भारत के राज्य जम्मू-कश्मीर में बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक का मुद्दा बड़ी बहस में तब्दील हो सकता है। इस मसले पर बहस होनी भी चाहिए। देश के उच्चतम न्यायालय ने एक याचिका की सुनवाई करते हुए कहा है कि केंद्र और राज्य सरकार को आपस में बातचीत करके इस मसले का हल खोजना चाहिए चाहिए कि राज्य में मुस्लिम समाज को अल्पसंख्यक का दर्जा मिलते रहने देना चाहिए या नहीं? उन्होंने चार सप्ताह में इस मुद्दे पर रिपोर्ट प्रस्तुत करने के निर्देश दिए हैं। ध्यान देने की बात यह है कि उच्चतम न्यायालय ने इस मुद्दे को महत्त्वपूर्ण माना है। यकीनन यह बहुत महत्त्वपूर्ण मुद्दा है। राज्य के लिए ही नहीं, बल्कि देश के संदर्भ में भी इस पर व्यापक बहस की जानी चाहिए। आखिर किस सीमा तक किसी समाज को अल्पसंख्यक माना जाना चाहिए? अल्पसंख्यक दर्जे को पुन: परिभाषित करने की जरूरत है। यह संवेदनशील मुद्दा है। इस पर बहस के अपने खतरे भी हैं। लेकिन, तमाम खतरों के प्रभाव को कम करने के उपाय खोजते हुए इस विषय पर एक गंभीर और सकारात्मक बहस की जरूरत है।
जम्मू-कश्मीर में अल्पसंख्यक दर्जे पर बहस जम्मू के वकील अंकुर शर्मा की ओर से दायर की गई जनहित याचिका से उपजी है। दरअसल, उन्होंने इस बात को अनुभूत किया कि जम्मू-कश्मीर में मुसलमान बहुसंख्यक हैं। इसके बावजूद वहां अल्पसंख्यकों के लिए सरकारी योजनाओं का लाभ बहुसंख्यक मुसलमानों को मिल रहा है। उनका कहना था कि 'मुसलमानों को मिले अल्पसंख्यक समुदाय के दर्जे पर फिर से विचार किया जाना चाहिए और राज्य की जनसंख्या के आधार पर अल्पसंख्यक समुदायों की पहचान की जानी चाहिए।' जनसंख्या-2011 के आंकड़ों के मुताबिक जम्मू-कश्मीर में मुस्लिम आबादी 68 प्रतिशत से अधिक है। इसलिए सवाल उठता है कि राज्य में बड़ी आबादी होने के बाद भी मुसलमान अल्पसंख्यक कैसे हो सकते हैं? अल्पसंख्यकों के नाम पर जारी योजनाओं को हड़पकर क्या प्रदेश का बहुसंख्यक समाज वास्तविक अल्पसंख्यकों के साथ बेईमानी नहीं कर रहा है?
चिंता इसलिए भी अधिक है, क्योंकि जम्मू-कश्मीर में वास्तविक अल्पसंख्यकों के साथ ही भेदभाव नहीं हो रहा है, बल्कि दलित और पिछड़े वर्ग के अधिकारों की भी अनदेखी हो रही है। गंभीरता से विचार करने वाली बात यह भी है कि बात-बेबात संज्ञान लेने वाले अल्पसंख्यक आयोग और दूसरे आयोग जम्मू-कश्मीर में वास्तविक अल्पसंख्यक, दलित एवं पिछड़े वर्ग के अधिकारों पर आँखें बंद करके क्यों बैठे हैं? हैरत की बात है कि जम्मू-कश्मीर में राज्य अल्पसंख्यक आयोग जैसी संस्था भी नहीं है। उल्लेखनीय है कि उच्चतम न्यायालय पूर्व में इस मसले पर जम्मू-कश्मीर सरकार के साथ ही राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग को भी नोटिस जारी कर चुका है। दरअसल, इस देश में जिस प्रकार सांप्रदायिकता और पंथनिरपेक्षता की गलत परिभाषाएं गढ़ दी गईं हैं, वैसे ही अल्पसंख्यक की अवधारणा को भी पूर्व से तय खाँचों में बांध दिया गया है। संकुचित परिभाषाओं को तोडऩे का समय है। खाँचों से बाहर निकलकर विमर्श करने की आवश्यकता है।
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