भारत में 'जय श्री राम' कहने पर फतवे जारी होने लगें, तब यह विचार जरूर करना चाहिए कि क्या देश में सब कुछ ठीक चल रहा है? सभी मत-पंथ के प्रवर्तक यह दावा करते हैं कि उनका पंथ सर्व-धर्म सद्भाव की सीख देता है। प्रत्येक संप्रदाय के रहनुमा कहते हैं कि उनके पंथ की प्राथमिक शिक्षाओं में शामिल है कि औरों के धर्म का सम्मान करना चाहिए। अगर इस्लाम के संबंध में भी यह सच है, तब प्रश्न उठता है कि 'जय श्री राम' बोलने वाले बिहार सरकार के मंत्री खुर्शीद आलम के खिलाफ फतवा जारी होना चाहिए था या फिर खुर्शीद आलम के खिलाफ फतवा जारी करने वाले मुफ्ती सोहेल कासमी का बहिष्कार होना चाहिए था? मुफ्ती फतवा जारी करने तक ही नहीं रुका है, बल्कि उसने कहा है कि राम और रहीम एक साथ नहीं रह सकते। यह कैसी अलगाववादी सोच को प्रस्तुत कर रहे हैं? क्या कुरान में यह लिखा है कि दो विभिन्न विचार एक-दूसरे के साथ एक-दूसरे का सम्मान करते हुए नहीं रह सकते?
यह प्रश्न बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। इन प्रश्नों का उत्तर भले मुस्लिम समाज अभी न दे, लेकिन उसे गंभीरता से विचार जरूर करना चाहिए। आखिर मुस्लिम समाज की उदार और सच्ची आवाजें कहाँ खामोश हैं? उसे यह भी विचार करना चाहिए कि सोहेल कासमी जैसे लोग इस्लाम को बचा रहे हैं या उसका नुकसान कर रहे हैं? अगर अब भी मुफ्ती सोहेल कासमी जैसे लोगों की दादागिरी चलती रही, तब प्रगतिशील मुसलमान बहुत पीछे रह जाएगा। इस तरह के लोग समाज में कट्टरता बढ़ाते हैं। सोहेल जैसे धर्म के ठेकेदार मुस्लिम समाज के उन भले लोगों को भी दबाने का काम करते हैं, जो रूढिय़ों को तोड़कर आगे आ रहे हैं। आखिर खुर्शीद आलम के 'जय श्री राम' कहने से इस्लाम पर कौन-सा संकट उत्पन्न हो गया? क्या दूसरे धर्म के आराध्यों के प्रति सम्मान का भाव प्रकट करने की इस्लाम में मनाही है?
निश्चित तौर पर ऐसा नहीं है। देश में अनेक मुस्लिम हैं, जो अपने हिंदू मित्रों के साथ मंदिर भी जाते हैं। भारत की भूमि पर अनेक ऐसे मुस्लिम पैदा हुए हैं, जिन्होंने राम के भजन गाए हैं। अनेक कलाकार ऐसे हुए हैं, जिन्होंने रामलीला से लेकर फिल्मों में राम और हनुमान के किरदार निभाए हैं। उन्होंने ऐसा करके इस्लाम को कोई चोट नहीं पहुँचाई, अपितु इस्लाम का मान ही बढ़ाया है। धार्मिक सद्भावना के झण्डे को ऊँचा किया है। भाई-चारे को पुष्ट किया है। लेकिन, मुफ्ती जैसी संकीर्ण मानसिकता के लोगों ने ठीक इसके उलट सदैव हिंदू-मुस्लिम एकता को चोट पहुँचाई है। अपने अजीब, अतार्किक और निंदा योग्य फतवों से इस्लाम का अपमान किया है। धार्मिक सद्भाव को धूल में मिलाया है। सच्चे मुसलमानों को इन मुफ्तियों और मौलानाओं के चंगुल से निकलना होगा। वरना, उनका भाई-चारा और धार्मिक सौहार्द सदैव संदेहास्पद रहेगा।
मुसलमानों को कठघरे में खड़ा करने की एक और घटना हुई है। मुफ्ती जैसे ही अन्य लोगों ने पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम के स्मारक पर आपत्ति जताई है। नि:संदेह उन लोगों ने एक ऐसे व्यक्तित्व पर विवाद खड़ा करने की कोशिश की है, जो असल मायनों में भारत माता का सच्चा बेटा था। कलाम साहब के जीवत रहते, उनके खिलाफ फतवा जारी करने का सामथ्र्य नहीं रखने वाले लोग अब कह रहे हैं कि मूर्ति में उनको वीणा बजाते हुए क्यों दिखाया गया है? उनके पास भगवत्गीता क्यों रखी गई है? इन शरारती लोगों को कलाम साहब के जीवन को जरूर पढऩा चाहिए, तब उन्हें समझ आएगा कि उनको वीणा बजाते हुए क्यों दिखाया है और गीता को कलाम साहब की नजर में क्या महत्त्व था।
बहरहाल, अब समय आ गया है कि जब इस्लाम के सच्चे रहनुमाओं को अपनी ताकत दिखानी चाहिए। यदि और अधिक समय तक इस तरह की हरकतों को नजरअंदाज किया जाता रहा, तब इस्लाम की छवि और अधिक बिगड़ जाएगी। इससे भी अधिक घातक बात यह होगी कि संकीर्ण और कट्टरपंथी सोच को बल मिलेगा और वह हमेशा के लिए उदार सोच पर हावी हो जाएगी। इस देश में 'जय श्री राम' कहने से इस्लाम खतरे में नहीं आएगा, लेकिन एक मुस्लिम को ऐसा कहने पर माफी माँगने के लिए मजबूर करने पर जरूर इस्लाम खतरे में आ जाएगा।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (05-08-2017) को "लड़ाई अभिमान की" (चर्चा अंक 2687) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'