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मंगलवार, 11 दिसंबर 2018

पत्रकारिता की पाठशाला : जहाँ कलम पकड़ना सीखा

- लोकेन्द्र सिंह -
एक उम्र होती है, जब अपने भविष्य को लेकर चिंता अधिक सताने लगती है। चिकित्सक बनें, अभियंत्री बनें या फिर शिक्षक हो जाएं। आखिर कौन-सा कर्मक्षेत्र चुना जाए, जो अपने पिण्ड के अनुकूल हो। वह क्या काम है, जिसे करने में आनंद आएगा और घर-परिवार भी अच्छे से चल जाएगा? इन सब प्रश्नों के उत्तर अंतर्मन में तो खोजे ही जाते हैं, अपने मित्रों, पड़ोसियों और रिश्तेदारों से भी मार्गदर्शन प्राप्त किया जाता है। पारिवारिक परिस्थितियों के कारण वह उम्र मेरे सामने समय से थोड़ा पहले आ गई थी। पिताजी का हाथ बँटाने के लिए तय किया कि अपन भी पढ़ाई के साथ-साथ नौकरी करेंगे। शुभचिंतकों ने कहा कि नौकरी के सौ तनाव हैं, जिनके कारण पढ़ाई पर विपरीत असर पड़ेगा। लेकिन, मेरे सामने भी कोई विकल्प नहीं था। प्रारंभ से ही मेरी रुचि पढऩे-लिखने में रही है। अखबारों में पत्र संपादक के नाम लिखना और पत्र-पत्रिकाओं द्वारा आयोजित निबंध/लेख प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेकर पत्र-पुष्प भी प्राप्त करता रहा। मेरा मार्गदर्शन करने वाले लोग मेरे इस स्वभाव से भली प्रकार परिचित थे। तब उन्होंने ही सुझाव दिया कि मुझे पत्रकारिता को अपना कर्मक्षेत्र बनाना चाहिए। हालाँकि उस समय अपने को पत्रकारिता का 'क-ख-ग' भी नहीं मालूम था। तब तय हुआ कि इसके लिए स्वदेश में प्रशिक्षण प्राप्त किया जा सकता है। वहाँ पत्रकारिता का ककहरा सीखने के साथ-साथ बिना तनाव के जेबखर्च भी कमाया जा सकता है। इस संबंध में स्वदेश, ग्वालियर के संपादक लोकेन्द्र पाराशर जी और मार्गदर्शक यशवंत इंदापुरकर जी से मेरा परिचय कराया गया। उन्होंने मेरे मन को खूब टटोला और स्वदेश में तीन माह तक बिना वेतन के प्रशिक्षु पत्रकार रखने का प्रस्ताव दिया। तय हुआ कि काम सीख जाने पर तीन माह बाद मानदेय मिलना प्रारंभ हो सकेगा। मैंने प्रस्ताव स्वीकार कर लिया।
 
          इस पहली मुलाकात में ही लोकेन्द्र पाराशर जी ने खाली कुर्सी-मेज की ओर इशारा करते हुए कहा- 'वहाँ जाकर बैठ जाओ और आज से ही काम शुरू करो।' पहले ही दिन काम करना होगा, इस मानसिकता से मैं गया ही नहीं था। लेकिन, बिना कोई सवाल-जवाब किए मैं चुपचाप जाकर बताए स्थान पर बैठ गया। थोड़ी देर तक मनन करता रहा कि आज कैसे बचकर घर जाया जाए। थोड़ी उधेड़बुन के बाद में संपादक कक्ष में पहुँच गया और कहा- 'सर, कल से काम शुरू कर सकता हूं क्या? अभी मानस नहीं है।' उसी समय पत्रकारिता की पहली सीख मिली। संपादक श्री पाराशर ने कहा- 'पत्रकारिता में किसी भी क्षण काम के लिए तैयार रहना चाहिए। यह ऐसी विधा है, जिसमें काम का कोई समय निश्चित नहीं है। पत्रकारिता प्रतिक्षण की जाती है।' उसके बाद उन्होंने कहा- 'ठीक है चले जाओ। लेकिन, कल एक खबर बनाकर लाना।' खबर का विषय पूछने पर उन्होंने स्वर्णरेखा नदी (नाला) बताया। उस समय स्वर्णरेखा नाले को पक्का करने और उसे लंदन की 'टेम्स नदी' बनाने की परियोजना की सुगबुगाहट थी। खैर, मैं दूसरे दिन इस संबंध में 'खबर' बनाकर ले गया। बड़े जतन से लिखी थी। 500 शब्दों की खबर लिखने में तकरीबन तीन घंटे का समय लगाया था। लेकिन, लोकेन्द्र जी ने उसे देखते ही खारिज कर दिया और पूछा - 'यह खबर है या लेख'। अपन मायूस हो गए, कुछ न कह सके। दरअसल, उस समय न तो अपने को खबर की समझ थी और न ही लेख का व्याकरण पता था। तब संपादक महोदय ने बड़ी सहजता से खबर, फीचर, लेख, साक्षात्कार का अंतर समझा दिया। उसके बाद उन्होंने नगर प्रमुख (सिटी चीफ) प्रवीण दुबे को बुलाकर मुझे उनके हवाले कर दिया और कहा कि इससे प्रेस विज्ञप्तियाँ बनवाओ। करीब महीनाभर प्रेस विज्ञप्तियों से समाचार बनाए। प्रारंभ में एक प्रेस विज्ञप्ति को समाचार का रूप देने के लिए अनेक प्रयास करने पड़ते थे। मैं समाचार बनाकर ले जाता, नगर प्रमुख उसमें दस कमियाँ निकालकर फिर से बनाने को कह देते। ऐसा करते-करते एक स्थिति आ गई कि मैं एक ही बार में प्रेस विज्ञप्ति से समाचार बनाने में दक्ष हो गया। उसके बाद मुझे नगर में होने वाले सामाजिक और सांस्कृतिक कार्यक्रमों के कवरेज के लिए भेजा जाने लगा। बाद में कुछ महत्त्वपूर्ण कार्यक्षेत्र में काम करने का अवसर दिया गया। 
          संपादक लोकेन्द्र पाराशर नियमित मेरे काम की रिपोर्ट लेते रहते थे। इसके साथ ही पत्रकारिता के एक आयाम का प्रशिक्षण होने के बाद वह मुझे दूसरे आयाम का प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए प्रेरित करते थे। इस प्रकार रिपोर्टिंग और संपादन, दोनों काम मैंने सीख लिए। इस प्रशिक्षण के दौरान उन्होंने स्वदेश की राष्ट्रीय पत्रकारिता से परिचय भी कराया। स्वदेश की पत्रकारिता के सिद्धाँतों का बीजारोपण भी मेरे अंतर्मन में किया। लोकेन्द्र जी ने सिखाया- 'पत्रकारिता बहुत जिम्मेदारी भरा काम है। हमारी जरा-सी असावधानी कई बार समाज या किसी व्यक्ति के लिए घातक साबित हो सकती है। तुम्हारा स्रोत तुम्हें जो खबर दे रहा है, उसकी पूरी पड़ताल करना जरूरी है। किसी के खिलाफ कोई खबर है तो उसकी तह में जाओ, उसका पक्ष जरूर जानो, वरना आपकी लेखनी से उस व्यक्ति की जो प्रतिष्ठा धूमिल होगी, उसे आप वापस नहीं ला सकेंगे। खबर आत्मा की तरह पवित्र होनी चाहिए।' मध्यप्रदेश और उसके बाहर 'पत्रकारिता की पाठशाला' के नाम से प्रसिद्ध स्वदेश समाचार पत्र में सीखे पत्रकारिता के इसी धर्म का पालन मैंने किया और अब इसी धर्म को आगे बढ़ा रहा हूं। 
पारिवारिक और सकारात्मक वातावरण : 
स्वदेश में सीखने-सिखाने और काम करने का माहौल का सदैव से बहुत प्रेरक एवं आनंददायी रहा है। मैंने वैसा सकारात्मक वातावरण अन्य किसी समाचार पत्र के दफ्तर में नहीं पाया। यहाँ संपादक की भूमिका लगभग अभिभावक की तरह रही है। स्वदेश परिवार के प्रत्येक सदस्य की आत्मीयता के साथ चिंता करने की परंपरा को सभी संपादकों ने निभाया। हालाँकि मेरा अनुभव केवल लोकेन्द्र पाराशर के साथ काम करने का रहा। लेकिन, वहाँ अपने से वरिष्ठ साथियों से मामाजी माणिकचंद वाजपेयी, राजेन्द्र जी शर्मा और जयकिशन जी शर्मा के व्यवहार और स्वभाव के अनेक प्रसंग सुने।  
मुझे जोर से डाँटने का सामर्थ्य किसी का नहीं था : 
यह शीर्षक देखकर आप यह मत सोचिए कि मैं कोई दबंग या झगड़ालू किस्म का था। ऐसा भी नहीं है कि कार्यालय में सबको किसी प्रकार का भय दिखाता था। यह भी नहीं था कि मैं गलतियाँ ही नहीं करता था। बल्कि मैं तो अनेक गलतियाँ करता था और उनके लिए डाँट खाने के लिए भी तैयार रहता था। दरअसल, अपना भाग्य अच्छा था कि स्वदेश के संपादक का नाम लोकेन्द्र था। अब भला कोई भी मेरा नाम लेकर जोर से कैसे डाँट सकता था? संपादक लोकेन्द्र पाराशर के सम्मान के कारण मेरा नाम जोर से लेने तक की हिम्मत कोई नहीं करता था। संपादक जी के कक्ष का दरवाजा खुला रहता था। संपादकीय कक्ष में हम जो भी बात करते उनको सुनाई देती थीं। वह हमें आसानी से देख भी सकते थे। इसलिए अनेक गलतियाँ करने के बाद भी सार्वजनिक डाँट मैंने नहीं खाई थी। नगर प्रमुख या समाचार संपादक को मुझे डाँटना होता, वह पहले इशारे से मुझे अपने पास बुलाते और फिर धीमी आवाज में समझाते।
पुलिस और कुत्तों से पीछा छुड़ाने के लिए ले जाते थे अखबार : 
स्वदेश में काम करते हुए कुछ रोचक अनुभव भी आए। उनमें से एक यह भी था कि रात में पुलिस और कुत्तों से पीछा छुड़ाने के लिए कार्यालय से अखबार की प्रतियाँ लेकर जाता था। करीब तीन-चार माह बाद ही संपादक जी ने सप्ताह में तीन दिन अखबार छूटने तक कार्यालय में रुकने की जिम्मेदारी दे दी। इन तीन दिनों में खबर लिखने के बाद और पृष्ठ सज्जा में सहयोग करना और बाद में तैयार पृष्ठों के मिनिएचर (प्रिंट आउट) लेकर उसे जाँचना, जैसे काम करने होते थे। जब सभी पृष्ठ मुद्रण के लिए चले जाते, तब ही हम घर जा सकते थे। अधिक रात हो जाती थी। स्वदेश कार्यालय, जयेन्द्रगंज से दाल बाजार और नया बाजार होते हुए कम्पू तक पैदल ही जाना होता था, क्योंकि उस वक्त मेरे पास कोई वाहन नहीं था। साथ में मित्र हरेकृष्ण दुबोलिया भी था। वह भी वाहनविहीन ही था। पहले दिन ही रास्ते में दो जगह पुलिस की गस्त मिली। रात को दो बजे सुनसान सड़क पर दो लड़कों को देखकर पुलिस ने हमें रोक लिया और काफी देर पूछताछ की। बड़ी मुश्किल से उन्हें समझा सके कि हम पत्रकार हैं और स्वदेश में काम करते हैं। उस समय मोबाइल भी नहीं था, वरना स्वदेश में बात कराकर पुलिसवालों को संतुष्ट कराया जा सकता था। खैर, उनको समझाबुझा कर आगे बढ़े तब कुत्ते आगे-पीछे लग लिए। बड़ी मुसीबत। यह घटना दूसरे दिन प्रेस में अपने वरिष्ठ साथियों को बताई, तब उन्होंने सलाह दी कि कार्यालय से 'डाक संस्करण' की प्रतियाँ ले जाया करो। अखबार की प्रतियाँ पुलिसवालों को दिखाने से वह मान जाते थे कि हम स्वदेश के दफ्तर से आ रहे हैं। वहीं, उन प्रतियों का रोल बनाकर कुत्तों को भी भगाने में सुविधा हो जाती थी। अखबार इस तरह हमारी राह आसान करता था। 
आज भी संभालकर रखा है पहला अखबार : 
अमूमन पत्रकार यह करते हैं कि वह अपनी पहली बायलाइन खबर को सहेजकर रखते हैं। लेकिन, मैंने उस अखबार को आज भी संभालकर रखा है, जिसमें मेरा 'गिलहरी योगदान' भी नहीं था। पहले दिन जिन प्रेस विज्ञप्तियों को खबर की शक्ल देकर उन्हें छपने के लिए दिया था, अगले दिन बड़ी शिद्दत से उन्हें अखबार में खोजा था। मैंने कोई दो-तीन प्रेस विज्ञप्तियाँ बनाईं थीं, उन्हें अगले दिन अखबार में प्रकाशित देकर अलग ही आनंद की अनुभूति हुई। संभवत: ऐसा आनंद पहली बायलाइन खबर पर भी नहीं हुआ था। 
शहर के सभी अखबारों के संपादक स्वदेश से प्रशिक्षित : 
राष्ट्रीय पत्रकारिता को स्थापित करने में स्वदेश का अहम योगदान है। उससे भी अधिक योगदान 'राष्ट्रीय विचार के पत्रकारों' का बड़ा समूह तैयार करने में स्वदेश का मुकाबला आज के शिक्षा संस्थान भी नहीं कर पाएंगे। स्वदेश ने देश को अनेक महत्त्वपूर्ण पत्रकार दिए हैं। खैर, एक दिन पत्रकार मित्रों के साथ बैठक में पत्रकारिता में स्वदेश के प्रभाव और योगदान पर चर्चा चल निकली। सब अपनी बात कह रहे थे। मैंने सबका ध्यान इस ओर खींचा कि आज शहर के जितने भी प्रमुख समाचार पत्र हैं, उनके संपादक स्वदेश से ही प्रशिक्षित हैं।

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