त्रिपुरा में कम्युनिस्टों के आदर्श और कम्युनिज्म के प्रतीक लेनिन के पुतले को ढहाने के बाद पहले तो एक बहस प्रारम्भ हुई और उसके बाद अब देश में अलग-अलग जगह मूर्तियां तोड़ने की घटनाएं प्रारम्भ हो गई हैं। तमिलनाडु में पेरियार, उत्तरप्रदेश में बाबा साहब आम्बेडकर, बंगाल में श्याम प्रसाद मुखर्जी और केरल में महात्मा गांधी की प्रतिमा को क्षति पहुंचाई गई है। यह घटनाएं निंदनीय हैं। देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उपराष्ट्रपति वैंकेया नायडू ने इन घटनाओं पर गहरा क्षोभ व्यक्त किया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मूर्तियों के तोड़-फोड़ और हिंसा के बरताव की निंदा करते हुए गृह मंत्री राजनाथ सिंह को मामले पर नजर रखने की हिदायत दी है। गृह मंत्री ने राज्य सरकारों को सामान्य स्थिति बहाल करने का निर्देश दिया है। हिंसा और उपद्रव को किसी भी तर्क से उचित नहीं ठहराया जा सकता है। कम्युनिस्टों ने अपनी सरकार के कार्यकाल में गैर-कम्युनिस्टों पर हमले किये, उनका शोषण किया, उनकी स्वतंत्रता छीन ली थी, अब सामान्य जन उस अत्याचार के विरुद्ध आक्रोश व्यक्त कर रहा है।
जहाँ-जहाँ कम्युनिस्ट सत्ता की विदाई संभव हुई है, वहाँ-वहाँ जनता ने इसी प्रकार कम्युनिस्ट शासन के अत्याचार के विरुद्ध आक्रोश व्यक्त किया है। विशेषकर हिंसक विचारधारा के प्रतीक लेनिन की प्रतिमाओं को ध्वस्त करने का काम जनता करती रही है। यहाँ तक कि रूस में भी लेनिन की निशानियों को मिटाने के प्रयास नागरिकों ने किए हैं। फिर भी यह तर्क भारत में बदले की भावना से की गई हिंसक गतिविधियों को जायज नहीं ठहरा सकता। उसका सबसे बड़ा कारण यह है कि कुशासन समाप्त करने के लिए ही जनता ने सत्ता में बदलाव का जनादेश दिया है। असहमति को दबाने के लिए जिस प्रकार कम्युनिस्टों ने बर्ताव किया, उसकी अपेक्षा भाजपा से नहीं है। माकपा के हिंसक शासन को समाप्त करने के लिए राष्ट्रीय विचारधारा के श्रेष्ठ कार्यकर्ताओं ने अपने जीवन का बलिदान दिया है।
जब माकपा को लगा कि वह इस बार चुनाव में राष्ट्रवाद से हारने वाली है तो जनता में भय का वातावरण बनाने के लिए त्रिपुरा में निर्वाचन की दिनांक घोषित होने के बाद से भाजपा के 11 कार्यकर्ताओं की हत्या की गई। दुःखद है कि इस देश में कुछ बुद्धिजीवियों के लिए लाखों लोगों के हत्यारे लेनिन की मूर्ति टूटने पर तो नींद खुल जाती है, किन्तु राष्ट्रवादी विचार से जुड़े कार्यकर्ताओं की चीखें उन्हें सुनाई नहीं देती। एक मूर्ति टूटने पर देश में जो बहस खड़ी की गई, वैसी बहस केरल-त्रिपुरा में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा सहित राष्ट्रवादी एवं गैर-कम्युनिस्ट संगठनों के कार्यकर्ताओं की हत्याओं पर क्यों नहीं प्रारंभ होती? क्या उनके लिए लोगों से अधिक महत्व मूर्तियों का है?
त्रिपुरा में जो हुआ, उसे उचित नहीं ठहराया जा सकता। किन्तु, इस पूरे प्रकरण से देश की जनता को यह तो समझ आ गया कि आखिर कम्युनिस्ट हिंसक और असहिष्णु क्यों होते हैं? यह भी उसे समझ आया है कि कम्युनिस्ट विचार अभारतीय या कहें भारतीयता का विरोधी क्यों है? एक विदेशी विचारक में जिनकी आस्था हो, उन्हें इस देश के विचार से असहमति होनी स्वाभाविक है। एक घोर हिंसक/हत्यारा जिनका प्रेरणा का स्रोत हो, उनका असहिष्णु और हिंसक होना स्वाभाविक ही है। इस पूरे प्रकरण में हमें यह भी देखना होगा कि लेनिन की मूर्ति टूटने पर हल्ला मचाने वाले कम्युनिस्ट लेखक, विचारक और राजनेता केरल में महात्मा गांधी की मूर्ति क्षतिग्रस्त किये जाने पर चुप बैठे हैं। केरल में उनकी ही सरकार है। संभवतः लेनिन की मूर्ति का बदला लेने के लिए उन्होंने पहले बंगाल में श्यामा प्रसाद मुखर्जी और अब केरल में महात्मा गांधी की प्रतिमा को नुकसान पहुंचाया है। जबकि त्रिपुरा में लेनिन की प्रतिमा तोड़ने की घटना का विरोध एवं निंदा भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने की। क्या यहां आवश्यक नहीं है कि तोड़-फोड़ की घटनाओं को हतोत्साहित करने के लिए माकपा के वरिष्ठ नेता त्रिपुरा की तरह उत्तरप्रदेश, बंगाल और केरल की घटनाओं की निंदा करे? इस देश की हुतात्माओं बाबा साहब, मुखर्जी और गांधी की प्रतिमा को नुकसान पहुंचाने से माकपा को अपने कार्यकर्ताओं को रोकना चाहिए।
बहरहाल, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तरह सभी राजनीतिक दलों तथा नागरिक संस्थाओं को व्यापक हितों को सामने रखते हुए स्थिति को सामान्य बनाने की दिशा में प्रयत्न करना होगा और यह सीख लेनी होगी कि चुनावों को लोगों की राजनीतिक पसंद के इजहार का मौका मानकर लड़ा जाये, न कि आमने-सामने की एक खूनी जंग। ध्यान रहे, एक स्वस्थ लोकतंत्र के बिना विकास और समृद्धि की आकांक्षाएं भी अधूरी रह जायेंगी।
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