केंद्र सरकार के महत्वाकांक्षी अभियान 'खुले में शौच मुक्त भारत' पर अंग्रेजी अखबार 'द हिंदू' में लेख लिखकर विवादों में आईं आईएएस अधिकारी दीपाली रस्तोगी को मध्यप्रदेश सरकार ने क्लीनचिट दे दी है। एक तरफ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भारत को खुले में शौच से मुक्त करने के लिए देशभर में प्रभावी ढंग से अभियान चला रहे हैं, वहीं मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में तैनात आदिवासी कल्याण विभाग की आयुक्त दीपाली रस्तोगी ने कुछ दिन पहले इस अभियान को लेकर कुछ सवाल उठाए थे। दीपाली रस्तोगी के अपने लेख में अभियान को लेकर सरकार के अतिउत्साह की आलोचना जरूर की थी, लेकिन यह सीधे तौर पर न तो केंद्र सरकार की आलोचना थी और न ही उन्होंने प्रदेश सरकार पर सवाल उठाए थे। अपने लेख में उन्होंने अभियान के क्रियान्वयन में आ रही दिक्कतों और पानी की कमी को लेकर शौचालय के औचित्य पर सवाल उठाए थे। उन्होंने अपने लेख में व्यावहारिक परेशानियों का जिक्र किया था। अपने लेख में एक जगह जरूर रस्तोगी थोड़ी अधिक नकारात्मक हो गईं थीं, जब उन्होंने अभियान की मंशा को अंग्रेजों की मानसिक गुलामी से जोड़ दिया था। जैसा कि होता है इस लेख को सरकार की आलोचना बताया गया। जमकर बहसबाजी शुरू हुई। सरकारी अधिकारी द्वारा सरकारी अभियान के खिलाफ इस प्रकार आलोचनात्मक लेख लिखना 'सेवा नियमों के विरुद्ध' बताया जाने लगा। बीच बहस में सामान्य प्रशासन विभाग ने रस्तोगी को नोटिस जारी कर जवाब माँग लिया था। जवाब में रस्तोगी ने कहा था कि उनकी भावना अभियान की आलोचना करने की कतई नहीं थी। उन्होंने तो सिर्फ उस व्यावहारिक परेशानी का जिक्र किया था, जो ग्रामीण क्षेत्र में जलसंकट की वजह से सामने आती है। यदि हम जमीन पर उतरकर देखें तब रस्तोगी के सवाल वाजिब दिखाई देते हैं। निसंदेह शौच मुक्त भारत आवश्यक है, लेकिन उससे पहले भारतीय समाज के सामने और भी बुनियादी जरूरतें हैं। बहरहाल, मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान तक यह मामला पहुँचा। अंतत: सरकार ने अभिव्यक्ति की आजादी को सम्मान देते हुए एक सराहनीय निर्णय लिया। सरकार की ओर से सामान्य प्रशासन विभाग के राज्यमंत्री लालसिंह आर्य ने कहा कि दीपाली रस्तोगी ने लेख में कुछ गलत नहीं लिखा है। हर एक को स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति का अधिकार होना चाहिए। उनकी मंशा सरकार की खिलाफत करने की नहीं थी। यह निर्णय लेकर सरकार ने विचार प्रक्रिया और उसकी अभिव्यक्ति को अवरुद्ध होने से बचा लिया।
सरकार और सत्ता में शामिल राजनीतिक दलों को यह समझने की आवश्यकता है कि प्रत्येक असहमति 'सरकार का विरोध' नहीं होती है। यदि सरकारें सार्थक आलोचनाओं को भी अपने विरुद्ध मानकर उनका गला घोंटने लगेंगी, तब सुशासन कहीं दूर छिटक जाएगा। असहमतियों सरकारी डंडा चलाने की प्रवृत्ति यदि बढ़ जाएगी तब सरकार और लोक कल्याण के हित की बातों को कहने से भी लोग बचेंगे। और यह सत्य है कि 'हाँ जी- हाँ जी' से लोक कल्याणकारी शासन नहीं चलता है। सरकार के महत्त्वाकांक्षी अभियानों और योजनाओं को जमीनी स्तर तक ले जाने की जिम्मेदारी जिनके हाथों में होती है, उन्हें जमीनी कठिनाइयाँ भी मालूम होती हैं। यदि सरकार उन कठिनाइयों को जानने की कोशिश नहीं करेंगे, तब वह वांछित परिणाम भी प्राप्त नहीं कर सकती है। स्वस्थ आलोचनाओं का स्वागत किया जाना चाहिए। हालाँकि यह भी सही है कि बहुतायात में सार्वजनिक मंचों पर सरकारी योजनाओं की आलोचना सरकार की सेहत के लिए ठीक नहीं है। इसलिए सरकार को आंतरिक स्तर पर असहमतियों और आलोचनाओं के प्रकटीकरण के लिए कोई मंच बनाना चाहिए। ताकि किसी अधिकारी-कर्मचारी को अपनी राय, अनुभव और सुझाव सरकार के सामने रखने हो, तो वह रख सके। सरकार में शामिल राजनीतिक दल को भी इसी नीति का पालन करना चाहिए। क्योंकि उसी पार्टी की सत्ता लम्बे समय तक टिक सकती है, जिसने असहमतियों और आलोचनाओं को सुनने के लिए उचित मंच बनाया हो। प्रत्येक दल के भीतर अपने सामान्य से सामान्य कार्यकर्ता के मन की बात या उसके मन की पीड़ा सुनने की व्यवस्था होनी चाहिए। कार्यकर्ता और नेताओं को यदि पार्टी के भीतर अपनी बात कहने का अवसर नहीं मिलेगा, तब वे सार्वजनिक मंचों से अपना दर्द बयां करेंगे। वैसे भी आज सामाजिक माध्यमों (सोशल मीडिया) की अधिकता के कारण अपने विचार अभिव्यक्त करने का दायरा भी बढ़ गया है।
भारतीय जनता पार्टी ने पिछले दिनों जिस तरह से अपने ही वरिष्ठ नेता एवं लेखक राज चढ्डा को प्रदेश सरकार में बढ़ रहे कथित भ्रष्टाचार पर टिप्पणी करने के कारण निकाला है, उसकी आलोचना सब जगह हो रही है। पार्टी के भीतर अनुशासन बनाए रखना भाजपा का आंतरिक मसला है, लेकिन पार्टी के शीर्ष नेताओं को इतना जरूर सोचना चाहिए कि राज चढ्डा ने जो सवाल खड़े किए हैं, वह सीधेतौर पर सरकार की आलोचना नहीं हैं। यह उनका आकलन और उनकी अभिव्यक्ति है। उन्होंने सरकार की आलोचना नहीं, बल्कि अपनी पार्टी को सचेत करने का प्रयास किया था। भाजपा कह सकती है कि उनके यहाँ कार्यकर्ताओं को अपनी बात कहने और सुझाव देने के लिए बड़ा मंच है। प्रदेश कार्यसमिति की बैठक में सभी कार्यकर्ता इसीलिए जुटते हैं। लेकिन, वास्तविकता में ऐसा होता है क्या? इस प्रकार की बैठकों में सुदूर क्षेत्रों से कार्यकर्ता आते हैं और नेताओं के भाषण सुनकर वापस लौट जाते हैं। अपना खून-पसीना देने वाले कार्यकर्ताओं को पार्टी से निकालकर उन सवालों से नहीं बचा जा सकता, जो उसने उठाए हैं। सामान्य-सी आलोचनात्मक टिप्पणी करने पर पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाने की जगह ऐसे कार्यकर्ताओं को धैर्यपूर्वक सुना जाना चाहिए। उनके साथ संवाद का दायरा बढ़ाना चाहिए। आलोचनाएं ही तो कई बार सरकारों को पथ से भटकने से रोकती हैं। आलोचनाएं ही तो कई बार गलतियों को सुधारने में मदद करती हैं। आलोचनाएं ही तो किसी भी योजना की खामियों को दूर कर उसे अधिक कल्याणकारी बनाती हैं। आलोचना और आलोचकों के महत्त्व को समझकर बहुत पहले कबीरदास जी कह गए हैं- निंदक नियरे राखिए...। आईएएस अधिकारी दीपाली रस्तोगी के मामले में जिस प्रकार सरकार ने उदार हृदय दिखाकर उचित निर्णय लिया है, उसी प्रकार भाजपा संगठन को भी ग्वालियर के वरिष्ठ नेता राज चढ्डा के प्रकरण में विचार करना चाहिए।
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन ’युवाओं के जज्बे को नमन : ब्लॉग बुलेटिन’ में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
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