समाचार माध्यमों में अपनी अस्मिता की लड़ाई लड़ रही हिंदी के लिए सुखद अवसर है कि मध्यप्रदेश के हिंदी के समाचार-पत्रों ने हिंदी के स्वाभिमान की सुध ली है। कथित सरल हिंदी और बोलचाल की भाषा के नाम पर हिंदी समाचार पत्रों में अंग्रेजी शब्दों की अवैध घुसपैठ को रोकने का पवित्र संकल्प प्रदेश के प्रमुख समाचार पत्रों स्वदेश, नईदुनिया, दैनिक नईदुनिया, नवभारत, हरिभूमि, पीपुल्स समाचार, राज एक्सप्रेस, दबंग दुनिया, राष्ट्रीय हिन्दी मेल, अग्निबाण, न्यूज एक्सप्रेस-जबलपुर एक्सप्रेस समूह एवं उनकी न्यूज एजेन्सी ईएमएस और समय जगत ने लिया है। हिंदी का स्वाभिमान बचाने के इस आंदोलन का सूत्रधार स्वदेश समाचार पत्र बना है। स्वदेश के पवित्र संकल्प और आग्रह को स्वीकार कर इस आंदोलन में एक के बाद एक सभी प्रमुख समाचार पत्र आ रहे हैं। यह चिंता केवल स्वदेश की नहीं है, बल्कि अपनी भाषा को बचाने का कर्तव्य सबका है। अब यह संकल्प प्रत्येक समाचार पत्र को स्वयं ही आगे ले जाना होगा। स्वदेश मात्र उत्प्रेरक की भूमिका में है। इस शुभ संकल्प का बीजारोपण 6 नवम्बर, 2016 को भोपाल के रवीन्द्र भवन में स्वदेश के स्वर्ण जयंती समारोह के अवसर पर हुआ। 'हिन्दी समाचार माध्यमों में भाषा की चुनौती' विषय राष्ट्रीय विमर्श में विद्वानों ने हिंदी को विद्रूप करने के षड्यंत्र और उसके खतरों की ओर जब स्पष्ट संकेत किया तब मध्यप्रदेश के उक्त समाचार पत्रों ने हिंदी की अस्मिता के लिए उठकर खड़ा होने का यह संकल्प लिया। हिंदी समाचार पत्रों का यह संकल्प ऐतिहासिक और अनुकरणीय है। बड़े पत्रकारिता संस्थान, जो लगभग कारोबारी समूहों में बदल चुके हैं, उन्हें भी राष्ट्रीय, सामाजिक और सांस्कृतिक महत्त्व के इस आंदोलन को स्वीकार करना चाहिए। यह हमारी पहचान से जुड़ा मुद्दा भी है।
यह सर्वविधित है कि हिंदी के समाचार माध्यमों में अंग्रेजी शब्दों का बढ़ता प्रयोग भारतीय मानस के लिए चिंता का विषय बन गया है। विशेषकर, हिंदी समाचार पत्रों में अंग्रेजी के शब्दों का चलन अधिक गंभीर समस्या है। हमें नहीं भूलना चाहिए कि हिंदी समाचार पत्रों की भाषा से नवयुवक अपनी भाषा सुधारते थे। समाचार पत्र सूचना और अध्ययन सामग्री देने के साथ-साथ समाज को भाषा का संस्कार भी देते थे। कोई शब्द शुद्ध है या अशुद्ध, जब यह प्रश्न खड़ा होता था, तब समाचार पत्रों के पन्नों में देखा जाता था कि वह कैसे लिखा गया है? आज स्थिति यह नहीं है। सामान्य व्यक्ति के अंतर्मन में यह बात गहरे बैठ गई है कि समाचार पत्र शुद्ध भाषा उपयोग नहीं कर रहे हैं। समाचार पत्रों में भाषा का घालमेल है। पाठकों की इस धारणा को 'विश्वसनीयता का संकट' मानकर समाचार माध्यमों को गंभीरता से चिंतन-मंथन करने की आवश्यकता है। हमें यह आत्ममुग्धता छोडऩी होगी कि हम पाठकों की सुविधा के लिए आम बोलचाल की भाषा का उपयोग करते हैं। अखबार को पठनीय बनाते हैं। सरल भाषा में खबर लिखते हैं ताकि सामान्य जन को समझ आ सके। भले ही हम न माने, लेकिन सच यह है कि सामान्य जन अपेक्षा कर रहा है कि हम सम्यक भाषा का उपयोग करें। हिंदी में खबर लिखें, 'हिंग्लिश' में नहीं। आज हम कोई भी हिंदी का समाचार पत्र उठाकर देखें, शीर्षक से लेकर खबर की अंतिम पंक्ति तक अंग्रेजी शब्दों की घुसपैठ पाते हैं। हालांकि इसे अंग्रेजी शब्दों की घुसपैठ कहना ठीक नहीं, यह शब्द अपने आप नहीं आए, हमने इन्हें माथे पर बिठाया है। दरअसल, हम औपनिवेशिक मानसिकता के शिकार हैं। हम यह मान बैठे हैं कि यह देश अंग्रेजी के शब्दों को आसानी से समझता है, अपनी मातृभाषा को ठीक से नहीं पहचानता है। कुछ समाचार पत्रों के मालिकों की यह दलील एक बार मान भी लें कि भारत की संतति अपनी हिंदी को ठीक से नहीं चीन्ह पा रही है। अब यहाँ सवाल है कि उसे हिंदी के विराट स्वरूप से परिचित कराने का दायित्व किसका है? आज अखबारों का जिस तरह का चरित्र हो गया है, उससे तो भारत का सामान्य आदमी अपनी भाषा भूलेगा ही? इसलिए मध्यप्रदेश के प्रमुख समाचार पत्र जब यह शुभ संकल्प ले रहे हैं कि वे अंग्रेजी के शब्दों को बाहर का रास्ता दिखाएंगे, तब सकारात्मक बदलाव की एक आहट सुनाई देती है। अंग्रेजी के महिमामंडन और अपनी अनदेखी से दु:खी होकर एक कोने में खुद को समेटकर बैठी हिंदी थोड़ा मुस्काई है। उसे भरोसा है कि उसके हिंदी पुत्र अब उसका मान बढ़ाएंगे। औपनिवेशिक मानसिकता की बाढ़ में बहकर आई अंग्रेजी शब्दों के अपशिष्ट को उसके आँचल से हटाएंगे। उम्मीद है कि प्रदेश के ये समाचार पत्र अपने संकल्प पर अडिग़ रहेंगे। उक्त सभी समाचार पत्रों ने यदि ईमानदारी से अपने संकल्प को निभाने का प्रयास किया, तब निश्चिय ही सकारात्मक बदलाव संभव है और उनका यह प्रयास पत्रकारिता के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखा जाएग। हिंदी जगत में भी आदरभाव के साथ इस संकल्प का सदैव स्मरण किया जाएगा। इस सबके बावजूद हिंदी समाचार पत्रों का यह प्राथमिक कर्तव्य है कि वह अपनी आत्मभाषा के संवाहक बनें।
'स्वदेश' की राष्ट्रहित की पत्रकारिता को 50 वर्ष पूर्ण होने पर उसके प्रधान संपादक राजेन्द्र शर्मा कहते हैं- 'स्वदेश ने राष्ट्रभाषा की रक्षा में एक पहल करने की कोशिश की है, जिसे सब ओर से उत्साहित समर्थन प्राप्त हो रहा है। बल्कि यह कहना अधिक उचित होगा कि उसके संकल्प को हिंदी पत्रकारिता ने अपना संकल्प बना लिया है। इस पहल की फलश्रुति यह है कि अब हिंदी की अस्मिता पर हो रहे वीभत्स आक्रमण का सामना करने की चुनौती हिन्दी के समाचार-पत्रों और अन्य माध्यमों ने स्वयं स्वीकार करने का निर्णय किया है। हिंदी और देश की चिंता बढ़ाने की वर्तमान स्थिति को बदलने के लिए भोपाल के प्रमुख समाचार पत्रों ने जो प्रतिबद्धता प्रकट की, वह आनंदित करने वाली है।' उन्होंने बताया कि अंग्रेजी के शब्दों का अविवेकपूर्ण और फूहड़ ढंग से होने वाला उपयोग, हिंदी के कथित बड़े समाचार पत्रों की ऐसी शर्मनाक दुर्गति कर रहा है कि उन्हें हिंदी का समाचार पत्र कहना या मानना भी अनुचित प्रतीत होता है। कुछ समाचार पत्र तो इस काम को पूरी तरह सोच विचार कर, एक स्पष्ट उद्देश्य के साथ अंजाम दे रहे हैं, किन्तु अधिकांश केवल देखा-देखी में ही, बिना विचारे ही इसके शिकार हो रहे हैं।
बहरहाल, यहाँ यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि हिंदी के समाचार पत्रों के सम्मुख न केवल हिंदी के स्वाभिमान का प्रश्न है, बल्कि समूचे देश की सांस्कृतिक पहचान का भी प्रश्न खड़ा है। मध्यप्रदेश के हिंदी समाचार पत्रों ने अपनी भाषा को बचाने और उसे समृद्ध करने का जो संकल्प लिया है, उसके साथ अन्य अस्मिताओं के प्रश्न भी जुड़े हुए हैं। इसलिए इस संकल्प को सभी संस्थानों को अपने समाचार पत्रों के पन्नों पर उतारना होगा। कहते हैं कि शुभ संकल्पों को पूरा करने में प्रकृति भी सहायक सिद्ध होती है। इसलिए भरोसा किया जा सकता है कि हिंदी के स्वाभिमान के इस यज्ञ में सभी समाचार पत्रों की पवित्र आहुतियाँ भाषाई और सांस्कृतिक वातावरण को स्वच्छ करेंगी।
(6 नवम्बर, 2016)
बहुत ही उम्दा हिन्दी पर लेख प्रस्तुत किया. मैं आपसे सहमत हूं
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