
आखिर न्यायपालिका पर क्या दबाव आ गया कि उसे धार्मिक पक्ष को प्राथमिकता देना पड़ रहा है, जबकि न्यायपालिका की सबसे बड़ी जिम्मेदारी है कि वह संविधान द्वारा प्रत्येक नागरिक को प्रदत्त मौलिक अधिकारों की रक्षा सुनिश्चित करे। हिंदू कोड बिल को लागू करते समय भी क्या न्यायपालिका ने इसी प्रकार विचार किया था? क्या जब हिंदुओं से जुड़ा मामला न्यायपालिका में पहुँचता है, तब न्यायमूर्ति इसी तरह विचार करते हैं? संथारा इसका उदाहरण है। संथारा तो नितांत धार्मिक और व्यक्तिगत धर्म का मामला था, लेकिन उस पर न्यायालय ने इस तरह से विचार नहीं किया, क्यों? दही हांडी, जल्लीकट्टू, शनि शिंगणापुर, गणेश मूर्ति की ऊंचाई इत्यादि ऐसे विषय हैं, जब न्यायपालिका ने अपने निर्णय में धर्म और धार्मिक भावनाओं का ख्याल नहीं रखा। लेकिन, जब मुस्लिम समुदाय से जुड़ा मामला न्यायपालिका में पहुँचा है, तब वह संविधान के पन्ने पलटने की बजाय इस्लाम के मूल तत्वों की पड़ताल कर रही है। न्यायपालिका के इस प्रकार के आचरण से हिंदू मन का आहत होना स्वाभाविक है। हिंदुओं के मन में यह विचार क्यों नहीं जन्म लेगा कि उनके ही देश में उनके ही साथ सौतेला व्यवहार किया जाता है। इस प्रकार की प्रवृत्ति ही हिंदू और मुसलमानों को दूर करने का कारण बनती है। इस प्रकार के अभ्यास से ही दोनों के बीच विभेद और खाई उत्पन्न होती है। सबसे अधिक दु:ख की बात यह है कि अब तक राजनीतिक दल इस प्रकार का व्यवहार करते थे, लेकिन अब न्याय के मंदिर में भी तुष्टीकरण की नीति का पालन किया जा रहा है।
पढ़ें - सुधार क्यों नहीं चाहता मुस्लिम समुदाय
पढ़ें - सुधार क्यों नहीं चाहता मुस्लिम समुदाय
देश के सामने आज बड़ा सवाल उत्पन्न हुआ है कि न्यायपालिका के सामने धर्म, परंपराएं, मान्यताएं और धार्मिक भावनाएं प्राथमिक हैं या फिर संवैधानिक व्यवस्था? तीन तलाक, हलाला और बहुविवाह का मामला धर्म से कहीं अधिक व्यक्ति के मौलिक अधिकारों से जुड़ा है। न्यायपालिका को यह कदापि नहीं भूलना चाहिए कि यहाँ मुस्लिम महिलाओं के मौलिक अधिकारों और सम्मान-स्वाभिमान से जीने के अधिकार का मामला है? क्या न्यायपालिका को १९८६ को शाहबानो प्रकरण परेशान कर रहा है, जब उसके निर्णय को मुस्लिम पुरुषों के दबाव में संसद से उलट दिया गया था? न्यायपालिका को सभी प्रकार के दबावों और पूर्वाग्रहों से मुक्त रहना होगा। वैसे भी तीन तलाक का मामला इस्लाम का मूल तत्व नहीं है। बल्कि तीन तलाक पुरुष समाज की मनमानी प्रक्रिया है। इसमें पति को एक तरफा अधिकार दिया गया है। महिलाओं के अधिकार और उनके सम्मान की अनदेखी की गई है। दुष्ट और नालायक पति से तलाक लेने के लिए मुस्लिम महिला के पास कोई रास्ता नहीं है, जबकि एक नेकदिल महिला को उसका पति कभी भी बिना किसी कारण तीन बार तलाक बोलकर या लिखकर तलाक दे सकता है। मुस्लिम पुरुषों के पास महिलाओं के शोषण के लिए यह एक विशेषाधिकार है। बहरहाल, यदि तीन तलाक इस्लाम का मूल तत्व होता, तब शुद्ध इस्लामिक देशों में उस पर प्रतिबंध नहीं लगाया जाता। भारत के ही पड़ोसी और इस्लामिक देश बांग्लादेश और पाकिस्तान में भी तीन तलाक का चलन नहीं है। यहाँ इसे गैर-इस्लामिक माना गया है। फिर भारत जैसे पंथनिरपेक्ष देश में कबीलाई परंपरा क्यों जारी रहनी चाहिए? निश्चित ही इसे खत्म करने का वक्त आ गया है।
पढ़ें - तीन तलाक पर बोर्ड का ढोंग
पढ़ें - तीन तलाक पर बोर्ड का ढोंग
यह ऐतिहासिक अवसर है, जब देश की मुस्लिम महिलाएं पितृसत्तात्मक व्यवस्था के शोषण से मुक्ति के लिए साहस के साथ एकजुट होकर खड़ी हैं। यहाँ मुस्लिम महिलाओं के पक्ष को ठीक से सुना जाना जरूरी है। यह उनकी पीड़ा और दर्द की कराह को ध्यानपूर्वक सुनने का अवसर है। मुस्लिम महिलाओं को न्यायपालिका और वर्तमान सरकार से बड़ी उम्मीद है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और उनकी सरकार तो मुस्लिम महिलाओं के साथ खुलकर खड़ी है। गुरुवार को सुनवाई के दौरान एक बार फिर यह साबित हो गया कि सरकार तीन तलाक को खत्म करने के पक्ष में है। सरकार का मत स्पष्ट है। सरकार लैंगिक समानता और महिलाओं की सम्मानित जिंदगी के लिए लड़ रही है। सरकार का मानना है कि तीन तलाक लैंगिक समानता और महिलाओं के सम्मान के खिलाफ है। इसे खत्म करना महिलाओं को शोषणकारी व्यवस्था से मुक्ति दिलाना है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
पसंद करें, टिप्पणी करें और अपने मित्रों से साझा करें...
Plz Like, Comment and Share