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काम-धंधे की तलाश में
देहरी छूटी, घर छूटा
गलियां छूटी, चौपाल छूटा
छूट गया अपना प्यारा गांव
मिली नौकरी इक बनिया की
सुबह से लेकर शाम तक
रगड़म-पट्टी, रगड़म-पट्टी
बन गया गधा धोबी राम का।
आ गया शहर की चिल्ल-पों में
शांति छूटी, सुकून छूटा
सांझ छूटी, सकाल छूटा
छूट गया मुर्गे की बांग पर उठना
मिली चख-चख चिल्ला-चौंट
ऑफिस से लेकर घर के द्वार तक
बॉस की चें-चें, वाहनों की पों-पों
कान पक गया अपने राम का।
सीमेन्ट-कांक्रीट से खड़े होते शहर में
माटी छूटी, खेत छूटा
नदी छूटी, ताल छूटा
छूट गया नीम की छांव का अहसास
मिला फ्लैट ऊंची इमारत में
आंगन अपना न छत अपनी
पैकबंद, चकमुंद दिनभर
बन गया कैदी बाजार की चाल का।
- लोकेन्द्र सिंह -
(काव्य संग्रह "मैं भारत हूँ" से)
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