोमांचक युद्ध का वर्णन भी पुस्तक में किया गया है। हिन्दवी स्वराज्य की नौसेना ने बड़े-बड़े जहाजों से सुसज्जित अंग्रेजों की सेना को भी समुद्र में डुबकी लगवा दी थी। बहरहाल, पुस्तक में कुल 16 अध्याय एवं 3 परिशिष्ट हैं। लेखक लोकेन्द्र सिंह ने अपनी लेखन शैली से बखूबी ‘गागर में सागर’ को समेटने का कार्य किया है। 128 पृष्ठों की यह पुस्तक आपको हिन्दवी स्वराज्य की बड़ी कहानी को रोचक ढंग से सुनाने में सफल होती है। यदि आपकी यात्राओं में रुचि है और इतिहास एवं संस्कृति को जानने की ललक है, तब यह पुस्तक अवश्य पढ़िए। लेखक ने वर्तमान स्थित और ऐतिहासिक प्रसंगों को सुंदर संयोजन किया है। ‘हिंदवी स्वराज्य दर्शन’ अमेजन पर उपलब्ध है। अमेजन पर यह पुस्तक यात्रा लेखन श्रेणी के अंतर्गत काफी पसंद की जा रही है। पुस्तक का प्रकाशन ‘मंजुल प्रकाशन’, भोपाल ने किया है।
(समीक्षक, भारतीय जनसंचार संस्थान, नईदिल्ली के पूर्व महानिदेशक हैं।)
पुस्तक : हिन्दवी स्वराज्य दर्शन
लेखक : लोकेन्द्र सिंह
मूल्य : 250 रुपये (पेपरबैक)
प्रकाशक : सर्वत्र, मंजुल पब्लिशिंग हाउस, भोपाल
मासिक पत्रिका 'इंडियन व्यू' में प्रकाशित पुस्तक 'हिन्दवी स्वराज्य दर्शन' की समीक्षा |
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