- लोकेन्द्र सिंह
भारतीयता को स्थापित करने के मामले में उत्तरप्रदेश सरकार के प्रयास सराहनीय हैं। गत वर्ष से अयोध्या में दीपावली मनाने की शुरुआत कर उत्तरप्रदेश की योगी सरकार ने इस दिशा में बड़ी पहल प्रारंभ की थी। अब ऐतिहासिक, धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व के शहर को उसका वास्तविक एवं गौरवशाली नाम 'प्रयागराज' लौटा कर अनुकरणीय कार्य किया है। भले ही एक समय में राजनीतिक और सांप्रदायिक ताकत ने प्रयागराज का नाम बदल कर इलाहाबाद कर दिया हो, लेकिन जनमानस के अंतर्मन में वह प्रयागराज ही रहा। इसलिए जब हम तर्पण करने के लिए इलाहाबाद जाते हैं, तो यह कभी नहीं करते कि इलाहाबाद जा रहे हैं, मुंह से हमेशा यही निकला- 'तर्पण के लिए प्रयाग जा रहे हैं।' भारतीय ज्ञान-परंपरा और अध्यात्म का सबसे बड़ा मानव संगम 'कुंभ' जिन चार शहरों में आयोजित होता है, उनके नाम हैं- हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक। भले ही सन् 1583 में अकबर ने सरकारी दस्तावेज से प्रयागराज को मिटाकर उसकी जगह इलाहाबाद नाम लिख दिया हो, लेकिन इससे भारतीय मानस में अंकित 'प्रयागराज' कभी नहीं मिटा। वह अब तक अमिट रहा। कुंभ का आयोजन बाहरी तौर पर इलाहाबाद में होता रहा, लेकिन उसकी सांस्कृतिक भूमि हमेशा से प्रयाग ही रही। कुंभ में पवित्र स्नान के लिए देश के कोने-कोने से आने वाले श्रद्धालु कभी भी इलाहाबाद नहीं, बल्कि प्रयाग ही आए। इससे सिद्ध होता है कि सांस्कृतिक पहचान कभी जोर-जबरदस्ती से नहीं मिटती। वह उस संस्कृति के मानने वालों के मन में सदैव के लिए जिंदा रहती हैं। आज वह अवसर आया है जब प्रयाग को पुन: उसकी वास्तविक पहचान मिली।
निश्चित ही उत्तरप्रदेश सरकार और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के इस कदम से कुछ अभारतीय विचार के लोग आहत हुए होंगे। भारतीयता को स्थापित करने वाले प्रत्येक प्रयास से इन सबको अथाह पीड़ा होती ही है। आश्चर्य की बात है कि कलकत्ता का नाम कोलकाता किया गया तब किसी को आपत्ति नहीं हुई। बंबई का नाम मुंबई किया गया तो किसी को दिक्कत नहीं हुई। मद्रास बिना किसी विवाद के चेन्नई हो गया। दिल्ली के महत्वपूर्ण स्थान कनाट प्लेस का नाम बदल कर राजीव चौक हो जाता है। पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा और केरल में भी कई स्थानों, भवनों और मार्गों के नाम आतातायियों के नाम पर रख दिए जाते हैं, तब भी कहीं कोई विवाद/बहस नहीं होती। किंतु, जैसे ही औरंगजेब रोड की जगह एपीजे अब्दुल कलाम रोड किया जाता है, जब गुडगाँव को गुरुग्राम कहा जाता है, जब मुगलसराय रेलवे स्टेशन का नाम बदलकर पंडित दीनदयाल उपाध्याय रेलवे स्टेशन किया जाता है, तब तथाकथित प्रगतिशील लोग वितंडावाद खड़ा करना प्रारंभ कर देते हैं। प्रयागराज के संदर्भ में भी यह जमात यही काम कर रही है।
कुछ लोग इसे नाम बदलना कह रहे हैं, जबकि वास्तविकता में यह नाम बदलना नहीं है, बल्कि बदले हुए नाम को सही करने का प्रयास है। जो बदले गए, उन्हें पूर्ववत किया जा रहा है। अच्छी बात यह है कि उनके कुतर्क का जवाब सरकार की जगह आम जनता दे रही है। सामान्य जन के तर्क के सामने उनके बौद्धिक पाखंड की धज्जियां उड़ रही हैं। दरअसल, हिंदू समाज वर्षों से इलाहाबाद का नाम बदलकर प्रयागराज करने की माँग कर रहा था। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी पहली भारतीय सरकार के सामने यह माँग रखी गई थी। किंतु, जैसा कि हम जानते हैं कि अब तक हिंदुओं की जनभावनाओं की उपेक्षा ही हुई थी। अब जब उन्हें उनकी सांस्कृतिक पहचान के मानबिंदु पुन: प्राप्त हो रहे हैं, तब वह हर प्रकार के बौद्धिक पाखंड का मुकाबला करने को उत्साहित है।
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन 145वीं जयंती - स्वामी रामतीर्थ और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
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