- लोकेन्द्र सिंह
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संघ शिक्षा वर्ग-तृतीय वर्ष के समापन समारोह में दिए गए पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के बहुप्रतीक्षित उद्बोधन का विद्वान लोग अपने-अपने दृष्टिकोण से विश्लेषण कर रहे हैं। विद्वानों का एक वर्ग यह सिद्ध करने का भरसक प्रयास कर रहा है कि प्रणब दा ने संघ को उसके घर में घुसकर राष्ट्रवाद का पाठ पढ़ा दिया है। पूर्व में यह वर्ग प्रणब दा का विरोध सिर्फ इसलिए कर रहा था, क्योंकि उन्होंने सहर्ष संघ का न्यौता स्वीकार कर लिया था। वैसे, यह विश्लेषण करने वालों ने संभवत: भिन्न विचार के प्रति अपनी गहरी असहिष्णुता के कारण सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत का उद्बोधन नहीं सुना होगा। यदि हम दोनों महानुभावों के उद्बोधन सुनेंगे तो सार और तत्व एक जैसा ही पाएंगे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मंच से पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने जो कुछ कहा, वह सब संघ का ही विचार है।
वसुधैव कुटुम्बकम का विचार भारत का है। संघ इस विचार को न केवल जीता है, बल्कि समाज के सामने अनेक अवसर पर दोहराता भी है। आपने ध्यान से देखा ही होगा कि मंच पर लगा बैनर यही तो संदेश दे रहा था कि पूरी दुनिया एक परिवार है। जो संघ को सांप्रदायिक और विभाजनकारी बताते नहीं थकते, क्या वह बता सकते हैं कि एक विभाजनकारी संगठन विश्व को एक ही परिवार मानने का संदेश देगा? संघ के राष्ट्रवाद में सबके लिए स्थान है। यहाँ तक कि संघ के जिस 'हिंदुत्व' को एक वर्ग कट्टर बताता है, उसी हिंदुत्व को संघ के शीर्ष पदाधिकारी अनेक अवसर पर सर्वसमावेशी बता चुके हैं। संघ के हिंदुत्व में तो इस देश के मुसलमान और ईसाई भी आते हैं।
भारत के राष्ट्रवाद को संघ भी बताता है यूरोप के राष्ट्रवाद से अलग :
एक ओर पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने कहा कि मैं यहाँ राष्ट्र, राष्ट्रवाद और देशभक्ति को समझने और उसे आपके साथ साझा करने आया हूँ। उन्होंने बाल गंगाधर तिलक और पंडित जवाहर लाल नेहरू का उल्लेख करते हुए कहा कि उन्होंने कहा था कि भारत का राष्ट्रवाद हिंदू, मुस्लिम एवं अन्य को साथ लेकर बनता है। उन्होंने यह भी कहा कि 17वीं सदी में वेस्टफेलिया के समझौते के बाद अस्तित्व में आए यूरोपीय राज्यों से भी प्राचीन हमारा राष्ट्रवाद है। यूरोपीय विचारों से अलग भारत का राष्ट्रवाद वसुधैव कुटुंबकम पर आधारित है और हमने पूरी दुनिया को एक परिवार के रूप में देखा है। अब राष्ट्रवाद के संबंध में आरएसएस के विचारों को पुन: पढि़ए। संघ यही तो कहता है कि भारत के राष्ट्रवाद को यूरोप के राष्ट्रवाद के समतुल्य रख कर उसे कमतर मत कीजिए। भारत का राष्ट्रवाद राजनीतिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक है। अपने उद्बोधन में यही तो सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने कही कि भारत विविधता में एकता वाला देश है। सबकी माता भारत माता है। सभी के पूर्वज समान हैं। संगठित समाज ही भारत की पूंजी है। संगठित समाज से ही देश बदल सकता है। उन्होंने आगे कहा कि विचार कुछ भी हो, जाति-पांत और प्रांत कोई भी हो, लेकिन संपूर्ण समाज के विकास में हमारा व्यक्तिगत योगदान क्या हो सकता है, यह महत्वपूर्ण है? सरसंघचालक के इस वक्तव्य में उसी राष्ट्रवाद के दर्शन हो रहे हैं, जिसकी बात प्रणब दा ने की है। सरसंघचालक ने स्पष्ट कहा कि संघ के लिए कोई अपना-पराया नहीं है। सब संघ के अपने हैं।
आरएसएस की तरह सुनाई भारत की गौरवगाथा :
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जिस तरह अपने भारत के स्वर्णिम पृष्ठों पर गौरव की अनुभूति करता है, ठीक उसी अनुभूति को प्रणब दा ने प्रकट किया। उन्होंने प्राचीन भारत का जिक्र करते हुए कहा कि हमारा समाज शुरू से खुला रहा है। सिल्क और स्पाइस रूट जैसे माध्यमों से संस्कृति, विचारों, सबका आदान-प्रदान हुआ। भारत से होकर हिंदुत्व के प्रभाव वाला बौद्ध धर्म मध्य एशिया और चीन तक पहुंचा। उन्होंने मैगस्थनीज और फाहयान जैसे विदेशी यात्रियों का जिक्र करते हुए कहा कि इन सभी ने प्राचीन भारत के प्रशासन और बढिय़ा आधारभूत संरचना की प्रशंसा की है। उन्होंने प्राचीन भारत की शिक्षा व्यवस्था पर गौरव की अनुभूति करते हुए तक्षशिला और नालंदा का नाम लिया और कहा कि प्राचीन भारत के यूनिवर्सिटी सिस्टम ने दुनिया पर राज किया है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ गुरु भारत को विश्व पटल पर पुनस्र्थापित करने के लिए नित्य प्रार्थना करता है और प्रार्थना के स्वरों को कर्म में बदलने के लिए समाज जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में कार्यरत है। सरसंघचालक डॉ. भागवत ने अपने उद्बोधन में कहा भी, हम सभी भारत माता के पुत्र हैं। हम सभी भारत माता को परम वैभव तक ले जाना चाहते हैं।
डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार को बताया "भारत माता का महान सपूत" :
आरएसएस के संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार की जन्मस्थली (उनके घर) पर पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी और वर्तमान सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत |
अपने भाषण के मध्य में सरसंघचालक ने उचित ही कहा कि संघ लोकतांत्रिक संगठन है। यह कार्यक्रम उनके कथन को सिद्ध भी कर रहा था। जबकि पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के संघ के कार्यक्रम में आने के प्रकरण पर अन्य विचारधारा और राजनीतिक दल के विद्वानों ने अपनी अलोकतांत्रिक, असहिष्णु और संकीर्ण सोच को ही प्रकट किया था। वहीं, प्रणब मुखर्जी वरिष्ठ कांग्रेसी राजनेता हैं और उन्होंने पूर्व में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की आलोचना भी की है, यह जानते हुए भी संघ के कार्यकर्ता बंधु अपने अतिथि दादा का खुलेदिल से स्वागत कर रहे थे। पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने गोएबल्स की संतानों को एक जरूरी संदेश दिया, जो संघ के संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार के प्रति सदैव दुष्प्रचार करते रहे हैं। प्रणब दा न केवल आद्य सरसंघचालक डॉ. हेडगेवार के घर गए, बल्कि वहाँ उन्होंने विजिटर बुक में लिखा- 'मैं आज भारत माँ के महान सपूत डॉ. केबी हेडगेवार के प्रति सम्मान और श्रद्धांजलि अर्पित करने आया हूँ।' उन्होंने अपने भाषण का समापन भी स्वतंत्रता आंदोलन का मंत्र बने जयघोष वंदेमातरम् से किया।
बहरहाल, पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के उद्बोधन की जिसको जैसी व्याख्या करनी है, करे। 'जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी।' परंतु, यह जरूर विचार कीजिए कि वास्तव में कौन लोकतांत्रिक है और कौन मन-वचन-कर्म से असहिष्णु? गैर-स्वयंसेवक को संघ में बुलाना वैसे तो संघ के लिए कोई नयी परंपरा नहीं है, किंतु वर्तमान समय में पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी को स-सम्मान मंच पर बुला कर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपनी लकीर और बड़ी खींच दी है, जिसके सामने दूसरों की लकीर बहुत छोटी हो गई हैं।
रेशमबाग, नागपुर में आरएसएस के संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार की समाधि स्थल पर श्रद्धांजलि देने पहुंचे पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी एवं वर्तमान सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत |
रेशमबाग, नागपुर में आरएसएस के द्वितीय सरसंघचालक श्री माधव सदाशिवराव गोलवलकर की समाधि स्थल पर श्रद्धांजलि देने पहुंचे पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी एवं वर्तमान सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत |
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