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निवर्तमान उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी जाते-जाते ऐसी बातें कह गए, जो संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति को नहीं कहनी चाहिए थी और यदि कहना जरूरी ही था तो कम से कम उस ढंग से नहीं कहना था, जिस अंदाज में उन्होंने कहा। असहिष्णुता के मुद्दे पर किस प्रकार 'बड़ी और गंभीर' बात कहना, इसके लिए उन्हें पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के भाषणों को सुनना/पढऩा चाहिए था। असहिष्णुता के मुद्दे पर पूर्व राष्ट्रपति मुखर्जी ने भी अनेक अवसर पर अपनी बात रखी, लेकिन उनकी बात में अलगाव का भाव कभी नहीं दिखा। जबकि हामिद साहब के अतार्किक बयान के बाद उपजा विवाद बता रहा है कि उनके कथन से देश को बुरा लगा है। यकीनन जब कोई झूठा आरोप लगाता है तब बुरा तो लगता ही है, गुस्सा भी आता है। राज्यसभा टीवी को दिए साक्षात्कार को देख-सुन कर सामान्य व्यक्ति को भी यह समझने में मुश्किल हो रही है कि आखिर किस दृष्टिकोण से भारत में मुस्लिम असुरक्षित हैं। जब भी किसी ने मुस्लिमों के विरुद्ध आपत्तिजनक टिप्पणी की है, तब उसके विरोध में सबसे अधिक आवाज देश के बहुसंख्यक समाज की ओर से उठी हैं। मुसलमान भी किसी इस्लामिक देश की अपेक्षा भारत में अधिक सुरक्षित महसूस करते हैं। वे पाकिस्तान जाने की अपेक्षा भारत में ही रहना पसंद करते हैं। भारत में जितनी आजादी मुसलमानों को है, क्या उतनी कहीं और है? मान सकते हैं कि लोकतंत्र की सफलता इस बात से तय होती होगी कि वहाँ अल्पसंख्यक कितने सुरक्षित हैं? हामिद साहब भारत में अल्पसंख्यक सुरक्षित ही नहीं है, बल्कि सफलताएं भी अर्जित कर रहे हैं। भारत के प्रत्येक क्षेत्र में मुस्लिम शीर्ष तक पहुँचे हैं। लोकप्रियता अर्जित की है। राजनीति के क्षेत्र में भी अपना नेतृत्व दिया है। हामिद अंसारी साहब का परिवार और वे स्वयं भी भारतीय राजनीति में महत्त्वपूर्ण पदों पर रहे हैं। दूसरे अल्पसंख्यक समुदाय भी पूरे आनंद के साथ भारत-भूमि पर जीवन जी रहे हैं। उपराष्ट्रपति जैसे पद को सुशोभित करने वाले और उच्च शिक्षित व्यक्ति को ऐसी बातें नहीं करनी चाहिए, जिससे देश के विभिन्न समुदायों में नकारात्मक भाव उत्पन्न हों। उन्हें मुस्लिम समाज को प्रेरित और सकारात्मकता की ओर अग्रेषित करने का प्रयास करना चाहिए था। जाते-जाते बड़प्पन दिखाना चाहिए था। बतौर उपराष्ट्रपति अपने अंतिम वक्तव्य में सकारात्मक बात कहनी चाहिए थी।
ऐसा नहीं है कि निवर्तमान उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी ने पहली बार संवैधानिक पद से अमर्यादित और संकीर्ण विचार प्रस्तुत किया है। वह पहले भी इस प्रकार की बातें करते रहे हैं। हामिद साहब ने इससे पूर्व भी असहिष्णुता के मुद्दे पर देश के संवैधानिक पदाधिकारी की तरह नहीं, बल्कि एक समुदाय के नेता की तरह बात रखी है। सितंबर 2015 में आयोजित मजलिस-ए-मुशावरत के स्वर्ण जयंती समारोह में उन्होंने मुसलमानों को लेकर केन्द्र सरकार को नसीहत दी थी। उन्होंने कहा है कि सबका साथ-सबका विकास अच्छा, लेकिन सरकार को मुसलमानों के साथ हो रहे भेदभाव को दूर करना चाहिए। मुसलमानों का भरोसा जीतने के लिए सरकार उन गलतियों को जल्द सुधारे, जो सरकार या उसके एजेंटों ने की हैं। जब वह यह बात कह रहे थे, तब वर्तमान सरकार एक साल ही पूरा कर पाई थी। एक साल की सरकार का इस प्रकार का मूल्यांकन करना कहाँ तक उचित था? 'सरकार के एजेंट' जैसे विश्लेषणों का उपयोग विपक्षी दल के नेता करते हैं, संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति नहीं। दरअसल, भाजपा और नरेन्द्र मोदी को लेकर जिस प्रकार का वातावरण कुछ समूहों ने बनाया था, उसी आधार पर हामिद अंसारी की उक्त टिप्पणी थी। संवैधानिक पद पर बैठे किसी भी व्यक्ति से इस प्रकार के पूर्वाग्रह अपेक्षित नहीं रहते। किन्तु, निवर्तमान उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी के पूर्वाग्रह अब तक कायम हैं। एक बार फिर उनकी बातों से प्रकट हुआ कि वह 'मुस्लिम नेता' की छवि से बाहर नहीं निकल पाए हैं।
अपनी विदाई से एक दिन पूर्व दिए गए साक्षात्कार में उन्होंने 'स्वीकार्यता के माहौल' को खतरा बताया है और कहा है कि देश के मुसलमानों में बेचैनी का अहसास एवं असुरक्षा की भावना है। साक्षात्कार में अंसारी ने भीड़ की ओर से लोगों को पीट-पीटकर मार डालने की घटनाओं, घर वापसी और तर्कवादियों की हत्याओं का हवाला देते हुए कहा कि यह भारतीय मूल्यों का बेहद कमजोर हो जाना, सामान्य तौर पर कानून लागू करा पाने में विभिन्न स्तरों पर अधिकारियों की योग्यता का चरमरा जाना है और इससे भी ज्यादा परेशान करने वाली बात किसी नागरिक की भारतीयता पर सवाल उठाया जाना है। उनके कहने से ही स्पष्ट हो रहा है कि उनकी राय तथाकथित 'अहिष्णुता' की मुहिम से ही बनी है। उनके पूरे बयान का लब्बो-लुआब कमोबेश वही है, जैसा कि असहिष्णुता, नॉटइनमायनेम और मॉब लिंचिंग की बनावटी मुहिम चलाने वाली जमातें कहती आई हैं। निश्चित ही देश में भीड़ द्वारा की जा रही हत्याएं निंदनीय हैं। लेकिन, इसका एक पहलू यह भी है कि यह हिंसक भीड़ दोनों तरफ से है। ऐसा आज हो रहा है, ऐसा भी नहीं हैं। हामिद अंसारी हों या फिर उसी सोच के दूसरे लोग, इस पहलू पर चर्चा करने से बचते हैं। ऐसा नहीं है कि सिर्फ मुस्लिमों की हत्या हो रही है या तथाकथित तर्कवादियों को मारा जा रहा है। जिस समय की वह बात कर रहे हैं, उसी समय में मुस्लिमों की भीड़ ने हिंदुओं की हत्याएं की हैं। केरल में राष्ट्रीय विचारधारा से जुड़े लोगों की नृशंस हत्याएं की जा रही हैं। दिक्कत यहीं है कि इन हत्याओं पर कोई चिंता व्यक्त नहीं कर रहा। हामिद अंसारी ने अपने पूरे साक्षात्कार में केरल में हो रही हिंसा पर चिंता नहीं जताई। उन्हें सिर्फ मुस्लिम समाज की पीड़ा दिखाई दी, उन्हें सिर्फ गो-रक्षा की आड़ में हो रही हिंसा से बेचैनी है, लेकिन पंथ और विचारधारा की भिन्नता के आधार की कुचली जा रही 'असहमतियों' की फिक्र उन्हें नहीं है। हामिद भूल गए रहे हैं कि पैगम्बर के संबंध में अमर्यादित टिप्पणी करने वाला एक हिंदू दो साल से अधिक समय से जेल में कैद है, जबकि हिंदू धर्म की आस्थाओं पर चोट करने वाले किसी मुस्लिम के साथ इस तरह का बर्ताव पिछले तीन वर्षों में सामने नहीं आया है। भारत के संदर्भ में आम राय बनाने से पूर्व हामिद साहब को पश्चिम बंगाल की स्थिति की तस्दीक भी कर लेनी चाहिए थी। उन्हें इल्म हो जाता कि वहाँ असुरक्षित मुसलमान है या फिर हिंदू? हैदराबाद के मुस्लिम नेता भाई जिस प्रकार से बहुसंख्यक समाज के विरुद्ध विष-वमन करते हैं, क्या असुरक्षा के वातावरण में यह संभव है? मुस्लिम समुदाय के लोग खुलकर 'जय श्री राम' कहने वाले एक मुसलमान के खिलाफ फतवा जारी करके उससे सार्वजनिक माफी मँगवा सकते हैं, यहाँ कौन-सा मुसलमान बेचैन दिखाई देता है? राष्ट्रगीत 'वंदेमातरम्' का अनादर करने की भी छूट भारत में मुसलमानों को प्राप्त है। भारत के अलावा वह कौन-सा उदारवादी देश है, जहाँ राष्ट्रीय प्रतीकों का सम्मान नहीं करने की छूट अल्पसंख्यक समुदाय को प्राप्त है? स्वयं हामिद अंसारी भी संवैधानिक पद पर रहते हुए 'राष्ट्रीय ध्वज' को सम्मान नहीं देने के मामले में आरोपित हैं।
बहरहाल, हामिद अंसारी अपने साक्षात्कार और राज्यसभा में अंतिम दिन उपराष्ट्रपति की तरह विचार करते नहीं दिखे, बल्कि वोटबैंक की फिक्र करते एक मुस्लिम नेता की तरह ही दिखाई दिए। उनकी विदाई के अवसर पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की टिप्पणी सटीक बैठती है। प्रधानमंत्री ने कहा, 'बतौर राजनयिक आपने पश्चिम एशियाई देशों में एक लंबा समय बिताया और उसी दायरे में जिन्दगी के बहुत वर्ष आपके गए। उसी माहौल में, उसी सोच में, उसी डिबेट में, ऐसे लोगों के बीच में रहे। वहां से सेवानिवृत्त होने के बाद ज़्यादातर काम वहीं रहा आपका, अल्पसंख्यक आयोग हो या अलीगढ़ विश्वविद्यालय हो, दायरा आपका वही रहा।' यहाँ प्रधानमंत्री ने वाक-चातुर्य से हामिद अंसारी के 'दायरे' और सोच के 'विस्तार' को रेखांकित कर दिया। प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में आगे कहा, 'पिछले दस वर्षों में यह संविधान संबंधित काम आपके जि़म्मे आया और आपने उसे बखूबी निभाया। हो सकता है शायद कोई छटपटाहट रही होगी आपके अंदर भी, लेकिन आज के बाद शायद वो संकट आपको नहीं रहेगा। मुक्ति का आनंद भी रहेगा और अपनी मूलभूत प्रवृत्ति के अनुसार कार्य करने का, सोचने का और बात बताने का अवसर भी मिलेगा।' अब यह और अधिक स्पष्ट हो जाता है कि निवर्तमान उपराष्ट्रपति अंसारी ने अपनी मूलभूत प्रवृत्ति और सोच के अनुसार ही टिप्पणी की है। उनकी छटपटाहट मुक्त होकर अभिव्यक्त हुई है। बहरहाल, उपराष्ट्रपति से अपेक्षा होती है कि वह देश के वातावरण और परिस्थितियों पर समग्रता से चिंतन करें। पूर्व उपराष्ट्रपति की बात तब अधिक मुकम्मल होती, जब सभी प्रकार की हिंसा पर उन्होंने चिंता प्रकट की होती। हमें हिंसा का पूर्ण विरोध करना चाहिए। जब हम चयनित दृष्टिकोण के आधार पर हिंसा का विरोध करेंगे, तब हमारी नीयत को संदेह की दृष्टि से देखा जाएगा। यही कारण है कि भारतीय जनता पार्टी और उसके समर्थक ही नहीं, अपितु सभी वर्गों के लोग पूर्व उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी की आलोचना कर रहे हैं। उनके बयान को संवैधानिक पदाधिकारी का दृष्टिकोण नहीं, बल्कि क्षुद्र राजनीति से प्रेरित औसत राजनेता का बयान माना जा रहा है।
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