भारतीय संस्कृति में गाय का बड़ा महत्व है। गाय के साथ इस देश का संबंध मात्र भावनात्मक नहीं है, वरन भारतीय समाज के पोषण में गौवंश का प्रमुख स्थान रहा है। भारत में गाय धार्मिक और आर्थिक, दोनों की बराबर प्रतीक है। यही कारण है कि प्राचीन समय में गौ-धन से सम्पन्नता देखी जाती थी। गाय के प्रति सब में बराबर सम्मान और श्रद्धा थी। फिर चाहे वह भारत में आक्रांता के रूप में आए समूह हों या फिर शरण लेने आए शरणार्थी, सभी गौ-हत्या से दूर रहते थे। परंतु, कालांतर में गोपालकों को चिढ़ाने और उन्हें नीचा दिखाने के लिए गौ-हत्या प्रारंभ की गई। गाय को मां कहने वाला समाज गौ-वंश की हत्या बर्दाश्त नहीं कर सकता था। इसी पीड़ा से इस देश में गौ-हत्या के विरुद्ध गौ-संरक्षण आंदोलनों की शुरुआत होती है। भारतीय संस्कृति की धुरी गाय के संरक्षण के लिए भारत में कठोर कानून बनाने की मांग लम्बे समय से उठाई जाती रही है। इन्हीं मांगों के बीच गुजरात सरकार ने गौ-संरक्षण की दृष्टि से सख्त और सराहनीय कानून बनाया है। गुजरात देश का पहला राज्य है, जहां गौ-हत्या के लिए आजीवन कारावास का प्रावधान किया गया है।
गुजरात पशु संरक्षण संशोधन विधेयक के अंतर्गत गौ-वंश एवं गौ-मांस को एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाने, एकत्रित करने और उसकी बिक्री करने के लिए भी सात से दस वर्ष की जेल का प्रावधान है। गौ-हत्या को गैर-जमानती अपराध बनाया गया है। उम्मीद की जा सकती है कि अब गुजरात में गौ-हत्या पर पूरी तरह लगाम लगाई जा सकेगी और गुजरात सरकार के इस कदम से अन्य राज्य भी गौ-संरक्षण के लिए ठोस प्रयास करेंगे। क्योंकि, गाय देश की बड़ी जनसंख्या की भावनाओं से जुड़ा मामला भी है। फिलहाल, देश के 15 राज्यों में गौ-हत्या को प्रतिबंधित करने वाले कानून लागू हैं, वहां 5 से 10 साल की सजा का ही प्रावधान है। आठ राज्यों में गौ-हत्या पर आंशिक प्रतिबंध है और दस राज्य ऐसे हैं जहाँ कोई प्रतिबन्ध नहीं है। इन सभी राज्यों के सामने गुजरात सरकार ने एक नजीर पेश की है। आजादी के पहले से गौ-हत्या को रोकने के प्रयास होते रहे हैं। आज गौ-हत्या के साथ मुस्लिम समाज का नाम सबसे अधिक जोड़ा जाता है, लेकिन एक समय में मुगल बादशाहों ने ही गौ-हत्या को रोकने के कड़े फरमान जारी किए हैं। आज कुछ लोग गुजरात सरकार के कठोर क़ानून की निंदा कर रहे हैं, जबकि मुग़ल शासनकाल में गौ-हत्या के दोषियों को मृत्युदंड तक का विधान था। आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर ने 28 जुलाई, 1857 को बकरीद के मौके पर गाय की कुर्बानी न करने का फरमान जारी करते हुए चेतावनी दी थी कि जो भी गौ-हत्या करने या कराने का दोषी पाया जाएगा, उसे मौत की सजा दी जाएगी। इस नजरिए से देखें तो हम पाएंगे कि मुगल बादशाह के शासनकाल में गौ-संरक्षण के लिए अधिक कठोर कानून था। इसी प्रकार के कानून की मांग आज की जा रही है। सोचिए, गौ-हत्या के लिए उम्रकैद का कानून बनाने वाली गुजरात सरकार की आलोचनाओं में कितनी वृद्धि हो जाती है, यदि वह बादशाह बहादुर शाह जफर से सीख लेकर गौ-हत्या के लिए मृत्युदंड का प्रावधान कर देती।
यह सत्य है कि गुजरात सरकार के कानून बनाने से गौ-हत्या पर पूर्ण पाबंदी नहीं लगेगी। क्योंकि, गौ-हत्या का मामला केवल गुजरात तक सीमित नहीं है, बल्कि समूचे देश में गौ-हत्या के प्रश्न उठाये जाते रहे हैं। माना जाता है कि गौ-हत्या रोकने के लिए सबसे बड़ा प्रदर्शन पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के शासनकाल में हुआ था। 7 नवंबर, 1966 को विक्रम संवत, कार्तिक शुक्ल गोपाष्टमी के दिन शंकराचार्य, निरंजनदेव, स्वामी करपात्री महाराज और महात्मा रामचंद्र वीर के नेतृत्व में हजारों साधु-संन्यासियों ने संसद का घेराव कर गौ-हत्या पर प्रतिबंध लगाने की मांग की थी। इंदिरा गांधी सरकार ने नेक मांग को स्वीकार करने की जगह गौ-भक्त साधु-संन्यासियों पर गोलियां चलवा दी थीं। इस गोलीकांड में कई गौ-भक्तों ने अपना बलिदान दिया था। गौ-हत्या पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने के लिए इतने बड़े आंदोलनों के बाद भी आजादी के सत्तर साल में कोई ठोस प्रयास नहीं हो सका है। गौ-संरक्षण के प्रति इस अनदेखी का कारण आज तक देश की जनता नहीं समझ सकी है। आखिर वह कौन से कारण हैं, जो बहुसंख्यक समाज की भावनाओं का सम्मान करने में बाधा उत्पन्न करते हैं? दरअसल, गौ-हत्या के मसले पर हमारे राजनेताओं भ्रमित हैं। वह मानते हैं कि गौ-हत्या को रोकने के लिए कठोर कानून बनाने से मुस्लिम उनके खिलाफ हो जाएंगे। जबकि सच यह नहीं है। देश पर सबसे लम्बे समय तक शासन करने वाली कांग्रेस भी भली प्रकार जानती है कि गाय के प्रति भारतीय नागरिकों की भावनाओं किस प्रकार की हैं? देश की भावनाओं से जुड़ने के लिए ही कांग्रेस ने अपना पहला और दूसरा चुनाव चिन्ह गौ-वंश चुना था। वर्ष 1969 में पार्टी विभाजन के बाद जब चुनाव आयोग ने कांग्रेस के चुनाव चिन्ह ‘दो बैलों की जोड़ी’ को जब्त किया, तब भी कांग्रेस ने नया चुनाव चिन्ह ‘गाय और बछड़े’ को चुना। गौ-भक्तों का दुर्भाग्य है कि कांग्रेस ने उनकी भावनाओं को भुनाया तो सही, लेकिन सम्मान कभी नहीं किया। गौ-वंश के चिन्ह पर चुनाव जीतने वाली कांग्रेस को प्रारंभ में ही समूचे देश में गौ-हत्या को पूर्ण प्रतिबंधित कर देना चाहिए था।
हम देखते हैं कि संकुचित राजनीति के कारण गौ-हत्या भी आज सांप्रदायिक विवाद का मुद्दा बन गया है। गौ-हत्या के कारण सांप्रदायिक तनाव बढ़ने की अनेक घटनाएं देशभर में होती हैं। सांप्रदायिक तनाव को रोकने और आपसी भाई-चारे को बढ़ाने के दृष्टिकोण से भी समूचे देश में गौ-हत्या के संबंध में कड़ा कानून बनाने की आवश्यकता है। संविधान के अनुच्छेद-48 के अंतर्गत गौ-संरक्षण से जुड़े मसले राज्य की नीति में शामिल हैं। अर्थात् गौ-सरंक्षण जुड़े कानून बनाने का काम राज्य सरकारों का है। यही कारण है कि देश के सभी राज्यों में गौ-हत्या के संबंध में अलग-अलग कानून है। जबकि गौ-हत्या को रोकने के लिए देश में एक कानून की आवश्यकता महसूस होती रही है। इस संदर्भ में अक्टूबर-2015 में हिमाचल प्रदेश के उच्चतम न्यायालय ने उचित टिप्पणी की थी। हिमाचल प्रदेश उच्चतम न्यायालय ने राज्य में गौ-हत्या के गोहत्या और गोमांस बिक्री पर रोक लगाने का महत्वपूर्ण फैसला सुनाते हुए केन्द्र सरकार से आग्रह किया था कि पूरे देश में गौ-हत्या और गौ-मांस बिक्री पर प्रतिबंध लगाने के लिए कानून बनाने पर विचार किया जाना चाहिए। गौ-मांस और उससे बने उत्पाद की बिक्री, आयात और निर्यात पर तीन माह में पूरी तरह प्रतिबंध लगा दिया जाना चाहिए। अपने महत्वपूर्ण फैसले में न्यायमूर्ति राजीव शर्मा और सुरेश ठाकुर की खंडपीठ ने यह भी कहा था कि ‘भारत के संविधान में धर्मनिरपेक्षता एक मुख्य बिन्दु है। लोगों को एक-दूसरे की भावनाओं को आहत नहीं करना चाहिए। समाज में एकात्मता की भावना होनी चाहिए। इस तरह के झगड़े-फसादों के चलते लोकतंत्र की मूल भावना को भी चोट पहुंचेगी और एक-दूसरे के प्रति अविश्वास भी बढ़ जाएगा।’ सच ही तो है, गाय पर संकीर्ण राजनीति से हिन्दू और मुसलमान के बीच अविश्वास की खाई गहरी हो रही है। हिंदू-मुस्लिम समाज के बीच यह खाई और गहरी हो, उससे पहले केंद्र सरकार को गौ-हत्या को रोकने के लिए गुजरात सरकार की तरह कठोर कानून बनाने का सराहनीय प्रयास करना चाहिए।
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