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शुक्रवार, 8 फ़रवरी 2019

कविताओं में बसी मिट्टी की सौंधी सुगंध

 यु वा कवि लोकेन्द्र सिंह राजपूत का पहला काव्य संग्रह हिन्दी जगत के सम्मुख प्रस्तुत हो रहा है। वह इतनी ही स्वाभाविक घटना है जितनी कि बसंतागमन पर आम्रकुंजों का बौर राशि से संभारित होने लगना या प्राची से सूर्य को मुस्कराते देख किसी गौरैया का चहक-चहक पडऩा। तात्पर्य यह है कि श्री लोकेन्द्र सुमित्रानंदन पंत के 'वियोगी होगा पहला कवि' को चरितार्थ भले ही न करें किन्तु इतना तो है ही कि उनका काव्य सृजन 'वही होगी कविता अनजान' की तरह अनजाने और लगभग अनायास ही बह निकला है। उसके पीछे उनकी भाव प्रवणता ही प्रमुख है। 
  श्री लोकेन्द्र का यह काव्य संग्रह उनकी अपनी मातृभूमि, अपनी मां, अपने समाज और अपने परिवेश के प्रति उठती श्रद्धा, समादर, प्रेम एवं दायित्व चेता भावनाओं की अभिव्यक्ति है। उनकी यह भावाभिव्यक्ति अत्यन्त सहज, सरल एवं तरल है। कवि श्री लोकेन्द्र अपनी रचनात्मकता में प्राय: अकृत्रिम और कहीं-कहीं सपाट दिख पड़ते हैं। यह उनके काव्य लेखन का वैशिष्ट्य है और यही उनकी, कम से कम उनके साम्प्रतिक कवि व्यक्तित्व की पहचान है।
वीडियो में देखें- क्या कह रहे हैं वरिष्ठ साहित्यकार श्री जगदीश तोमर 


श्री लोकेन्द्र अपने देश की मिट्टी की सौंधी गंध, उसके सांस्कृतिक वैभव और पुरा गौरव के प्रति अपार भक्ति भाव से भरे हुए हैं। उनका यह अभ्यांतरिक भाव उनकी अधिकांश कविताओं में ऐसे ही झलकता है जैसे शरद का निरभ्र आकाश किसी नदी या जलाशय में प्रतिबिंबित होता है। इस दृष्टि से इस काव्य संकलन की पहली कविता ''मैंने देखा है भारत को करीब से....'' गुजरना उपयुक्त होगा। इस कविता में कवि अनेक विषमताओं, संघर्षों और संकटों के मध्य भी अपने राष्ट्र के विश्वगुरु होने का सपना देखता है। यूं देखने में कवि की दृष्टि में अपने देश के प्रति परम पूज्यनीयता का भाव सतत विद्यमान दीख पड़ता है। देखें इस कविता की ये पंक्तियां - 
''शांति-उपवन का निर्माण करते/ देखा है मैंने उसे
विश्व-कल्याण में संलग्न देखा है।
पंचशील के सिद्धांत का संस्थापक ही सही
किन्तु स्वअस्मिता पर उठे संकट कोई तो
सिंह से दहाड़ते हुए/ देखा है शत्रु का मर्दन करते हुए।'' 

       इसी भावमूर्ति की दूसरी कविता में कवि पुंजीभूत भारत ही हो गया लगता है। कविता में भारत स्वयं मुखरित हो रहा है। किन्तु इस भारत उवाच में परोक्षत: ही सही कवि का अपने महान देश के प्रति गौरव ही निनादित है। छह छंदमुक्त अवतरणों की इस कविता का एक अवतरण देखें- 
मीरा, राधा के मन का मर्म
अनसूया, सावित्री, सीता का तप हूं। 
आंदाल, गार्गी का अभिज्ञान
राष्ट्र जागरण करती भगिनी निवेदिता हूं।
महादेवी, सुभद्रा का साहित्य
दुर्गावती, लक्ष्मीबाई की बलिमुद्रा हूं।
मां काली-सा रौद्र रूप धर
अरिदल का संहारक हूं। 
मैं भारत हूं, भाग्य विधाता हूं।।

'मेरा भारत', 'उठ जाग', 'संकल्प' आदि कविताएं भी राष्ट्रीय भावधार से जुड़ी हुई हैं। इस संकलन की कुछ कविताएं मां और पिता पर भी केंद्रित हैं। उनमें कवि की भावनाएं बड़ी प्रामाणिकता से प्रकट हुई हैं और इसलिए वे मन को सीधे-सीधे छूती हैं। इन कविताओं में अनेक पाठक संभवत: अपने मन के भावोच्छवासों को ध्वनित होता हुआ अनुभव कर सकेंगे। 'मां' की कुछ पंक्तियां दृष्टव्य हैं - 
मैं बोल नहीं पाती थी
लेकिन वह सब तुरंत समझ जाती थी
मुझे चाहिए क्या
बेहतर जानती थी मेरी मां.... 
कितनी भी व्यस्त रहती वो
लेकिन, मेरे लिए बहुत वक्त था उसके पास
रोटी सेंकने के बीच से भी 
दरवाजे तक छोडऩे जरूर आती थी मेरी मां।

श्री जगदीश तोमर 
        जैसा कि सर्वविदित है कि कवि भावुक होते हैं। किन्तु आज हमारे कवियों पर बौद्धिकता हावी होती जान पड़ रही है। किन्तु श्री लोकेन्द्र पेशे से पत्रकार होकर भी अपने जीवन एवं व्यवहार में भावना के स्वप्रिल संसार के वासी हैं। यही कारण है कि वह अपने गांव की याद कर कविता लिखते हैं, कभी किसी मित्र की आत्मीय स्मृति में खो जाते हैं और कभी किसी दानशील बूढ़े दरख्त के दु:खद अंत को देख अपार सहानुभूति से भर उठते हैं। वस्तुत: कवि श्री लोकेन्द्र का रचना संसार पर्याप्त विविध एवं विस्तृत है। उसमें जहां उल्लास का उजास है वहीं उसमें आत्मकेन्द्रीयता, मूल्यहीनता और व्यवहारगत जटिलता-कुटिलता के प्रति चिन्ता एवं उद्विग्नता का बढ़ता धुंधलका भी है। उससे गुजरना किसी अलग अनजाने संसार से गुजरना न होकर हमारे अपने रोजमर्रा के जीवन एवं जगत से रूबरू होना है। ऐसा विश्वास है कि श्री लोकेन्द्र की ये कविताएं कविता प्रेमी पाठकों को प्रिय एवं प्रेरक लगेंगी। लोकेन्द्र की ये कविताएं उनकी रचना संभावनाओं के प्रति एक नई आशा एवं विश्वास जगाती हैं। हिन्दी विश्व उनका भावभीना स्वागत करेगा तथा उन पर अपना स्नेह बरसाएगा। 
(लेखक श्री जगदीश तोमर प्रख्यात साहित्यकार हैं। वर्तमान में वे साहित्य अकादमी की प्रेमचंद सृजन पीठ, उज्जैन के निदेशक हैं)

5 टिप्‍पणियां:

  1. मैं जो कहने वाली थी वह आदरणीय श्री तोमर जी ने कह दिया . मुझसे अधिक स्पष्ट व प्रभावशाली शब्दों में . सचमुच भाई लोकेन्द्र की कविताएं उनके अन्तर्मन का भावपूर्ण दस्तावेज हैं . अच्छा शिल्पकार होने से अधिक अभिनन्दनीय है अच्छा इन्सान होना . 'मैं भारत हूँ ' , भाई लोकेन्द्र का परिचय एक कवि के रूप में तो कराती ही है , उससे भी कहीं आगे एक ऐसे होनहार और अच्छा इन्सान बताती है जिसे अपने देश पर गर्व है ,अपनी संस्कृति और माटी पर अभिमान है ,जो नैतिक मूल्यों का प्रबल पक्षधर है और जो रिश्तों की मर्यादा और महत्ता को समझता है साथ ही जिसका हृदय संवेदना सा भरा है .मैंने जितना भाई लोकेन्द्र को समझा है , उनके बारे में लिखा गया एक एक शब्द सच्चा है .

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा आज शुक्रवार (10-07-2015) को "सुबह सबेरे त्राटक योगा" (चर्चा अंक-2032) (चर्चा अंक- 2032) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक

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  3. रचनाकार के अंतस, मर्म तथा ह्रदय को प्रकट करती यह समीक्षा पुस्तक पढ़ने को विवश करती है !

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  4. Kepp it Up. Update with Good Quaity article, News and Content. We are the biggest newsgroup in India.
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