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सोमवार, 21 मई 2018

जरा सोचिए, लोकतंत्र जीता, या फिर हारा

 कर्नाटक  के राजनीतिक 'नाटक' का फिलहाल पटाक्षेप हो चुका है। हालाँकि, चुनाव परिणाम बाद मजबूरी और भाजपा विरोध में जिस प्रकार का गठबंधन हुआ है, उसके कारण निकट भविष्य में भी 'उठा-पटक' की आशंका बनी हुई है। भारतीय जनता पार्टी को सत्ता से दूर रखने के लिए कांग्रेस ने उस पार्टी (जनता दल सेक्युलर) को समर्थन दिया है, जिस पर चुनाव प्रचार के दौरान राहुल गांधी 'जनता दल (संघ)' कह कर हमला किया था। संघ के प्रति राहुल गांधी का दुराग्रह जगजाहिर है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रति वह यहाँ तक द्वेष से भरे हुए हैं कि संघ की प्रतिष्ठा को धूमिल करने के लिए अनर्गल और झूठ बोलने में भी संकोच नहीं करते हैं।
          विधानसभा में शनिवार को बहुमत परीक्षण से पहले ही मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा ने त्याग-पत्र दे दिया। कर्नाटक में सबसे अधिक सीट और बहुमत से महज आठ सीट कम जीतने वाली भाजपा अपना बहुमत सिद्ध नहीं कर पाई। ज्यादातर राजनीतिक विश्लेषक, तथाकथित प्रगतिशील बुद्धिजीवी और कांग्रेस समर्थक, यहाँ तक कि मीडिया का एक वर्ग भी इस घटना को 'लोकतंत्र की जीत' बता रहा है। पिछले कुछ समय से संवैधानिक संस्थाओं, चुनाव आयोग और न्यायपालिका पर हमलावर यही वर्ग यह भी कह रहा है कि सर्वोच्च न्यायालय ने भाजपा को मनमर्जी करने से रोक दिया। इसका अर्थ यही है कि निर्णय या परिस्थितियां इनके पक्ष में रहें तो संवैधानिक संस्थाएं जीवित और निष्पक्ष हैं, वरना तो मोदी-शाह ने सबको खरीद लिया है। यह व्यवहार दुर्भाग्यपूर्ण है। मीठा-मीठा गप और कड़वा-कड़वा थू। 
          अब जरा ठहरकर सोचिए, क्या वाकई इस पूरे घटनाक्रम में लोकतंत्र की जीत हुई है? क्या जनता ने कांग्रेस को सत्ता में सहभागी होने का जनादेश दिया? जब हम ईमानदारी से आकलन करते हैं तो स्पष्ट होता है कि जनता ने कांग्रेस को सत्ता से बेदखल करने के लिए मतदान किया था। कांग्रेस के शासन से परेशान जनता ने उसे दोबारा सत्ता नहीं सौंपी। किंतु, परिस्थितियों का लाभ उठाकर कांग्रेस सत्ता में सहभागी हो रही है, तब यहाँ लोकतंत्र नहीं जीत रहा, बल्कि जनता हार रही है। नेताओं के स्वार्थपूर्ण गठबंधन के सामने लोकतंत्र घुटने टेक रहा है। किसी को भी बहुमत न मिलने पर सरकार का गठन किस प्रकार हो, इस संबंध में हमारे संविधान में कोई स्पष्ट व्यवस्था नहीं दी गई है। इसलिए ऐसी परिस्थितियों में अनैतिक प्रयास होते दिखाई देते हैं। सोचिए, यदि कांग्रेस ने तीसरे स्थान पर रहने वाली जेडीएस के नेता कुमारस्वामी को मुख्यमंत्री पद का लालच नहीं दिया होता, तब क्या यह गठबंधन संभव था? यह स्पष्ट है कि बहुमत के नजदीक पहुँचने वाली पार्टी भाजपा को रोकने के लिए ही दूसरे स्थान पर रहने वाली कांग्रेस ने जेडीएस का पिछलग्गू बनना स्वीकार किया है। 
           राजनीतिक विश्लेषक और कांग्रेस के नेता इस प्रकार के गठबंधन को 2019 के लिए एक प्रयोग मान कर संभावनाएं टटोल रहे हैं। किंतु, यहाँ उन्हें इससे संभावित खतरों के बारे में भी विचार कर लेना चाहिए। कांग्रेस के इस कदम से क्षेत्रीय पार्टियों में यह बात घर कर सकती है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा को रोकने के लिए कांग्रेस उनकी पिछलग्गू पार्टी बन सकती है। उत्तरप्रदेश के चुनाव पूर्व गठबंधन, उपचुनाव में गठबंधन और अब कर्नाटक में चुनाव बाद के गठबंधन से जो तस्वीर बनती दिख रही है, उसमें कांग्रेस और राहुल गांधी नेतृत्व की भूमिका में दिखाई नहीं दे रहे। कांग्रेस और उसके राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी के सामने अब क्षेत्रीय दलों के पीछे-पीछे चलने का खतरा उत्पन्न हो गया है। कांग्रेस अपनी इस स्थिति से कैसे उबरेगी, यह देखना होगा।

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