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मंगलवार, 26 दिसंबर 2017

त्वरित न्याय

 महिला  अपराधों में लगातार हो रही वृद्धि से मध्यप्रदेश की जनता एवं सरकार, सब चिंतित हैं। अक्टूबर के आखिरी दिन 'बेटी बचाओ' का नारा देने वाले प्रदेश में कोचिंग से पढ़ कर घर जा रही किशोरी के साथ मानसिक तौर पर बीमार लोगों ने सामूहिक दुष्कर्म कर, मध्यप्रदेश की चिंता को भय में बदल दिया था। घटना के बाद पीडि़त किशोरी ने जिस तरह साहस एवं शक्ति दिखाई थी, उसके ठीक उलट व्यवस्था ने कायरता एवं बेशर्मी का प्रदर्शन किया था। समाज को सुरक्षा एवं न्याय का भरोसा देने वाले पुलिस विभाग ने पीडि़त और उसके अभिभावक के साथ जिस तरह का लापरवाही भरा व्यवहार किया था, उससे प्रदेश के सभी अभिभावक भयभीत हो गए थे। सुरक्षा देने में असफल व्यवस्था पीड़िता का दर्द समझने के लिए भी तैयार नहीं दिखा। बल्कि, अपनी खिलखिहट से पीड़िता के जख्मों पर नमक रगड़ने का काम किया गया। किंतु, साहसी लड़की ने बड़ी हिम्मत और धैर्य दिखाया, उसका परिणाम अब अनुकरणीय उदाहरण बन गया है। न्यायालय ने बहुत तेजी से मामले की सुनवाई करते हुए घटना के मात्र 54 दिन बाद ही चारों आरोपियों को दोषी करार देकर मृत्यु तक सलाखों के पीछे रहने का आदेश सुनाया है।
          हम जानते हैं कि न्यायमूर्तियों की कमी एवं कुछ व्यवस्थागत कमियों के कारण भारत में त्वरित न्याय की आस भी बेमानी है। भारत की अदालतों में कई मामले इतने अधिक लंबे चलते हैं कि 'न्याय की धीमी प्रक्रिया' पीडि़त को स्वयं पर एक और 'अन्याय' प्रतीत होती है। त्वरित न्याय के लिए प्रतिबद्ध (फास्ट ट्रैक कोर्ट) विशेष न्यायालय ने पीड़िता के साथ अन्याय नहीं होने दिया। बीभत्स घटना की स्मृतियों से संघर्ष कर रही पीड़िता को न्यायपालिका ने भरोसा दिया है। देश-प्रदेश की सभी अदालतों को न्यायमूर्ति सविता दुबे के न्यायालय से प्रेरणा लेनी चाहिए कि इस प्रकार के संवेदनशील मामलों में किस प्रकार त्वरित न्याय उपलब्ध कराया जाए। जब इस प्रकार के मामले लंबे खिंचते हैं, तब पीड़िता एवं उसके अभिभावकों के अंतर्मन में चलने वाला संघर्ष उतने ही समय तक उन्हें सालता है। 
          पीड़िता के मन की स्थिति को ध्यान में रखते हुए न्यायालय ने टिप्पणी की है- 'ज्यादती कोई साधारण अपराध नहीं है। व्यक्ति मनोवैज्ञानिक एवं भावनात्मक रूप से टूटना झेलता है। इस प्रकार के दु:साहस में उदारतापूर्वक विचार किया जाना संभव नहीं है।' स्पष्ट है कि त्वरित न्याय से जहाँ पीडि़त पक्ष को राहत मिलती है, वहीं अपराधियों में भी भय व्याप्त होता है। समाज में एक संदेश जाता है कि अपराध करने के बाद दण्ड से नहीं बच सकते। जो अपराध किया है, उसका दण्ड भी उसी समय में भुगतना पड़ेगा। महिलाओं के लिए सुरक्षित वातावरण उपलब्ध कराने के लिए इस प्रकार की तेजी से सुनवाई एवं त्वरित न्याय की आवश्यकता है।
          न्यायमूर्ति सविता दुबे ने निर्णय सुनाते हुए उस भारतीय परंपरा के दर्शन भी कराए, जिसमें महिलाएं सर्वोच्च सम्मान की अधिकारी हैं। उन्होंने कहा कि जहाँ महिलाओं का सम्मान होता है, वहाँ देवता निवास करते हैं और जहाँ महिलाएं पीडि़त होती हैं, वहाँ कुल का नाश होता है। यह भारतीय समाज का आदर्श है। महिलाओं का सम्मान एवं उनकी सुरक्षा सभ्य समाज का प्रतीक है। हमें ऐसी ही स्थिति को प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए, जहाँ महिलाओं का पूरा सम्मान हो, उनको स्वतंत्रता हो और उन्हें किसी प्रकार का भय न हो। उम्मीद है कि मध्यप्रदेश के न्यायालय ने जिस तेज गति से न्याय किया है, इस प्रकार के मामलों में अन्य न्यायालय भी वैसी ही सक्रियता दिखाएंगे।

2 टिप्‍पणियां:

  1. दंड का भय ही तो नहीं रहता राक्षसी प्रवृति वालों को, ऊपर से पेचीदा कानूनी दाव पेंच, अपराधी को बचाने वालों की लम्बी फेहरिस्त और जुगाड़-तुगाड कर छूट जाना, पीड़ित और परिवार को धमकाना, मारपीट करना, कराना .. बड़ी बिडम्बना है
    चिंतनशील प्रस्तुति

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  2. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन ’एक पर एक ग्यारह - ब्लॉग बुलेटिन’ में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...

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