मध्यप्रदेश में दो जून से किसान आंदोलन प्रारंभ हुआ था। किसी ने नहीं सोचा था कि शांतिपूर्ण ढंग से प्रारंभ हुआ यह आंदोलन इतना उग्र हो जाएगा कि छह किसानों का जीवन छीन लेगा। कर्जमाफी और अपनी फसल के वाजिब दाम की माँग को लेकर मध्यप्रदेश के मंदसौर, रतलाम और उज्जैन में किसान प्रदर्शन कर रहे थे। प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने किसान संगठनों की माँगें मान भी ली थीं। मुख्यमंत्री ने तत्काल घोषणा कर दी थी कि सरकार किसानों से इस साल 8 रुपये किलो प्याज और गर्मी में समर्थन मूल्य पर मूंग खरीदेगी। खरीदी 30 जून तक चलेगी। कृषि उपज समर्थन मूल्य पर खरीदने के लिए 1000 करोड़ रुपये का एक फंड भी बनाने की घोषणा मुख्यमंत्री ने की है। सरकार द्वारा किसानों की प्रमुख माँग मान लेने के बाद एक-दो संगठन ने आंदोलन वापस लेने की घोषणा भी कर दी थी। प्रमुख संगठनों द्वारा आंदोलन वापस लेने की घोषणा के बाद मध्यप्रदेश सरकार और उसका प्रशासन लापरवाह हो गया। उसने आंदोलन से पूरी तरह ध्यान हटा लिया। जबकि, एक-दो संगठन आंदोलन पर अड़े हुए थे। किसानों की मौत साफतौर पर प्रशासन की लापरवाही का मामला है।
खुद को किसान हितैषी कहने वाले मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को अपने प्रशासन पर सख्ती बरतनी चाहिए। गोलीकांड के लिए जो भी जिम्मेदार हैं, उनके खिलाफ सख्त कार्रवाई कर किसानों को न्याय दिलाना सरकार की जिम्मेदारी है। अब तक का सबसे बड़ा मुआवजा देकर मुख्यमंत्री ने मृतक किसान परिवारों के जख्म पर मरहम लगाने का प्रयास किया, लेकिन यह नाकाफी है। सरकार को किसानों की समस्याएं सुलझाने के लिए आगे आना चाहिए। हालाँकि, यह समझना मुश्किल हो रहा है कि आखिर माँग स्वीकार करने के बाद भी कुछ संगठन आंदोलन पर क्यों अड़े रहे? आंदोलन समाप्त होने की बजाय अचानक उग्र और हिंसक कैसे हो गया? चार दिन से शांतिपूर्ण ढंग से प्रदर्शन कर रहे आंदोलनकारियों ने मंगलवार को मंदसौर में २८ वाहन को आग के हवाले कर दिया। पुलिस और सीआरपीएफ पर पथराव भी किया। बताया गया है कि इन हालात पर काबू पाने के लिए सीआरपीएफ और पुलिस को गोली चलानी पड़ी। इस गोलीबारी में छह लोगों की मौत हो गई। हालाँकि पुलिस का कहना है कि उसने गोली चलाने के आदेश नहीं दिए थे। अब यह तो जाँच के बाद ही सामने आएगा कि गोली कैसे चली? फिलहाल तो प्रदेश ने छह अन्नदाता खो दिए हैं। किसानों की मौत दु:खद है।
गोलीकांड के बाद कांग्रेस और अन्य विपक्षी दल मध्यप्रदेश में सरकार को घेरने के लिए सक्रिय हो गए हैं। प्रदेश के नेताओं से लेकर राष्ट्रीय नेता तक शिवराज सरकार पर किसानों की अनदेखी का आरोप लगा रहे हैं। राहुल गाँधी तो यहाँ तक कह गए कि सरकार देश के किसानों के साथ जंग लड़ रही है। उधर, भारतीय जनता पार्टी के नेता आंदोलन में हिंसा के लिए कांग्रेस को दोषी ठहरा रहे हैं। उनका कहना है कि शांतिपूर्ण ढंग से चल रहे आंदोलन को आखिर किसने भड़काया, जबकि सरकार ने किसानों की माँगें मान ली थी। वास्तव में यह सवाल बड़ा है। यह नहीं भूलना चाहिए कि मध्यप्रदेश में अगले वर्ष चुनाव होने हैं। प्रदेश में मृतप्राय विपक्ष किसान आंदोलन से ऑक्सीजन पाना चाहता था।
बहरहाल, इस गोलीकांड और किसानों की मौत से कांग्रेस के शासनकाल में १९९८ के मुलताई गोलीकांड की यादें भी ताजा हो गईं। उस समय प्रदेश में दिग्विजय सिंह मुख्यमंत्री थे, उन्होंने किसानों के आन्दोलन की पूरी तरह अनदेखी की थी। बैतूल के जिले के मुलताई में अतिवृष्टि और गेरुआ रोग से खराब हुई फसल का मुआवजा माँगने के लिए किसान आंदोलन किया गया था, जिसमें पुलिस द्वारा गोली चलाने के कारण २४ किसानों की मौत हो गई थी। किसानों की मौत के लिए आंदोलन का नेतृत्व करने वाले डॉ. सुनीलम को प्रमुख दोषी माना गया था। न्यायालय ने माना था कि डॉ. सुनीलम ने गोली चलाने के लिए पुलिस को उकसाया था। मंदसौर में हुए गोलीकांड में भी उकसाने की बात सामने आ रही है, क्योंकि चार दिन से चल रहा आंदोलन शांतिपूर्ण था। आंदोलन के अचानक उग्र होने के कारण अब तक समझ नहीं आ रहे हैं। बहरहाल, प्रदेश सरकार और उसके मुखिया शिवराज सिंह चौहान को थोड़ा और सजग होने की जरूरत है। सरकार की खुफिया एजेंसी आखिर क्या कर रही थीं? उन्हें आंदोलन के हिंसक होने की खबर क्यों नहीं लगी? किसान आंदोलन में शामिल असामाजिक तत्वों की पहचान खुफिया एजेंसियां क्यों नहीं कर सकीं? यदि समय रहते हिंसा के संकेत मिल जाते, तो किसानों की जान बचाई जा सकती थी। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को इस मसले को बहुत संवेदनशीलता से संभालने की जरूरत है।
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