गौरक्षा के नाम पर पिछले समय में हुई कुछ हिंसक घटनाओं पर देश का तथाकथित प्रबुद्ध वर्ग एवं मीडिया काफी मुखर रहा है। रहना भी चाहिए। संविधान एवं कानून के दायरे से बाहर जाकर गौरक्षा हो भी नहीं सकती। देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी स्वयं भी गौरक्षा के नाम पर होने वाली हिंसा का विरोध कर चुके हैं। इसके बाद भी कथित बुद्धिजीवी एवं पत्रकारों ने हिंसा की घटनाओं को आधार बना कर गौरक्षा जैसे पुनीत कार्य और सभी गौरक्षकों को लांछित करने का प्रयास किया है। इसके लिए वह असहिष्णुता, मॉबलिंचिंग और नॉटइनमायनेम जैसी मुहिम चला चुके हैं। परंतु, उनकी प्रत्येक मुहिम संदेहास्पद रही है। उनके प्रत्येक आंदोलन का उद्देश्य और एजेंडा भेदभावपूर्ण रहा है, इसलिए उन्हें सफलता नहीं मिली।
भीड़ की हिंसा को वह दो चश्मों से देखते हैं। एक चश्मा उन्हें घटनाओं को वास्तविकता से अधिक दिखाता है। दूसरा चश्मा उनकी आँखों पर पूरी तरह पर्दा डाल देता है। वह दोनों चश्मों का उपयोग अपनी राजनीतिक एवं वैचारिक सुविधा के हिसाब से करते रहते हैं। कथित गौरक्षकों द्वारा मारपीट या हत्या की घटनाओं को तो वह राष्ट्रीय मुद्दा बना देते हैं। परंतु, गौ-हत्यारों और तस्करों द्वारा गौरक्षकों पर होने वाले हमलों की न तो रिपोर्टिंग होती है और न ही उनके विरोध में कोई आवाज उठाई जाती है। जिस समय में कथित गौरक्षकों द्वारा की जा रही हिंसक घटनाएं बढ़ा-चढ़ा कर हमारे सामने प्रस्तुत की जा रही हैं, उसी समय में गौ-हत्यारों एवं तस्करों द्वारा भी गौरक्षकों की मारपीट एवं हत्या की जा रही हैं, परंतु यह घटनाएं हमारे सामने नहीं आ पाती हैं।
सोशल मीडिया एवं राष्ट्रवादी लोगों की सक्रियता से बैंगलूरू की घटना सामने आई है, परंतु उस पर कथित प्रबुद्ध वर्ग चुप्पी साधकर बैठ गया है। मानो इस घटना से सामाजिक सौहार्द बढ़ता हो। बैंगलूरू में एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर नंदिनी और उनकी दोस्त रिजिल को 20-25 लोगों की भीड़ ने इसलिए मारा, क्योंकि उसने उनके अवैध कसाईखाने और उसमें चल रही गौहत्या की शिकायत की थी। नंदिनी के मुताबिक वह भीड़ से बमुश्किल बचकर भागीं। यह भीड़ पाकिस्तान के समर्थन में नारेबाजी भी कर रही थी। अवैध कसाईखाना, गौहत्या और पाकिस्तान के समर्थन में नारेबाजी, यह गठजोड़ आतंरिक सुरक्षा के लिए चेतावनी देता है।
यह पहली घटना नहीं है, जब गौ-हत्यारों एवं गौ-तस्करों के काम में बाधा डालने पर उन्होंने हिंसा की है। यह पहले से चल रहा है। यहाँ तक कि हत्यारों के चंगुल से गायों को मुक्त कराने जब पुलिस पहुँची है, तब उनकी भीड़ ने पुलिस वालों को भी नहीं छोड़ा है। यह नंदिनी का साहस है कि उसने न केवल भीड़ की हिंसा का सामना किया, बल्कि अपनी आपबीती को देश के सामने लेकर आईं। उन्होंने बताया कि कैसे गौ-हत्यारे महिलाओं को भी अपनी हिंसक मानसिकता का शिकार बनाने नहीं चूके।
मॉबलिंचिंग पर हाय-तौबा मचाने वाला गिरोह तो खामोश है ही, नारीवादी संगठन भी दो महिलाओं पर हुए हमले में कुछ नहीं बोल रहे हैं। भीड़ की हिंसा पर यह चयनित दृष्टिकोण समाज के हित में नहीं है। इस प्रकार के बुद्धिजीवी वर्ग को समझना होगा कि यदि भीड़ की हिंसा का समान रूप से विरोध करने का सामथ्र्य उनके भीतर नहीं है, तब उन्हें अन्य घटनाओं पर भी चुप ही रहना चाहिए। यदि भीतर जरा भी मानवता जिंदा है तब हिंसा पर समान रूप से मुखर होना चाहिए।
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन गोवर्धन पूजा की हार्दिक शुभकामनाएँ - ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति।
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