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मंगलवार, 5 जून 2018

पश्चिम बंगाल में लोकतंत्र और मानवता की हत्या


- लोकेन्द्र सिंह
पश्चिम बंगाल में खूनी राजनीति के शिकंजे में फंसे लोकतंत्र का दम घुंट रहा है और वह सिसकियां ले रहा है। पंचायत चुनावों में तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने जिस प्रकार हिंसा का नंगा नाच किया था, उससे ही साफ जाहिर हो गया था कि बंगाल की राजनीति के मुंह खून लग गया है। पुरुलिया जिले में तीन दिन के भीतर दो दलित युवकों की जिस प्रकार हत्या की गई है, उसने बंगाल की भयावह तस्वीर को देश के सामने प्रस्तुत किया है। जिसने भी भाजपा के दलित कार्यकर्ता त्रिलोचन महतो और दुलाल कुमार की हत्या की है, उसने लोकतंत्र के साथ-साथ मानवता को भी फांसी पर लटकाया है। यह जंगलराज ही है, जहाँ एक युवक की बर्बरता से सिर्फ इसलिए हत्या कर दी जाती है, क्योंकि वह भारतीय जनता पार्टी के लिए काम करता था। यह जंगलराज ही है, जहाँ त्रिलोचन महतो के शव को पेड़ से लटका कर प्रदेश की जनता को एक संदेश दिया कि भाजपा के लिए काम करोगे तो यही अंजाम होगा। त्रिलोचन की पीठ पर हत्यारों ने बांग्ला भाषा में यह संदेश लिया था। उसकी जेब में पत्र भी रखा, जिसमें लिखा था- 'यह शख्स पिछले 18 सालों से भाजपा के लिए काम कर रहा है, पंचायत चुनाव के बाद से ही तुमको मारने की योजना बनाई जा रही थी लेकिन बार-बार बच कर निकल रहे थे। अब तुम मर चुके हो, भाजपा के लिए काम करने वालों का यही अंजाम होगा।' सोचिए, हम कहाँ जा रहे हैं? इस खूनी राजनीति से हमें क्या हासिल होगा? इस संबंध में भी विचार कीजिए कि बंगाल की राजनीति को यह रूप कब और कैसे मिला? इसका समाधान क्या है, इस संबंध में भी चिंतन की आवश्यकता है।
 
          पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री एवं तृणमूल कांग्रेस की सर्वेसर्वा ममता बनर्जी देश में कहीं भी होने वाली मारपीट की घटना पर भी मुखर हो उठती हैं। उन्हें लोकतंत्र खतरे में दिखाई देता है, किंतु अपने ही राज्य में बर्बरता पर वह चुप्पी साध कर बैठी हुई हैं। ममता बनर्जी ही क्यों, देश का वह सेकुलर तबका भी मुंह में दही जमा कर बैठा है, जिसने अवार्ड वापसी और कथित असहिष्णुता के नाम पर भारत को विदेशों में भी बदनाम किया था। निश्चित ही देश के किसी भी हिस्से में, किसी भी जाति और पंथ के व्यक्ति के साथ मारपीट या उसकी हत्या, घोर निंदनीय है। इस प्रकार की घटनाओं पर प्रबुद्ध वर्ग को मुखर होकर सत्ता पर दबाव बनाना चाहिए। ताकि मानवता के हत्यारे जेल की सलाखों के पीछे हों या फिर अपने अंजाम को प्राप्त हों। किंतु, देखने में आता है कि यह कथित प्रबुद्ध वर्ग भाजपा शासित राज्यों में होने वाली दलित उत्पीडऩ की घटनाओं पर ही आक्रोशित होता है। तब यह वर्ग 'लोकतंत्र, सहिष्णुता और पंथनिरपेक्षता खतरे में' का परचम लहराते हुए संयुक्त राष्ट्र संघ तक दौड़ लगा देता है। बंगाल में दो दलित नौजवानों की क्रूरता से हत्या की गई और उसके बाद संपूर्ण पशुता को प्रकट किया गया, किंतु अभी तक उन महानुभावों में से किसी ने न तो अवार्ड वापस किए, न धरना-प्रदर्शन किया और न ही किसी समाचार-पत्र में संपादकीय ही लिखा। कथित प्रबुद्ध वर्ग के इस दोगले आचरण से समाज चिंतित है। पत्रकारों, लेखकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के प्रति उसका अविश्वास गहराता जा रहा है। उन नेताओं ने भी अब तक एक शब्द नहीं बोला है, जो अपना राज्य छोड़कर हैदराबाद और उत्तरप्रदेश तक दौरे करते नजर आ रहे थे। दलित चिंतक का होर्डिंग टांगकर अपनी दुकान चलाने वालों ने भी बंगाल में तीन दिन में दो दलित युवकों की मौत पर किसी प्रकार की चिंता प्रकट नहीं की है। इन सबका व्यवहार देख कर तो यही लग रहा है कि मानो भारतीय जनता पार्टी का कार्यकर्ता दलित होकर भी दलित नहीं होता है। भाजपा के दलित की हत्या मानो इनके मन की मुराद पूरी होने जैसा है। मानो यह चाहते हों कि हत्यारों का संदेश समाज में गहरे तक जाना चाहिए कि भाजपा के लिए काम करने पर यही अंजाम होगा। इसलिए भाजपा से दूरी रखें।
          यह विचार करने की जरूरत है कि ममता बनर्जी के राज्य में 'हत्या की राजनीति' की परंपरा कहाँ से आई? बंगाल के लोगों ने इसी प्रकार के जंगलराज से त्रस्त होकर ही तो ममता दीदी को सत्ता सौंपी थी। इस उम्मीद के साथ कि दीदी बदलाव लाएंगी। हिंसक राजनीति पर पानी डालेंगी। राज्य में शांति और सह-अस्तित्व का वातावरण बनाएंगी। नये बंगाल का निर्माण करेंगी। उसे विकास के पथ पर आगे बढ़ाएंगी। बंगाल में जिस प्रकार विरोधी को कुचलने की राजनीति दिखाई दे रही है, वैसा दो ही प्रकार की शासन व्यवस्था में होता है- तानाशाही और साम्यवादी शासन में। इन दोनों शासन व्यवस्था में अपने विरोधी राजनीतिक विचार को निर्ममता से कुचल दिया जाता है। विश्व इतिहास के पन्ने तानाशाही और साम्यवादी शासन व्यवस्था की क्रूरताओं और रक्तरंजित तौर-तरीकों से सने हुए हैं। पश्चिम बंगाल स्वयं भी इसका प्रत्यक्ष गवाह है। यहाँ लंबे समय तक कम्युनिस्टों का शासन रहा। अपने राजनीतिक विरोधियों को मिटा देने का यह तरीका माकपा के शासन काल में बहुत उपयोग आता रहा है। किसी की हत्या करना और उसे पेड़ या खंबे पर लटका देना एवं पोस्टर के माध्यम से जनता में भय उत्पन्न करना प्रचलित कम्युनिस्ट तरीका है। माओवादी-नक्सली भी इसी प्रकार लोगों की हत्याएं करते हैं। यह लोगों में भय उत्पन्न करते हैं ताकि उनके समक्ष कोई अन्य विचार डटकर खड़ा होने का साहस नहीं कर सके। किंतु, कायरों ने इतिहास से कभी सबक नहीं लिया कि सच उस साहस का नाम है, जिसको किसी भी प्रकार दबाया नहीं जा सकता। उसे भयाक्रांत नहीं किया जा सकता। कम्युनिस्ट शासन काल में पश्चिम बंगाल विरोधियों को ठिकाने लगाने की प्रयोगशाला बन गया था। बंगाल में विरोधियों का नामोनिशान मिटाने के लिए वह तमाम प्रयोगों किए जाते थे, जो स्टालिन और लेनिन ने स्थापित किए थे। पश्चिम बंगाल के पूर्व कम्युनिस्ट मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट््टाचार्य ने विधानसभा में एक प्रश्न के उत्तर में यह स्वीकार किया था कि कम्युनिस्ट शासन के लगभग तीस साल के कार्यकाल में राज्य में लगभग 28 हजार लोगों की राजनीतिक हत्याएं हुईं। भारत में पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा और केरल राजनीतिक हिंसा के लिए कुख्यात हैं। इन तीनों ही जगह कम्युनिस्ट पार्टी का शासन रहा है, केरल में तो फिर से लौट आया है। सत्ता में लौटने के साथ ही 'ईश्वर के घर' में कामरेडों ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा के कार्यकर्ताओं की हत्या प्रारंभ भी कर दी। 
           अब विचार करते हैं कि पश्चिम बंगाल में माकपा के जंगलराज के साथ ही खूनी राजनीति की यह प्रवृत्ति समाप्त क्यों नहीं हुई। माकपा की हिंसक राजनीति का स्वयं शिकार रहीं ममता बनर्जी के शासन काल में भी यह घृणित राजनीति बदस्तूर जारी क्यों है? इस प्रश्न का उत्तर बहुत स्पष्ट है। बस यह देखने की आवश्यकता है कि तृणमूल कांग्रेस का काडर कहाँ से आया है? तृणमूल कांग्रेस के काडर में ऐसे लोगों की संख्या अधिक है, जो माकपा से आए हैं। सत्ता परिवर्तन के साथ ही माकपा का काडर तृणमूल कांग्रेस में चला आया। यही कारण है कि पश्चिम बंगाल में अब भी वही हो रहा है, जो माकपा के समय में होता रहा है। जो सहमत नहीं, उसे समाप्त करने की राजनीति। सत्ता परिवर्तन तो हुआ, किंतु व्यवस्था परिवर्तन नहीं। बैलेट से अधिक बुलेट में भरोसा करने वाला काडर अब भी बंगाल में हावी है। भाजपा की बढ़ती स्वीकार्यता से सत्ता खोने का डर उसके मन में बैठ गया है। इसलिए यह काडर अपने परंपरागत अलोकतांत्रिक, तानाशाही और क्रूर साम्यवादी तरीकों से जनता को भयाक्रांत करने की असफल कोशिश कर रहा है ताकि भाजपा बंगाल में जगह न बना सके। 
          बहरहाल, आवश्यक है कि हम अपने निहित राजनीतिक और वैचारिक स्वार्थों को छोड़ कर ऐसी परिस्थितियों में मुखर होकर बर्बरता का विरोध करें। भारतीय राजनीति के लिए यह प्रवृत्ति भली नहीं है। यह हमारे लोकतंत्र की खूबसूरती को निगल लेगी। यह प्रवृत्ति दैत्यकार रूप धरे उससे पहले ही सज्जनशक्ति को उसके विरोध एकजुट आना होगा। लोकतंत्र की निर्ममता से हत्या की दी जाए, उससे पहले ही समय रहते हमें उसकी रक्षा करनी ही होगी।
नवोदय टाइम्स में प्रकाशित 

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