- लोकेन्द्र सिंह
देश में राष्ट्रवाद पर चर्चा चरम पर है। राष्ट्रवाद की स्वीकार्यता बढ़ी है। उसके प्रति लोगों की समझ बढ़ी है। राष्ट्रवाद के प्रति बनाई गई नकारात्मक धारणा टूट रही है। भारत में बुद्धिजीवियों का एक वर्ग ऐसा है, जो हर विषय को पश्चिम के चश्मे से देखते है और वहीं की कसौटियों पर कस कर उसका परीक्षण करता है। राष्ट्रवाद के साथ भी उन्होंने यही किया। राष्ट्रवाद को भी उन्होंने पश्चिम के दृष्टिकोण से देखने का प्रयास किया। जबकि भारत का राष्ट्रवाद पश्चिम के राष्ट्रवाद से सर्वथा भिन्न है। पश्चिम का राष्ट्रवाद एक राजनीतिक विचार है। चूँकि वहाँ राजनीति ने राष्ट्रों का निर्माण किया है, इसलिए वहाँ राष्ट्रवाद एक राजनीतिक विचार है। उसका दायरा बहुत बड़ा नहीं है। उसमें कट्टरवाद है। हिंसा के साथ भी उसका गहरा संबंध रहा है। किंतु, हमारा राष्ट्र संस्कृति केंद्रित रहा है। भारत के राष्ट्रवाद की बात करते हैं तब 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' की तस्वीर उभर कर आती है। विभिन्नता में एकात्म। एकात्मता का स्वर है- 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद'। इसी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की समझ को और स्पष्ट करने का प्रयास लेखक प्रो. संजय द्विवेदी ने अपनी पुस्तक 'राष्ट्रवाद, भारतीयता और पत्रकारिता' के माध्यम से किया है। उन्होंने न केवल राष्ट्रवाद पर चर्चा को विस्तार दिया है, अपितु पत्रकारिता में भी 'राष्ट्र सबसे पहले' के भाव की स्थापना को आवश्यक बताया है।
यह पुस्तक ऐसे समय में आई है, जब मीडिया में भी राष्ट्रीय विचार 'धारा' बहती दिख रही है। हालाँकि, यह भी सत्य है कि उसका इस तरह दिखना बहुतों को सहन नहीं हो रहा। कम्युनिस्ट कुनबा अब राष्ट्रवाद को पहले की अपेक्षा अधिक बदनाम करने का षड्यंत्र रच रहा है। किंतु, राष्ट्रवाद का जो ज्वार आया है, उसमें उनके सभी प्रयास न केवल असफल हो रहे हैं, बल्कि उसके वेग से उनके नकाब भी उतर रहे हैं। पुस्तक में शामिल 38 आलेख और तीन साक्षात्कारों से होकर जब हम गुजरते हैं, तो उक्त बातें ध्यान में आती हैं। संपादक ने यह सावधानी रखी है कि राष्ट्रवाद, भारतीयता और पत्रकारिता पर समूचा संवाद एकतरफा न हो। वामपंथी साहित्यकार डॉ. विजय बहादुर सिंह अपने लेख 'समझिए देश होने के मायने!' में राष्ट्रवाद के संबंध में अपने विचार रखते हैं। वह अपने साक्षात्कार में मुखर होकर कहते हैं कि उन्हें 'राष्ट्र तो मंजूर है, पर राष्ट्रवाद नहीं।' इसी तरह जनता दल (यू) के राज्यसभा सांसद और प्रभात खबर के संपादक हरिवंश 'आइए, सामूहिक सपना देखें' का आह्वान करते हैं। टेलीविजन पत्रकार सईद अंसारी 'भारतीयता और पत्रकारिता' को अपने ढंग से समझा रहे हैं। वरिष्ठ पत्रकार आबिद रजा ने अपने लेख में यह समझाने का बखूबी प्रयास किया है कि भारतीयता और राष्ट्रीयता एक-दूसरे की पूरक हैं। उनका कहना सही भी है।
पुस्तक में राष्ट्रवाद का ध्वज उठाकर और सामाजिक जीवन का वृत लेकर चल रहे चिंतक-विचारकों के दृष्टिकोण भी समाहित हैं। विवेकानंद केंद्र के माध्यम से युवाओं के बीच लंबे समय तक कार्य करने वाले मुकुल कानिटकर, राष्ट्रवादी विचारधारा के विद्वान डॉ. राकेश सिन्हा, वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. देवेन्द्र दीपक और वरिष्ठ पत्रकार रमेश शर्मा जैसे प्रखर विद्वानों ने भारतीय दृष्टिकोण से राष्ट्रवाद को हम सबके सामने प्रस्तुत किया है। भारतीय दृष्टिकोण से देखने पर राष्ट्रवाद की अवधारण बहुत सुंदर दिखाई देती है। भारत का राष्ट्रवाद उदार है। उसमें सबके लिए स्थान है। सबको साथ लेकर चलने का आह्वान भारत का सांस्कृतिक राष्ट्रवाद करता है। इसलिए जिन लोगों को राष्ट्रवाद के नाम से ही उबकाई आती है, उन्हें यह पुस्तक जरूर पढऩी चाहिए, ताकि वह जान सकें कि राष्ट्र और राष्ट्रवाद को लेकर भारतीय दृष्टि क्या है?
मीडिया की समाज में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है। वह जनता के मध्य मत निर्माण करने में उत्प्रेरक की भूमिका निभाती है। इसलिए मीडिया में कार्य करने वाले प्रत्येक व्यक्ति की जिम्मेदारी बहुत बढ़ जाती है। अकसर यह कहा जाता है कि लोकतंत्र में मीडिया की भूमिका एक विपक्ष की तरह है। इस नीति वाक्य को सामान्य ढंग से लेने के कारण अकसर पत्रकार गड़बड़ कर देते हैं। वह भूल जाते हैं कि मीडिया की विपक्ष की भूमिका अलग प्रकार की है। वह सत्ता विरोधी राजनीतिक पार्टी की तरह विपक्ष नहीं है। उसका कार्य है कि वह सत्ता के अतार्किक और गलत निर्णयों पर प्रश्न उठाए, न कि लट्ठ लेकर सरकार और उसके विचार के पीछे पड़ जाए। किंतु, आज मीडिया अपनी वास्तविक भूमिका भूल कर राजनीतिक दलों की तरह विपक्ष बन कर रह गया है। जिस तरह विपक्षी राजनीतिक दल सत्ता पक्ष के प्रत्येक कार्य को गलत ठहरा कर हो-हल्ला करते हैं, वही कार्य आज मीडिया कर रहा है। दिक्कत यहाँ तक भी नहीं, किंतु कई बार मीडिया सत्ता का विरोध करते हुए सीमा रेखा से आगे निकल जाता है। कब सत्ता की जगह देश उसके प्रश्नों के निशाने पर आ जाता है, उसको स्वयं पता नहीं चल पाता है। संभवत: इस परिदृश्य को देखकर ही पुस्तक में 'राष्ट्रवाद और मीडिया' विषय पर प्रमुखता से चर्चा की गई है। भारतीय शिक्षण मंडल के राष्ट्रीय संगठन मंत्री मुकुल कानिटकर ने जिस तरह आग्रह किया है कि 'प्रसार माध्यम भी कहें पहले भारत', उसी बात को अपन राम ने भी अपने आलेख 'पत्रकारिता में भी राष्ट्र सबसे पहले जरूरी' में उठाया है। आज जिस तरह की पत्रकारिता हो रही है, उसे देखकर तो यही कहा जा सकता है कि हमारी पत्रकारिता में भी राष्ट्र की चिंता पहले करने की प्रवृत्ति बढऩी चाहिए। पुस्तक के संपादक प्रो. संजय द्विवेदी ने भी इस बार को रेखांकित किया है- 'उदारीकरण और भूमंडलीकरण की इस आँधी में जैसा मीडिया हमने बनाया है, उसमें 'भारतीयता' और 'भारत' की उपस्थिति कम होती जा रही है। संपादक का यह कथन ही पुस्तक और उसके विषय की प्रासंगिकता एवं आवश्यकता को बताने के लिए पर्याप्त है। राष्ट्रवाद और मीडिया के अंतर्सबंधों एवं उनकी परस्पर निर्भरता को डॉ. सौरभ मालवीय ने भी अच्छे से वर्णित किया है।
पुस्तक के संपादक प्रो. संजय द्विवेदी के इस कथन से स्पष्ट सहमति जताई जा सकती है कि - 'यह पुस्तक राष्ट्रवाद, भारतीयता और मीडिया के उलझे-सुलझे रिश्तों तथा उससे बनते हुए विमर्शों पर प्रकाश डालती है।' निश्चित ही यह पुस्तक राष्ट्रवाद पर डाली गई धूल को साफ कर उसके उजले पक्ष को सामने रखती है। इसके साथ ही राष्ट्रवाद, भारतीयता और पत्रकारिता के आपसी संबंधों को भी स्पष्ट करती है। वर्तमान समय में जब तीनों ही शब्द एवं अवधारणाएं विमर्श में हैं, तब प्रो. द्विवेदी की यह पुस्तक अत्यधिक प्रासंगिक हो जाती है।
पुस्तक : राष्ट्रवाद, भारतीयता और पत्रकारिता
संपादक : प्रो. संजय द्विवेदी
मूल्य : 650 रुपये (साजिल्द), 250 रूपए मात्र (पेपरबैक)
पृष्ठ : 247
प्रकाशक : यश पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स, दिल्ली-110032
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