सोमवार, 31 दिसंबर 2018

दूध धारा : नर्मदा के इस जल प्रपात का ऋषि दुर्वासा से है संबंध

- लोकेन्द्र सिंह -
कपिल धारा से उतरकर तकरीबन 200 मीटर की दूरी पर नर्मदा का एक और जल प्रपात है, जिसे दूध धारा कहते हैं। दरअसल, इस जल प्रपात में पानी इतनी तेजी से गिरता है कि उसका रंग दूध की तरह धवल दिखाई देता है। और भी जनश्रुति हैं, इस नाम के पीछे। अपने क्रोधि स्वभाव के लिए विख्यात ऋषि दुर्वासा ने यहाँ तपस्या की थी। उनके ही नाम पर यहाँ नर्मदा की धारा का नाम 'दुर्वासा धारा' पड़ा, जो बाद में अपभ्रंस होकर 'दूध धारा' हो गया। यह भी माना जाता है कि ऋषि दुर्वासा की तपस्या से प्रसन्न होकर माँ नर्मदा ने उन्हें साक्षात दर्शन दिए और उन्हें दुग्ध पान कराया था, तभी से यहाँ नर्मदा की धारा का नाम दूध धारा पड़ गया। ऋषि दुर्वासा दूध के समान धवल नर्मदा जल से प्रतिदिन शिव का अभिषेक करते थे। 

         

रविवार, 30 दिसंबर 2018

कपिल धारा : 100 फीट की ऊंचाई से गिरती दो धाराएं



- लोकेन्द्र सिंह -
नर्मदा उद्गम स्थल से लगभग 6 किमी दूर स्थित है कपिल धारा। यह स्थान अपने प्राकृतिक सौंदर्य के लिए तो प्रसिद्ध है ही, आध्यात्मिक ऊर्जा की दृष्टि से भी महत्त्व रखता है। यहाँ प्राचीन काल में ऋषि-मुनि साधना करते थे। यह ऋषि कपिल मुनि का तपस्थल है। माना जाता है कि सांसारिक दु:खों से निवृत्ति और तात्विक ज्ञान प्रदान करने वाले 'सांख्य दर्शन' की रचना कपिल मुनि ने इसी स्थान पर की थी। जैसे ही हम इस स्थान पर पहुँचते हैं, हमें कपिल मुनि का आश्रम या कहें कि मंदिर दिखाई देता है। उन्हीं के नाम पर इस स्थान पर बनने वाले जलप्रपात का नाम कपिल धारा पड़ा है। 
वीडियो देखें : प्रकृति प्रेमियों के लिए अमरकंटक में दो खूबसूरत झरने - कपिल धारा और दूध धारा

         

शुक्रवार, 28 दिसंबर 2018

माई की बगिया : जहाँ छुटपन में खेला करती माँ नर्मदा

- लोकेन्द्र सिंह -
नर्मदाकुंड से पूर्व दिशा की ओर लगभग एक किलोमीटर की दूरी पर माई की बगिया स्थित है। यह बगिया माँ नर्मदा को समर्पित है। यह स्थान हरे-भरे बाग की तरह है। एक छोटा-सा मंदिर है। यहाँ एक कुण्ड भी है, जिसे चरणोदक कुण्ड के नाम से जाना जाता है। एक मान्यता है कि नर्मदा का वास्तविक उद्गम स्थल यही स्थान है। माई की बगिया में निकली जलधारा ही आगे जाकर वर्तमान नर्मदा उद्गम मंदिर में निकली है।
वीडियो देखें - 

          एक दूसरी मान्यता यह है कि इस बाग को नर्मदा मैया के खेलने-कूदने के लिए बनाया गया था। छुटपन में नर्मदा अपनी सखी जोहिला सहित अन्य के साथ यहाँ खेला करती थीं। पूजा-अर्चना के लिए भी इसी स्थान से माँ नर्मदा पुष्प चुना करती थी। दूसरी मान्यता कहीं न कहीं पहली मान्यता को स्थापित करती प्रतीत होती है। माई की बगिया परिक्रमावासियों का एक पड़ाव भी है। माँ नर्मदा की परिक्रमा के लिए निकले श्रद्धालुओं को यहाँ देखा जा सकता है। वे सब आनंद से यहाँ ठहरते हैं। थोड़ा विश्राम करते हैं। माई के भजन करते हुए भोजन प्रसादी तैयार कर उसे प्राप्त करते हैं।
          माई की बगिया का और भी महत्त्व है। नेत्र औषधि के दृष्टिकोण से महत्त्वपूर्ण पौधे गुलबकावली की जन्म स्थली भी माई की बगिया है। गुलबकावली पुष्प के अर्क से आयुर्वेदिक 'आईड्राप' तैयार किया जाता है। अमरकंटक के वैद्य ही नहीं, अपितु सामान्य नागरिक भी बहुत सरल विधि से गुलबकावली के फूल से नेत्र औषधि तैयार कर लेते हैं। अमरकंटक इस बात के लिए भी प्रसिद्ध है कि यहाँ के जंगलों में प्रचूर मात्रा में जड़ी-बूटी पाई जाती हैं।



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यह भी देखें - 

मंगलवार, 25 दिसंबर 2018

माँ नर्मदा मंदिर, उद्गम स्थल


- लोकेन्द्र सिंह - 
अमरकंटक में जब हम नर्मदा उद्गम स्थल के समीप पहुँचते हैं, तब धवल रंग के मंदिरों का समूह बरबस ही हमें आकर्षित करता है। 24 मंदिरों वाले इसी परिसर में स्थित है नर्मदा कुण्ड, जहाँ से सदानीरा माँ नर्मदा का उद्गम हुआ है। श्री नर्मदा मंदिर के निर्माण के संबंध में कोई प्रमाण उपलब्ध नही हैं। यह मंदिर बहुत प्राचीन हैं। मंदिरों का निर्माण किसने कराया, यह भी कहा नहीं जा सकता। चूँकि माँ नर्मदा के उद्गम कुण्ड में रेवा नायक की प्रतिमा स्थित है। इसलिए यह माना जा सकता है कि प्रारंभिक तौर पर माँ नर्मदा मंदिर का निर्माण रेवा नायक नाम के व्यक्ति ने कराया होगा। रेवा नायक के नाम पर ही माँ नर्मदा का एक नाम रेवा है। आठवीं शताब्दी में आदि गुरु शंकराचार्य ने यहाँ बंसेश्वर महादेव मंदिर की स्थापना की और नर्मदा कुण्ड बनवाया। उस समय यहाँ बांस के बहुत पेड़ थे, इसलिए आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित महादेव को बंसेश्वर महादेव कहा गया। बाद में, अन्य राजाओं-महाराजाओं ने मंदिर परिसर के निर्माण में अपना योगदान दिया है। 
माँ नर्मदा मंदिर और उद्गम स्थल वीडियो में देखें - 

         

रविवार, 23 दिसंबर 2018

एक चतुर कलाकार की तरह राजनीतिक/धार्मिक कार्ड खेल गए नसीरुद्दीन शाह

- लोकेन्द्र सिंह - 
भारतीय सिनेमा के वरिष्ठ अभिनेता नसीरुद्दीन शाह ने अपने विवादित बयान से एक बार फिर असहिष्णुता की बहस को जिंदा कर दिया है। एक ओर नसीर कह रहे हैं कि उन्हें भारत में डर लगता है, वहीं पाकिस्तान में यातनाएं झेल कर भारत सरकार के प्रयास से वापस लौटे हामिद नेहाल अंसारी अपने देश में सुकून महसूस कर रहे हैं। अब कौन सही है, नसीर साहब या हामिद? नसीरुद्दीन को इस देश ने बहुत सम्मान और प्रसिद्धि दी है। यह देश उनकी कला का प्रशंसक है। किंतु, नसीर अपने देश को क्या लौटा रहे हैं? आज कुछेक घटनाओं को आधार बना कर नसीर कह रहे हैं- 'मैं अपने बच्चों के लिए चिंतित हूं क्योंकि कल को अगर भीड़ उन्हें घेरकर पूछती है कि तुम हिंदू हो या मुसलमान? तो उनके पास इसका कोई जवाब नहीं होगा। यह मुझे चिंतित करता है और मैं हालात को जल्द सुधरते हुए नहीं पा रहा हूं।' उन्हें यह डर तब क्यों नहीं लगता, जब जम्मू-कश्मीर में कश्मीरी पंडितों को चिह्नित कर के मारा और भगाया गया। उन्हें यह डर तब क्यों नहीं लगता, जब कैराना से हिंदुओं का पलायन कराया जाता है? नसीर साहब दुनिया देखती है कि वह भीड़ कौन-सी है जो घेर कर धर्म पूछती है और कुरान की आयत नहीं सुनाने वालों को गोलियों से भून देती है। शुक्र है कि आपके बच्चों को कुरान की आयतें तो याद हैं। जब उन्हें भीड़ घेरेगी तो आयतें सुनाकर वह जान बचा लेंगे, लेकिन उनका क्या होगा जिन्हें रामायण की चौपाई और गीता के श्लोक याद हैं?

गुरुवार, 20 दिसंबर 2018

हिंदू राष्ट्र पर उच्च न्यायालय का अभिमत

- लोकेन्द्र सिंह -
मेघालय के उच्च न्यायालय ने राष्ट्रीय नागरिकता पंजीयन प्रकरण की सुनवाई करते हुए भारत के संदर्भ में जो कहा, उसके बाद देशव्यापी विमर्श खड़ा हुआ। एक ओर कथित सेकुलर बिरादरी उच्च न्यायालय की टिप्पणी से असहज हो गई। उसे संविधान की याद आई। वहीं, दूसरी ओर उच्च न्यायालय की टिप्पणी ने भारत के 'हिंदू राष्ट्र' होने की अवधारणा को पुष्ट किया। उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति एसआर सेन ने विभाजन और हिंदुओं पर हुए अत्याचार का जिक्र करते हुए कहा- 'पाकिस्तान ने स्वयं को इस्लामिक देश घोषित किया। चूंकि विभाजन धर्म के आधार पर हुआ था। इसलिए भारत को भी स्वयं को हिंदू राष्ट्र घोषित करना चाहिए था।' स्पष्ट है कि इस टिप्पणी के बाद देश में दो तरह का विमर्श प्रारंभ होना ही था। जो लोग उच्च न्यायालय की इस टिप्पणी की निंदा कर रहे हैं, उन्हें जरा निरपेक्ष भाव से न्यायमूर्ति के कहे पर चिंतन करना चाहिए। क्या उन्होंने उचित नहीं कहा कि इस देश का विभाजन धर्म के नाम पर किया गया? एक हिस्सा इस्लामिक राष्ट्र के नाम पर बनाया गया तो दूसरा स्वत: ही हिंदू राष्ट्र नहीं बनना चाहिए था?

मंगलवार, 11 दिसंबर 2018

पत्रकारिता की पाठशाला : जहाँ कलम पकड़ना सीखा

- लोकेन्द्र सिंह -
एक उम्र होती है, जब अपने भविष्य को लेकर चिंता अधिक सताने लगती है। चिकित्सक बनें, अभियंत्री बनें या फिर शिक्षक हो जाएं। आखिर कौन-सा कर्मक्षेत्र चुना जाए, जो अपने पिण्ड के अनुकूल हो। वह क्या काम है, जिसे करने में आनंद आएगा और घर-परिवार भी अच्छे से चल जाएगा? इन सब प्रश्नों के उत्तर अंतर्मन में तो खोजे ही जाते हैं, अपने मित्रों, पड़ोसियों और रिश्तेदारों से भी मार्गदर्शन प्राप्त किया जाता है। पारिवारिक परिस्थितियों के कारण वह उम्र मेरे सामने समय से थोड़ा पहले आ गई थी। पिताजी का हाथ बँटाने के लिए तय किया कि अपन भी पढ़ाई के साथ-साथ नौकरी करेंगे। शुभचिंतकों ने कहा कि नौकरी के सौ तनाव हैं, जिनके कारण पढ़ाई पर विपरीत असर पड़ेगा। लेकिन, मेरे सामने भी कोई विकल्प नहीं था। प्रारंभ से ही मेरी रुचि पढऩे-लिखने में रही है। अखबारों में पत्र संपादक के नाम लिखना और पत्र-पत्रिकाओं द्वारा आयोजित निबंध/लेख प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेकर पत्र-पुष्प भी प्राप्त करता रहा। मेरा मार्गदर्शन करने वाले लोग मेरे इस स्वभाव से भली प्रकार परिचित थे। तब उन्होंने ही सुझाव दिया कि मुझे पत्रकारिता को अपना कर्मक्षेत्र बनाना चाहिए। हालाँकि उस समय अपने को पत्रकारिता का 'क-ख-ग' भी नहीं मालूम था। तब तय हुआ कि इसके लिए स्वदेश में प्रशिक्षण प्राप्त किया जा सकता है। वहाँ पत्रकारिता का ककहरा सीखने के साथ-साथ बिना तनाव के जेबखर्च भी कमाया जा सकता है। इस संबंध में स्वदेश, ग्वालियर के संपादक लोकेन्द्र पाराशर जी और मार्गदर्शक यशवंत इंदापुरकर जी से मेरा परिचय कराया गया। उन्होंने मेरे मन को खूब टटोला और स्वदेश में तीन माह तक बिना वेतन के प्रशिक्षु पत्रकार रखने का प्रस्ताव दिया। तय हुआ कि काम सीख जाने पर तीन माह बाद मानदेय मिलना प्रारंभ हो सकेगा। मैंने प्रस्ताव स्वीकार कर लिया।

गुरुवार, 29 नवंबर 2018

जातिभेद मिटाता रेल का सामान्य डिब्बा और संघ

- लोकेन्द्र सिंह -
'ट्रेन के सफर में एक बेहद खास बात है, जिसे हमें अपने असल जीवन में भी चरितार्थ करना चाहिए- ट्रेन में जाति का कोई भेद नहीं। सामान्य डिब्बे में तो धन का भी कोई भेद नहीं। सीट खाली है तो हम झट से उस पर बैठ जाते हैं, यह सोचे बिना कि जिससे सटकर बैठना है वह मेहतर भी हो सकता है और चमार भी। वह धोबी भी हो सकता है और कंजर भी। सामान्य डिब्बे में सीट पाने के लिए धन और उसके बल पर हासिल की जाने वाली जुगाड़ भी काम नहीं आती। जो पुरुषार्थ करेगा और जिसके भाग्य में होगी सीट उसी को मिलती है।'
            'राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर और राष्ट्र के महान नायक मोहनदास करमचंद गांधी ने अपने जीवन का काफी हिस्सा ट्रेनों में गुजारा। इनके लिए एक गीत भी रचा गया है जिसके बोल हैं- गाड़ी मेरा घर है कह कर जिसने की दिन-रात तपस्या... ' और वो गीत गुनगुनाने लगे। चॉकलेट रंग का कुर्ता-पाजामा और ऊपर से खादी की सदरी डाल रखी थी, उन बुजुर्ग ने। वे ही अपने सामने बैठे एक युवक से बातें कर रहे थे और फिर ये गीत गुनगुनाने लगे, मनमौजी की तरह। वो श्रीधाम एक्सप्रेस के सामान्य डिब्बे में खिड़की के पास बैठे थे। मैं हबीबगंज रेलवे स्टेशन से गाड़ी में चढ़ा था। भीड़ बहुत ज्यादा तो नहीं थी। मैं सीट तलाश रहा था। उन्होंने यह देखकर इशारे से मुझे अपने पास बैठा लिया। सुकून मिला कि चलो अब ग्वालियर तक करीब साढ़े पांच घण्टे का सफर अखरेगा नहीं। आराम से बैठने लायक जगह मिल गई है।

सोमवार, 26 नवंबर 2018

उजाले से भरा स्वदेश का दीपावली विशेषांक

- लोकेन्द्र सिंह -
स्वदेश ग्वालियर समूह की ओर से प्रतिवर्ष प्रकाशित होने वाले दीपावली विशेषांक की प्रतीक्षा स्वदेश के पाठकों के साथ ही साहित्य जगत को भी रहती है। समृद्ध विशेषांकों की परंपरा में इस वर्ष का विशेषांक शुभ उजाले से भरा हुआ है। प्रेरणा देने वाली कहानियां, संवेदनाएं जगाने वाली कविताएं और ज्ञानवर्धन करने वाले आलेख सहित अन्य पठनीय सामग्री लेकर यह विशेषांक पाठकों के सम्मुख उपस्थित है। प्रख्यात ज्योतिर्विद ब्रजेन्द्र श्रीवास्तव की वार्षिक ज्योतिष पत्रिका स्वदेश के दीपावली विशेषांक को और अधिक रुचिकर बनाती है।

बुधवार, 21 नवंबर 2018

बेटी के लिए कविता-6



हो गई चार साल की छोकरी 
बाँधकर चलती है बातों की पोटली। 


पोटली में बातें, रंग-बिरंगी सतरंगी
बातें खट्टी-मीठी, अदा नखराली। 



समय की जैसी मांग, हाजिर वैसी बात
मीठी बातों में लेकर तुम पोटने वाली।



पोटली में बातें, दुनिया जहान की
मैं सुनने वाला और तुम सुनाने वाली। 



छकपक-छकपक चलती बातों की रेल
सुबह से शाम तक, बेरोकटोक चलने वाली। 



पोटली में बातें, मतलब-बेमतलब
सुननी होंगी सब, लड़की ज़िद वाली। 



खजाने से भी कीमती ये पोटली 
मन बहलाये, बोली उसकी तोतली। 



मैं सुनता रहूं और तुम सुनाती रहो 
कभी न हो खाली, तुम्हारी ये पोटली। 
- लोकेन्द्र सिंह -

सोमवार, 19 नवंबर 2018

नाग को दूध पिलाते- "हम असहिष्णु लोग"


डॉ. विकास दवे
युवा कलमकार लोकेंद्र सिंह की सद्य प्रकाशित कृति 'हम असहिष्णु लोग' हाथों में है। एक-एक पृष्ठ पलटते हुए भूतकाल की कुछ रेतीली किरचें आंखों में चुभने लगी हैं। संपूर्ण विश्व जब घोषित कर रहा था कि - 'मनुष्य जाति ही नहीं अपितु प्राणी जगत और प्रकृति के प्रति मानवीय व्यवहार की शिक्षा विश्व का कोई देश यदि हमें दे सकता है,तो वह केवल और केवल भारत है।' ऐसे समय में इसी भारत के कुछ कपूत अपनी ही जांघ उघाड़कर बेशर्म होने का कुत्सित प्रयास कर रहे थे। आश्चर्य है कि जन-जन की आवाज होने का दंभ पालने वाले इन वाममार्गी बधिरों को भारत के राष्ट्रीय स्वर सुनाई ही नहीं दे रहे थे। 'अवार्ड वापसी गैंग' की भारत के गांव-गांव, गली-गली में हुई थू-थू को गरिमामयी शब्दों में प्रस्तुत करने का नाम है-'हम असहिष्णु लोग'।

मंगलवार, 23 अक्तूबर 2018

अब प्रयाग 'राज'


- लोकेन्द्र सिंह 
भारतीयता को स्थापित करने के मामले में उत्तरप्रदेश सरकार के प्रयास सराहनीय हैं। गत वर्ष से अयोध्या में दीपावली मनाने की शुरुआत कर उत्तरप्रदेश की योगी सरकार ने इस दिशा में बड़ी पहल प्रारंभ की थी। अब ऐतिहासिक, धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व के शहर को उसका वास्तविक एवं गौरवशाली नाम 'प्रयागराज' लौटा कर अनुकरणीय कार्य किया है। भले ही एक समय में राजनीतिक और सांप्रदायिक ताकत ने प्रयागराज का नाम बदल कर इलाहाबाद कर दिया हो, लेकिन जनमानस के अंतर्मन में वह प्रयागराज ही रहा। इसलिए जब हम तर्पण करने के लिए इलाहाबाद जाते हैं, तो यह कभी नहीं करते कि इलाहाबाद जा रहे हैं, मुंह से हमेशा यही निकला- 'तर्पण के लिए प्रयाग जा रहे हैं।' भारतीय ज्ञान-परंपरा और अध्यात्म का सबसे बड़ा मानव संगम 'कुंभ' जिन चार शहरों में आयोजित होता है, उनके नाम हैं- हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक। भले ही सन् 1583 में अकबर ने सरकारी दस्तावेज से प्रयागराज को मिटाकर उसकी जगह इलाहाबाद नाम लिख दिया हो, लेकिन इससे भारतीय मानस में अंकित 'प्रयागराज' कभी नहीं मिटा। वह अब तक अमिट रहा। कुंभ का आयोजन बाहरी तौर पर इलाहाबाद में होता रहा, लेकिन उसकी सांस्कृतिक भूमि हमेशा से प्रयाग ही रही। कुंभ में पवित्र स्नान के लिए देश के कोने-कोने से आने वाले श्रद्धालु कभी भी इलाहाबाद नहीं, बल्कि प्रयाग ही आए। इससे सिद्ध होता है कि सांस्कृतिक पहचान कभी जोर-जबरदस्ती से नहीं मिटती। वह उस संस्कृति के मानने वालों के मन में सदैव के लिए जिंदा रहती हैं। आज वह अवसर आया है जब प्रयाग को पुन: उसकी वास्तविक पहचान मिली।

शनिवार, 20 अक्तूबर 2018

ध्येयनिष्ठ पत्रकारिता के गौरवशाली 51 वर्ष

पत्रकारिता में श्रेष्ठ मूल्यों की स्थापना करने वाले स्वदेश के प्रधान संपादक श्री राजेन्द्र शर्मा का मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में आयोजित गरिमामय समारोह में आत्मीय अभिनंदन

पत्रकारिता जब मिशन से हटकर व्यावसायिकता की पटरी चढ़ चुकी है, तब भी सिद्धांतों से डिगे बिना 51 वर्ष की लंबी यात्रा पूरी करने वाले स्वदेश (भोपाल समूह) के प्रधान संपादक श्री राजेन्द्र शर्मा को देखकर एक विश्वास पक्का हो जाता है कि पत्रकारिता अब भी मिशनरी मोड में है। निष्कलंक, निष्पक्ष और निर्भीक पत्रकारिता की यह यात्रा अब भी जारी है। लोकतंत्र के इस चौथे खंबे की ओर उम्मीदों से देखने वाला समाज चाहता है कि पत्रकारिता के यह गौरवशाली और ध्येयनिष्ठ 51 वर्ष 101 हो जाएं। पत्रकारिता के निरभ्र आकाश में दैदीप्यमान नक्षत्र ध्रुव की भांति श्री राजेन्द्र शर्मा न केवल आम जनमानस की आवाज बनें, बल्कि लोकहित के अपने पथ से भ्रष्ट होती पत्रकारिता का मार्गदर्शन भी करते रहें। उनके सान्निध्य में अनेक भारतीय कलम तैयार हुई हैं, जिनके लिए पत्रकारिता में समाज और राष्ट्र सर्वोपरि रहे। जिस प्रकार प्रतिकूल परिस्थितियों भी श्री शर्मा अपने पत्रकारिता धर्म पर अड़े रहे, अपने मूल्यों को साधे रहे, उसी तरह उनसे सीख कर पत्रकारिता जगत में आए पत्रकारों की कलम भी कभी झुकी नहीं। इस तरह स्वदेश परिवार के मुखिया श्री राजेन्द्र शर्मा ने न केवल अपनी कलम से देश की सेवा की, अपितु अपने गुरु दायित्व से भी राष्ट्र की उन्नति में योगदान दिया है। उनके त्याग, संघर्ष और मूल्यनिष्ठ पत्रकारीय जीवन को समाज भी मान्यता देता है। सम्मान करता है। 2018 में उनकी पत्रकारिता के 51 वर्ष पूर्ण होने पर उनके योगदान के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने और समूची यात्रा को आज की पीढ़ी से समक्ष उपस्थित करने के उद्देश्य से आम समाज ने 01 सितंबर को मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में अभिनंदन समारोह का आयोजन किया। इस सारस्वत आयोजन में मंच पर देश की सम्मानित विभूतियों और अपेक्स बैंक के सभागार ‘समन्वय भवन’ में गणमान्य नागरिकों की उपस्थिति यह बयान करने के लिए पर्याप्त थी कि श्री राजेन्द्र शर्मा एवं उनकी निष्कलंक पत्रकारिता के प्रति समाज के सुधिजनों में अपार श्रद्धा-आदर है। मंच पर भारतीय ज्ञान-परंपरा के प्रख्यात चिंतक, राजनीतिज्ञ एवं पूर्व केंद्रीय मंत्री डॉ. मुरली मनोहर जोशी, त्रिपुरा के राज्यपाल प्रो. कप्तान सिंह सोलंकी, केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री श्री नरेन्द्र सिंह तोमर, एकात्म मानव दर्शन अनुसंधान एवं विकास संस्थान के निदेशक डॉ. महेश चंद्र शर्मा, पूर्व मुख्यमंत्री श्री कैलाश जोशी, श्री बाबूलाल गौर, पूर्व केंद्रीय मंत्री श्री सुरेश पचौरी, नगरीय प्रशासन एवं शहरी विकास मंत्री श्रीमती माया सिंह, भोपाल महापौर श्री आलोक शर्मा, सांसद श्री आलोक संजर, आयोजन समिति के कार्याध्यक्ष मूर्धन्य साहित्यकार श्री कैलाशचंद्र पंत, पूर्व सांसद रघुनंदन शर्मा, श्रीमती अरुणा शर्मा (श्री शर्मा की सहधर्मिणी) और स्वदेश के प्रबंध संपादक श्री अक्षत शर्मा उपस्थित रहे।

- चित्रों में देखें पूरी यात्रा - 

         
         

शुक्रवार, 19 अक्तूबर 2018

श्रीराम मंदिर निर्माण और आरएसएस


- लोकेन्द्र सिंह 
राष्ट्रीय स्वयंसेवक वर्षभर में प्रमुख छह उत्सव मनाता है, इनमें से एक विजयादशमी है। यह सभी उत्सव सामाजिक महत्व के हैं। विजयादशमी समाज की विजय की प्रवृत्ति को जगा कर रखने वाला उत्सव है। यह प्रत्येक बुराई से जीतने की प्रेरणा देता है। संभवत: यही कारण है कि भारतीय समाज समय-समय पर अनेक बुराइयों को निकाल बाहर करता है। विजयादशमी के दिन सरसंघचालक का जो उद्बोधन होता है, वह संघ के स्वयंसेवकों के लिए तो पाथेय का कार्य करता ही है, संघ की नीति और सामयिक मुद्दों पर उसकी दृष्टि को भी स्पष्ट करता है। इसलिए विजयादशमी का उद्बोधन विशेष महत्व रखता है। नागपुर में 18 अक्टूबर को विजयादशमी मनाई गई। मंच पर इस बार नोबल शांति पुरस्कार से सम्मानित सामाजिक कार्यकर्ता कैलाश सत्यार्थी बतौर मुख्य अतिथि उपस्थित थे। निश्चित ही संघ विरोधी अब कैलाश सत्यार्थी और उनके काम को निशाना बनाएंगे। खैर, महत्व की बात यह है कि कैलाश सत्यार्थी ने भी अपने उद्बोधन में उन सब बातों को शामिल किया, जिन्हें संघ दोहराता आया है। उन्होंने संघ के प्रति विश्वास जताते हुए स्वयंसेवकों से स्वाभिमानी, संवेदनशील, समावेशी, सुरक्षित और स्वावलंबी भारत बनाने का आह्वान किया।

रविवार, 30 सितंबर 2018

तेलुगु मीडिया की विकास यात्रा पर महत्वपूर्ण सामग्री से भरपूर मीडिया विमर्श का "तेलुगु मीडिया विशेषांक"

भाषायी पत्रकारिता पर मीडिया विमर्श का एक और महत्वपूर्ण प्रयास
- लोकेन्द्र सिंह - 
पत्रकारिता एवं संचार क्षेत्र से जुड़े लोगों को मीडिया विमर्श के प्रत्येक अंक का बेसब्री से इंतजार रहता है। मीडिया विमर्श का प्रत्येक अंक न केवल अपने पाठकों एवं प्रबुद्ध वर्ग की कसौटी पर खरा उतरता है, बल्कि और अधिक अपेक्षाएं बढ़ा देता है। 12 वर्ष से यह क्रम जारी है। एक के बाद एक महत्वपूर्ण विशेषांक हमारे सामने आए हैं। इस सबके पीछे मीडिया विमर्श के कार्यकारी संपादक प्रो. संजय द्विवेदी हैं। 
          भारतीय भाषाओं में पत्रकारिता की समृद्ध विरासत और प्रयोगों को हिंदी जगत के सामने लाने का उल्लेखनीय कार्य भी मीडिया विमर्श के माध्यम से प्रो. संजय द्विवेदी ने अपने हाथों में संभाल रखा है। वह सबसे पहले उर्दू पत्रकारिता पर चर्चित विशेषांक लेकर आए। उसके बाद गुजराती पत्रकारिता पर एक उल्लेखनीय विशेषांक उपलब्ध कराया। अब नये विशेषांक के माध्यम से उन्होंने हिंदी मीडिया के जगत को तेलुगु मीडिया से परिचित कराने का प्रयत्न किया है। 
           हम सब जानते हैं कि तेलुगु भाषा का एक बड़ा परिवार है। तेलुगु भारत की प्राचीनतम भाषाओं में से एक है। भारत में तेलुगु बोलने वालों की संख्या 15 करोड़ से अधिक है। आंध्र प्रदेश और तेलंगाना के अलावा संपूर्ण भारत में तेलुगु भाषी रहते हैं। यही नहीं, भारत के बाहर भी तेलुगु बोलने वालों की बड़ी संख्या है। ऐसे में तेलुगु मीडिया को समझना और उसको जानना जरूरी हो जाता है। इस काम में मीडिया विमर्श का यह अंक बहुत ही सहयोगी और महत्वपूर्ण सिद्ध होगा। 
          तेलुगु मीडिया विशेषांक के अतिथि संपादक हैं- सी. जयशंकर बाबु, जिन्हें अकसर हम मीडिया विमर्श में पढ़ते रहे हैं। उन्होंने अपनी जिम्मेदारी का बखूबी निर्वाहन किया है। तेलगू मीडिया के विविध आयामों पर इस विशेषांक में सामग्री है। भारतीय भाषायी पत्रकारिता का जगत कितना वृहद और समृद्ध है, यह समझाने में मीडिया विमर्श की यह श्रृंखला साधुवाद की पात्र है। मीडिया विमर्श की यह श्रृंखला अनवरत चलती रहनी चाहिए... यही शुभकामनाएं हैं।  
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मीडिया विमर्श के "तेलुगु मीडिया विशेषांक" पर यूट्यूब चैनल "अपना वीडियो पार्क" में चर्चा देखिये.... 


सोमवार, 24 सितंबर 2018

सहिष्णुता और सादगी से प्रश्न करती ‘हम असहिष्णु लोग’

- सुदर्शन वीरेश्वर प्रसाद व्यास
‘हम असहिष्णु लोग’...यकीनन, पुस्तक के शीर्षक से यह तो पूर्व में ही आभास हो जाता है कि लेखक इस पुस्तक के पाठकों से प्रत्यक्ष संवाद के साथ ही एक अप्रत्यक्ष संवाद उन लोगों से भी करना चाहते हैं जो एक विचारधारा (वर्ग) विशेष के प्रति ‘असहिष्णु’ शब्द की रट लगाए बैठे हैं। हालांकि, पुस्तक चर्चा से पूर्व हमें यह अच्छी तरह से जान लेना चाहिए कि असल में इस ‘असहिष्णु’ शब्द के मायने क्या हैं? देशभर के ख्यातिलब्ध विद्वानों ने इस शब्द को अपने हिसाब से विभिन्न परिभाषाओं में गढ़ा है, किसी का मानना है कि दूसरे धर्म या विचार से असहमति ही असहिष्णुता है, कोई कहता है कि अनायास क्रोधित होकर तेश में आना असहिष्णुता है, किसी का मानना है दूसरों की आवाज़ दबाकर अपनी आवाज़ बुलन्द करना असहिष्णुता है तो किसी का मानना है कि जो पसन्द न हो, उसे बर्दाश्त करना असहिष्णुता है। सरल शब्दों में कहा जाए तो जो व्यक्ति को निजी तौर पर पसंद ना हो, उसके खिलाफ जाना या उसे बर्दाश्त ना कर पाना असहिष्णुता है। इसके अतिरिक्त किसी के विचारों से सहमत न हो पाना तथा बिना किसी कारण के उनकी काट करना (सिरे से नकारना) असहिष्णुता का प्रतीक है। या कहें कि उसे सहन ना करना, जो अपने से भिन्न हो, फिर चाहे वह धार्मिक हो, सांस्कृतिक हो, नस्लीय हो या किसी अन्य प्रकार से भिन्न हो, उसे बर्दाश्त ना करना असहिष्णुता कहलाती है। असहिष्णुता को अंग्रेजी में इनटॉलरेंस (Intolerance) कहा जाता है।

रविवार, 23 सितंबर 2018

हैरतंगेज और रोमांचक नृत्य भवई

- लोकेन्द्र सिंह
भवई, राजस्थान के पारंपरिक लोक नृत्यों में से एक है। यह नृत्य बहुत कठिन है। हैरतंगेज और अत्यंत रोमांचक भी। जब नर्तकियां भवई की प्रस्तुति देती हैं, तो लोग दाँतों तले अंगुलियां दबा कर उनकी प्रस्तुति देखते हैं। भवई नृत्य के लिए लंबी नृत्य साधना की आवश्यकता होती है। कुशल कलाकार ही इस नृत्य की प्रस्तुति दे सकते हैं। भवई नृत्य में नर्तकियां अपने सिर पर 7 से 8 घड़े एक के ऊपर एक रखकर संतुलन बनाते हुए नाचती हैं। उसके बाद इस नृत्य को और अधिक रोमांचक बनाने के लिए यह नर्तकियां सिर पर घड़े रख कर काँच या अन्य धातु के गिलास पर पैर रखकर नाचती हैं। दर्शक सबसे अधिक हैरत में तब पड़ जाते हैं, जब यह कुशल नर्तकियां नंगी तलवारों के ऊपर चढ़ कर नाचती हैं। 
          मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में 11-12 अगस्त, 2018 को आयोजित 'यंग थिंकर्स कॉन्क्लेव' में राजस्थानी कलाकारों की भवई नृत्य की एक प्रस्तुति दी। उस शानदार प्रस्तुति की छोटी-सी वीडियो क्लिप की लिंक यहाँ दी हुई है। उस लिंक पर क्लिक करके आप भी रोमांचित करने वाले भवई नृत्य का आनंद ले सकते हैं। उल्लेखनीय है कि भवई नृत्य में पुरुष संगीतकार नर्तकियों के लिए पृष्ठभूमि संगीत बजाता है। संगीत के लिए कई यंत्र जैसे पखावज, ढोलक, झांझर, सारंगी और हार्मोनियम बजाए जाते हैं। आमतौर पर इसके साथ ही मधुर राजस्थानी लोक गीत भी संगीतकारों द्वारा गाया जाता है। नर्तकियों सहित सभी कलाकार राजस्थान के पारंपरिक रंगीन और सुंदर कपड़े पहनते हैं। 
          यह रहा भवई नृत्य का लिंक। 

शनिवार, 22 सितंबर 2018

समाधानमूलक प्रश्नोत्तरी

भविष्य का भारत : राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का दृष्टिकोण
- लोकेन्द्र सिंह
सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने 'भविष्य का भारत : राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का दृष्टिकोण' व्याख्यान माला में अंतिम दिन अभ्यागतों के प्रश्नों के उत्तर दिए। प्रश्न वही थे, जो हमेशा संघ से पूछे जाते हैं किंतु इस बार यह प्रश्न अधिक महत्वपूर्ण थे क्योंकि उनको समाधानमूलक उत्तरों ने पूर्ण कर दिया। संघ ने 'सनातन प्रश्नों' के उत्तर अधिकृत एवं सर्वोच्च पदाधिकारी के माध्यम से संपूर्ण समाज के सम्मुख रख दिए हैं। भले ही कोई उनसे सहमत हो या असहमत, किंतु अब कम से कम अनेक प्रश्नों पर संघ का अधिकृत पक्ष तो सार्वजनिक हो गया है। हालाँकि अनेक प्रश्नों के उत्तर संघ पूर्व में भी अपने कार्य-व्यवहार, अधिकृत वक्तव्यों एवं प्रस्तावों के माध्यम से समाज के सामने रख चुका है। कुल मिलाकर इस बौद्धिक यज्ञ की पूर्णाहुति लोक-विमर्श और लोक-व्यवहार को दिशा देने वाली रही। व्याख्यानमाला में शामिल अभ्यागतों के 215 प्रश्नों के उत्तर सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने दिए। तीसरे दिन के आयोजन को कुछ नाम देना हो तो 'समाधानमूलक प्रश्नोत्तरी' दिया जा सकता है।

गुरुवार, 20 सितंबर 2018

हिंदुत्व का अर्थ

भविष्य का भारत : राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का दृष्टिकोण-3
- लोकेन्द्र सिंह 
सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने 'भविष्य का भारत : राष्ट्रीय स्वयंसवेक संघ का दृष्टिकोण' में हिंदुत्व पर बहुत ही महत्वपूर्ण विचार देश के सामने रखे हैं। उनके विचार हिंदुत्व की भारतीय संकल्पना को पूर्ण रूप से स्पष्ट करते हैं। 'हिंदुत्व' गाहे-बगाहे बौद्धिक और राजनीतिक जगत में चर्चा का विषय बना रहता है। दुर्भाग्य से भारत में कुछ ऐसी ताकतें हैं, जो भारतीय अवधारणाओं के प्रति सामान्य जन के मन में घृणा उत्पन्न करने का प्रयास करती रहती हैं। राष्ट्रवाद और हिंदुत्व ऐसे ही शब्द हैं, जिनको लेकर भारत विरोधी विचार से प्रेरित लोग सदैव नकारात्मक ढंग से बात करते हैं। हिंदुओं की नाराजगी से बचने के लिए आजकल उन्होंने 'हिंदुत्व' पर रणनीति बदल ली है। अब वह दो हिंदुत्व बताते हैं- कट्टर हिंदुत्व और सॉफ्ट हिंदुत्व। हिंदुत्व को श्रेणीबद्ध करते समय वह आगे कहते हैं कि आरएसएस का हिंदुत्व कट्टर है। हिंदुत्व को बदनाम करने के लिए चलने वाले इस षड्यंत्र के मुकाबले सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने बहुत ही सहजता से हिंदुत्व के विराट, उदार, सहिष्णु स्वरूप के दर्शन सबको कराए हैं। उन्होंने सकारात्मक ढंग से अपना विचार रखा।

बुधवार, 19 सितंबर 2018

संघ एक परिचय

'भविष्य का भारत: राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का दृष्टिकोण' - 2 
- लोकेन्द्र सिंह
संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने 'भविष्य का भारत : राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का दृष्टिकोण' विषय पर पहले दिन के व्याख्यान में संघ का परिचय प्रस्तुत किया। संघ की विकास यात्रा को देश-दुनिया के महानुभावों के सम्मुख रखा। सहज संवाद में अनेक प्रश्नों के उत्तर दिए। सबसे महत्वपूर्ण बात अपने संबोधन के प्रारंभ में उन्होंने कही- 'मैं यहां आपको सहमत करने नहीं आया, बल्कि संघ के बारे में वस्तुस्थिति बताने आया हूं।' यह कहते हुए उन्होंने बताया कि आप संघ के संबंध में अपना विचार बनाने के लिए स्वतंत्र हैं। लेकिन, संघ के संबंध में वस्तुस्थिति जानकार आप अपना मत रखेंगे तो अच्छा होगा। उनका यह कहना इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि ज्यादातर लोग संघ के संबंध में टिप्पणी तो करते हैं किंतु उसके संबंध में बुनियादी जानकारी भी नहीं रखते हैं। इस संबंध में उत्तरप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री एवं समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव का हालिया वक्तव्य उदाहरण के तौर पर लिया जा सकता है। व्याख्यानमाला का आमंत्रण मिलने पर उन्होंने कहा कि वह संघ के बारे में अधिक नहीं जानते हैं। स्वयं उन्होंने स्वीकारा कि वह संघ के संबंध में अधिक नहीं जानते, इसके बाद भी वह आगे कहते हैं कि वह इस आयोजन में नहीं जाएंगे, क्योंकि संघ पर सरदार वल्लभ भाई पटेल ने प्रतिबंध लगाया था और जिन कारणों से प्रतिबंध लगाया गया था, वह कारण अभी तक समाप्त नहीं हुए हैं। यह एकमात्र उदाहरण नहीं है। देश के ज्यादातर राजनेता एवं अन्य लोग संघ के संबंध में जानकारी रखते नहीं है, इसके बाद भी संघ पर अनर्गल टिप्पणी करते हैं।

सोमवार, 17 सितंबर 2018

संघ की पहल

'भविष्य का भारत : राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का दृष्टिकोण' - 1
- लोकेन्द्र सिंह 
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तीन दिवसीय व्याख्यानमाला कार्यक्रम पर सबकी नजर है। देश में भी और देश के बाहर भी। सब जानना चाहते हैं कि दुनिया का सबसे बड़ा सांस्कृतिक संगठन आरएसएस ‘भविष्य का भारत’ को किस तरह देखता है? संघ का ‘भारत का विचार’ क्या है? दरअसल, यह उत्सुकता इसलिए भी है क्योंकि पिछले 93 वर्षों में कुछेक राजनीतिक/वैचारिक खेमों से संबद्ध राजनेताओं, लेखकों, पत्रकारों, कलाकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को लेकर अनेक मिथक गढ़ दिए हैं। किंतु, संघ सब प्रकार के दुष्प्रचारों की चिंता न करते हुए समाज के बीच कार्य करता रहा और तमाम आरोपों का उत्तर अपने आचरण/कार्य से देता रहा। परिणामस्वरूप आज संघ का विस्तार ‘दशों दिशाओं...’ में हो गया है। उसके निष्ठावान स्वयंसेवक सबदूर ‘दल बादल...’ से छा गए हैं। इसके बावजूद व्यापक स्तर पर किए गए दुष्प्रचार के कारण समाज के कुछ हिस्सों में संघ को लेकर स्पष्टता नहीं है। एक विश्वास व्यक्त किया जा रहा है कि इस महत्वपूर्ण आयोजन से बहुत हद तक भ्रम और मिथक के बादल छंट जाएंगे।

रविवार, 16 सितंबर 2018

नर्मदा के तट पर हुई सांख्य दर्शन की रचना

भारतीय संस्कृति के प्रमुख दर्शनों में से एक है- "सांख्य दर्शन"। महाभारतकार वेद व्यास ने कहा है कि "ज्ञानं च लोके यदिहास्ति किंचित् सांख्यागतं तच्च महन्महात्मन्" (शांति पर्व 301.109)।  इसका अर्थ है- इस संसार में जो कुछ भी ज्ञान है, सब सांख्य से आया है। शान्ति पर्व के कई स्थलों पर सांख्य दर्शन के विचारों का बड़े काव्यमय और रोचक ढंग से उल्लेख किया गया है। 
       इस महत्वपूर्ण ग्रन्थ की रचना अमरकंटक में नर्मदा तट के किनारे पर कपिल मुनि ने की है। कपिल मुनि और सांख्य दर्शन से जुड़े उस स्थान को देखने के लिए यह वीडियो देखें...  


आग्रह : यूट्यूब चैनल "अपना वीडियो पार्क" को सब्सक्राइब अवश्य करें। लाइक, कमेंट और शेयर करने में संकोच न करें... नर्मदे हर 

शनिवार, 15 सितंबर 2018

‘हिन्दीपन’ से मिलेगा हिंदी को सम्मान


- लोकेन्द्र सिंह 
भाषा केवल अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं है। बल्कि, इससे इतर भी बहुत कुछ है। भाषा की अपनी पहचान है और उस पहचान से उसे बोलने वाले की पहचान भी जुड़ी होती है। यही नहीं, सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि प्रत्येक भाषा का अपना संस्कार होता है। प्रत्येक व्यक्ति या समाज पर उसकी मातृभाषा का संस्कार देखने को मिलता है। जैसे हिन्दी भाषी किसी श्रेष्ठ, अपने से बड़ी आयु या फिर सम्मानित व्यक्ति से मिलता है तो उसके प्रति आदर व्यक्त करने के लिए 'नमस्ते' या 'नमस्कार' बोलता है या फिर चरणस्पर्श करता है। 'नमस्ते' या 'नमस्कार' बोलने में हाथ स्वयं ही जुड़ जाते हैं। यह हिन्दी भाषा में अभिवादन का संस्कार है। अंग्रेजी या अन्य भाषा में अभिवादन करते समय उसके संस्कार और परंपरा परिलक्षित होगी। इस छोटे से उदाहरण से हम समझ सकते हैं कि कोई भी भाषा अपने साथ अपनी परंपरा और संस्कार लेकर चलती है। किसी भी देश की पहचान उसकी संस्कृति से होती है। संस्कृति क्या है? हमारे पूर्वजों ने विचार और कर्म के क्षेत्र में जो भी श्रेष्ठ किया है, उसी धरोहर का नाम संस्कृति है। यानी हमारे पूर्वजों ने हमें जो संस्कार दिए और जो परंपराएं उन्होंने आगे बढ़ाई हैं, वे संस्कृति हैं। किसी भी देश की संस्कृति उसकी भाषा के जरिए ही जीवित रहती है, आगे बढ़ती है। जिस किसी देश की भाषा खत्म हो जाती है तब उस देश की संस्कृति का कोई नामलेवा तक नहीं बचता है। यानी संस्कृति भाषा पर टिकी हुई है।

बुधवार, 29 अगस्त 2018

सिख विरोधी दंगा : जब एक व्यक्ति के अपराध का बदला पूरे समुदाय से लिया गया


- लोकेन्द्र सिंह 
कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने 1984 के सिख विरोधी दंगों पर गलत बयानी कर अपने लिए और अपनी पार्टी के लिए नया संकट खड़ा कर लिया है। राहुल गांधी ने उन पीडि़त परिवारों के जख्म भी हरे कर दिए हैं, जिन्होंने उन दंगों में अपनों को खोया था। इतिहास में ऐसा उदाहरण शायद ही कोई दूसरा मिले, जब एक सिर-फिरे व्यक्ति के अपराध की कीमत एक संप्रदाय से वसूली गई। यूरोप में घूम-घूम कर भारत और भारतीयता के संदर्भ में गलत बयानी कर रहे राहुल गांधी ने बहुत ही आसानी से कह दिया कि 1984 के सिख विरोधी दंगों में कांग्रेस की कोई भूमिका नहीं है। जबकि उनके पिताजी राजीव गांधी ने खुले मंच से 19 नवंबर, 1984 को अप्रत्यक्ष रूप से दंगों में कांग्रेस की भूमिका को स्वीकार करते हुए कहा था- 'जब भी कोई बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती थोड़ी हिलती है।' राजीव गांधी के इस बयान का अभिप्राय अपनी पार्टी के नेताओं द्वारा किए गए सिख बंधुओं के कत्लेआम को सामान्य की प्रतिक्रिया बता कर मामले को रफा-दफा करने से था।

सोमवार, 27 अगस्त 2018

भ्रम के जाले हटाएं राहुल गांधी

- लोकेन्द्र सिंह 
कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को उनके किसी सलाहकार ने भ्रमित कर दिया है। जिसके कारण वह समझ नहीं पा रहे हैं कि राजनीति के मैदान में उन्हें भारतीय जनता पार्टी से मुकाबला करना है या फिर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से। अपने इस भ्रम के कारण वह उस संगठन का प्रचार-प्रसार करते रहते हैं, जो प्रसिद्धपरांगमुखता का पालन करते हुए सामाजिक कार्य में संलग्न है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर बार-बार अनर्गल टिप्पणी करने से न तो राहुल गांधी को कोई लाभ होने वाला है और न कांग्रेस के खाते में राजनीतिक लाभ आएगा। संघ समाज के बीच में काम करता है। इसलिए आमजन संघ को भली प्रकार जानते और समझते हैं। उसके प्रति घृणा और नफरत पैदा करने के कांग्रेस के सब प्रयत्न विफल होना तय है। वैसे भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर झूठा आरोप लगाने के एक मामले में राहुल गांधी न्यायालय के चक्कर काट रहे हैं।

रविवार, 26 अगस्त 2018

भारत, भारतीयता और भारत के देशभक्त नागरिकों के प्रति नकारात्मक विचार


- लोकेन्द्र सिंह 
कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने एक बार फिर अपनी अपरिपक्वता जाहिर की है। यूरोप के दौरे के दौरान विदेशी जमीन पर उन्होंने जिस प्रकार के विचार प्रकट किए हैं, उससे भारत और भारतीय संस्कृति के प्रति उनके दृष्टिकोण का पता भी चलता है। इससे पहले भी वह अमेरिका में कह चुके हैं कि भारत को इस्लामिक आतंकी समूहों से नहीं, बल्कि 'हिंदू आतंकवाद' से अधिक खतरा है। पहले उन्होंने भारत के हिंदू समाज और हिंदू संस्कृति की छवि को धूमिल किया और अब भारत के मुस्लिम, अनुसूचित जाति-जनजाति और गरीब वर्ग को बदनाम करने का प्रयास किया है। जर्मनी के हैम्बर्ग में विद्यार्थियों से बात करते हुए उन्होंने आतंकवाद को गरीबी से जोड़कर एक तरह से आतंकी संगठनों के पैरोकार की भूमिका का निर्वहन किया है। क्या उनके इस तर्क से सहमत हुआ जा सकता है कि गरीबी और बेरोजगारी के कारण आईएसआईएस जैसे आतंकी समूह निर्मित होते हैं? उन्होंने कहा  कि अगर दलित और अल्सपसंख्यक जैसे समुदायों की विकास की दौड़ में अनदेखी हुई तो देश में आईएस की तरह आतंकवादी समूह बन सकते हैं? इस कथन का क्या आशय निकाला जाए? आतंकवाद जैसी वैश्विक समस्या पर यह किस स्तर का चिंतन है? भारत से लेकर दुनिया में जहाँ भी आतंकी घटनाएं हो रही हैं, उसके पीछे क्या वास्तव में गरीबी है? आईएसआईएस के जो उद्देश्य हैं, उसमें क्या गरीबी उन्मूलन शामिल है? कोई भी आतंकी समूह देश-दुनिया से गरीबी को समाप्त करने के लिए उद्देश्य से काम नहीं कर रहा है। आखिर किस तरह के अध्ययन के आधार पर राहुल गांधी ने यह विचार रखा है?

शुक्रवार, 24 अगस्त 2018

यहाँ का कंकर-कंकर शंकर है

नर्मदा नदी के जल में पाए जाने वाले शिव लिंग का बहुत महत्व है। शास्त्रों में नर्मदा में पाए जाने वाले "शिवलिंग" को नर्मदेश्वर और बाणलिंग भी कहा गया है। इन शिवलिंग की प्राण प्रतिष्ठा की आवश्यकता नहीं होती है। जानिये क्यों है नर्मदा जल में पाए जाने वाले शिव लिंग का इतना महत्व - 


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शनिवार, 18 अगस्त 2018

अटल कभी मरते नहीं

- लोकेन्द्र सिंह 

'हिंदू तन-मन, हिंदू जीवन, रग-रग हिंदू मेरा परिचय'
पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के साथ राजनीति के एक युग का अवसान हो गया है। यह युग भारतीय राजनीति के इतिहास के पन्नों पर अमिट स्याही से दर्ज हो गया है। भारत के लोकतांत्रिक मूल्यों, आदर्शों और सिद्धांतों को जानने के लिए अटल अध्याय से होकर गुजरना ही होगा। अटल युग की चर्चा और अध्ययन के बिना भारतीय राजनीति को पूरी तरह समझना किसी के लिए भी मुश्किल होगा। उन्होंने भारतीय राजनीति को एक दिशा दी। उन्होंने वह कर दिखाया, जिसकी कल्पना भी कठिन थी। उस भारतीय जनता पार्टी को पहले मुख्य विपक्षी दल बनाया और बाद में सत्ता के शिखर पर पहुँचाया, जिसके साथ लंबे समय तक 'अछूत' की तरह व्यवहार किया गया। उन्होंने भाजपा के साथ अनेक राजनीतिक दलों को एकसाथ एक मंच पर लाकर सही अर्थों में 'गठबंधन' के सिद्धांत का प्रतिपादन किया। अपने सिद्धांतों पर अटल रहकर भी कैसे सबको साथ लेकर चला जाता है, यह दिवंगत वाजपेयी जी के राजनीतिक जीवन से सीखना होगा।

सोमवार, 13 अगस्त 2018

देहरी छूटी, घर छूटा


कविता का भरपूर आनंद लेने के लिए यूट्यूब चैनल "apna video park" पर अवश्य जाएँ...  आग्रह है कि चैनल को सब्सक्राइब भी करें, नि:शुल्क है)
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काम-धंधे की तलाश में
देहरी छूटी, घर छूटा
गलियां छूटी, चौपाल छूटा
छूट गया अपना प्यारा गांव
मिली नौकरी इक बनिया की
सुबह से लेकर शाम तक
रगड़म-पट्टी, रगड़म-पट्टी
बन गया गधा धोबी राम का।

आ गया शहर की चिल्ल-पों में
शांति छूटी, सुकून छूटा
सांझ छूटी, सकाल छूटा
छूट गया मुर्गे की बांग पर उठना
मिली चख-चख चिल्ला-चौंट
ऑफिस से लेकर घर के द्वार तक
बॉस की चें-चें, वाहनों की पों-पों
कान पक गया अपने राम का।

सीमेन्ट-कांक्रीट से खड़े होते शहर में
माटी छूटी, खेत छूटा
नदी छूटी, ताल छूटा
छूट गया नीम की छांव का अहसास
मिला फ्लैट ऊंची इमारत में
आंगन अपना न छत अपनी
पैकबंद, चकमुंद दिनभर
बन गया कैदी बाजार की चाल का।
- लोकेन्द्र सिंह -
(काव्य संग्रह "मैं भारत हूँ" से)

रविवार, 5 अगस्त 2018

दोस्ती क्या है?


दोस्ती क्या है? 
उसे कुछ यूं समझें...
वह पहला रिश्ता है 
रक्त संबंधों से इतर
लेकिन, उतना ही या 
शायद उनसे अधिक गहरा।

दोस्ती क्या है? 
उसे कुछ यूं समझें...
पहली बारिश के बाद
भुरभुरी मिट्टी से उठी
सौंधी सुगंध-सा या
शायद उससे भी ऊंचा अहसास।

दोस्ती क्या है? 
उसे कुछ यूं समझें...
सूरज के डूबने के बाद
धरा पर अंधेरे से लड़ती
दीपक की ज्योति-सा या
शायद उससे भी तेज प्रकाश।

दोस्ती क्या है?
उसे कुछ यूं समझें...
वह एकमात्र तिजोरी है
उसके दिल में राज हमारा
सुरक्षा की पूरी गारंटी या
शायद उससे भी पक्का विश्वास।
- लोकेन्द्र सिंह -
(काव्य संग्रह "मैं भारत हूँ" से)
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इस कविता का आनंद मराठी में भी ले सकते हैं... मराठी में अनुवाद किया है, आपला यश की संपादक अपर्णा पाटिल जी ने और उसे बोल दिए हैं अनिल वल्संगकर जी ने 

सोमवार, 30 जुलाई 2018

सेकुलर-लिबरल साहित्यकारों की असहिष्णुता को उजागर करती एक पुस्तक ‘हम असहिष्णु लोग’


- विनय कुशवाहा 
“आप तो मां सरस्वती के पुत्र हो, तर्क के आधार पर सरकार को कठघरे में खड़े कीजिए। वरना समाज तो यही कहेगा कि आप साहित्य को राजनीति में घसीट रहे हैं।“ इन्हीं तथ्यपरक बातों के साथ देश में फैली अराजकता पर कटाक्ष करती एक पुस्तक 'हम असहिष्णु लोग'। अर्चना प्रकाशन द्वारा प्रकाशित यह पुस्तक लोकेन्द्र सिंह ने लिखी है। यह पुस्तक असहिष्णुता के नाम पर देश में हो रहे कथित आंदोलनों और मुहिमों की ईमानदारी से पड़ताल करती है और उनके दूसरे पक्ष को उजागर करती है। लेखक ने विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित अपने लेखों के संग्रह को एक पुस्तक की शक्ल दी है।

रविवार, 29 जुलाई 2018

चिंतनशील युवाओं को जोड़ने का प्रयास है "यंग थिंकर्स कॉन्क्लेव"


- लोकेन्द्र सिंह
भारत आज दुनिया का सबसे युवा देश है। भारत के पास युवा ऊर्जा का भंडार है। लेकिन विचारणीय प्रश्न यह है कि हम अपनी इस ऊर्जा को किस तरह देखते हैं। दुनिया तो मान रही है कि भारत आने वाली सदी का राजा है। उसका भविष्य स्वर्णिम है। उसका ऐसा मानने के पीछे हमारे देश की युवा जनसंख्या है, जो लगभग 60 प्रतिशत है। हमारी युवा पीढ़ी को यह विचार करना चाहिए कि क्या वास्तव में वह देश के लिए ताकत है? इसका मूल्यांकन स्वयं भारत के युवाओं को करना चाहिए। यदि युवा का समर्पण उसके देश के प्रति नहीं होगा, उसके विचार में, उसके चिंतन में, उसके कर्म में, राष्ट्र पहले नहीं होगा; तब क्या ऐसा युवा भारत की ताकत बन सकता है? आज देश जो सपना देख रहा है, उसे पूरा करने की सबसे बड़ी जिम्मेदारी युवाओं के कंधे पर है।

मंगलवार, 17 जुलाई 2018

हामिद अंसारी का शरीयत और जिन्ना प्रेम

- लोकेन्द्र सिंह 
पूर्व उपराष्ट्रपति और कांग्रेस के मुस्लिम नेता हामिद अंसारी एक बार फिर अपनी संकीर्ण सोच के कारण विवादों में हैं। कबीलाई समय के शरीयत कानून और भारत विभाजन के गुनहगार मोहम्मद अली जिन्ना के संदर्भ में उनके विचार आश्चर्यजनक हैं। यह भरोसा करना मुश्किल हो जाता है कि हामिद अंसारी कभी दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश भारत के उपराष्ट्रपति रहे हैं। किंतु, यह सच है। समय-समय पर उनके विचार जान कर यह सच ही प्रतीत होता है कि पूर्व उपराष्ट्रपति को भारत के संविधान और कानून व्यवस्था में भरोसा नहीं है। वह मुस्लिम समाज को मुख्यधारा में शामिल होने के लिए प्रोत्साहित करने की जगह उनके लिए आधुनिक समय में आदम युग का कानून चाहते हैं। वह देश के प्रत्येक जिले में ऐसी शरिया अदालतों की स्थापना के पक्षधर हैं, जिनमें महिलाओं के लिए न्याय की कोई व्यवस्था नहीं है। शरिया अदालतों पर हामिद अंसारी के वक्तव्य से यह क्यों नहीं समझा जाए कि उन्हें भारत के आम मुसलमानों के मन में भारत की न्याय व्यवस्था के प्रति संदेह उत्पन्न करना चाहते हैं। शरिया कानून के साथ ही मोहम्मद अली जिन्ना के प्रति प्रेम भी संविधान के प्रति हामिद अंसारी की निष्ठा को संदिग्ध बनाता है।

रविवार, 15 जुलाई 2018

कांग्रेस से छूट नहीं पा रही हिंदू विरोध और मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति


- लोकेन्द्र सिंह 
कोई भी व्यक्ति या संगठन बनावटी व्यवहार अधिक दिन तक नहीं कर सकता है। क्योंकि, उसका डीएनए इसकी अनुमति नहीं देता है। यदि स्वभाव के विपरीत चलने का प्रयास किया जाए तो अंतर्मन में बनावटी एवं वास्तविक आचरण में एक प्रकार का संघर्ष प्रारंभ हो जाता है। कांग्रेस के साथ भी यही हो रहा है। अपने कथित सेकुलर (मुस्लिम तुष्टीकरण और हिंदुओं की उपेक्षा) के कारण ही कांग्रेस कथित 'सॉफ्ट हिंदुत्व' (सुविधाजनक हिंदू समर्थन) की राह पर चलने में असहज है। कांग्रेस के शीर्ष नेता अकसर ऐसे बयान दे देते हैं, जिससे सॉफ्ट हिंदुत्व की राह पर साध-साध कर रखे जा रहे उसके कदम डगमगा जाते हैं। या यह कहना उचित होगा कि कांग्रेस के नेता सुनियोजित ढंग से समय-समय पर अपने परंपरागत मुस्लिम वोटबैंक को यह भरोसा दिलाते रहते हैं कि उसका 'सॉफ्ट हिंदुत्व' सिर्फ भ्रम है, वास्तविकता में कांग्रेस मुस्लिम तुष्टीकरण पर ही दृढ़ता से टिकी हुई है। मुस्लिम समुदाय कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की मंदिर यात्राओं से खिन्न न हो जाए, इसलिए उसे भरोसे में बनाए रखने के लिए कांग्रेस ने पी. चिदंबरम, दिग्विजय सिंह, मणिशंकर अय्यर, सैफुद्दीन सोज, सुशील कुमार शिंदे, सलमान खुर्शीद और पूर्व उप-राष्ट्रपति हामिद अंसारी को यह जिम्मेदारी दे रखी है। अब इस सूची में शशि थरूर का नया नाम और जुड़ गया है।

कठघरे में चर्च से संचालित संस्थाएं


- लोकेन्द्र सिंह 
भारत में ईसाई मिशनरीज संस्थाएं सेवा की आड़ में किस खेल में लगी हैं, अब यह स्पष्ट रूप से सामने आ गया है। वेटिकन सिटी से संत की उपाधि प्राप्त 'मदर टेरेसा' द्वारा कोलकाता में स्थापित 'मिशनरीज ऑफ चैरिटी' की संलिप्तता मानव तस्करी में पाई गई है। बच्चे चोरी करना और उन्हें बाहर बेचने जैसे अपराध में ये संस्थाएं घिनौने स्तर तक गिर चुकी हैं। दुष्कर्म पीडि़त युवतियों की कोख को भी ईसाई कार्यकर्ताओं/ननों ने बेचा है। यह अमानवीयता है। ईसाई मिशनरीज के अपराधों का पहली बार खुलासा नहीं हुआ है। सेवा की आड़ में सुदूर वनवासी क्षेत्रों से लेकर शहरों में सक्रिय ईसाई संस्थाओं पर धर्मांतरण और चर्च में महिलाओं के उत्पीडऩ के आरोप पहले भी सिद्ध होते रहे हैं। अभी हाल ही में केरल और अन्य राज्यों से समाचार आये हैं कि वहां के चर्च में पादरियों ने महिला कार्यकर्ताओं का शारीरिक शोषण किया है। झारखंड के खूंटी जिले में समाज जागरण के लिए नुक्कड़ नाटक करने वाले समूह की पांच युवतियों के साथ सामूहिक बलात्कार की घटना में भी चर्च की भूमिका सामने आई है। खूंटी सामूहिक बलात्कार प्रकरण नक्सली-माओवादी और चर्च के खतरनाक गठजोड़ को भी उजागर करता है।

रविवार, 8 जुलाई 2018

पहली बारिश की सौंधी सुगंध-सी हैं 'रिश्तों की बूंदें'


- लोकेन्द्र सिंह 
कवि के कोमल अंतस् से निकलती हैं कविताएं। इसलिए कविताओं में यह शक्ति होती है कि वह पढऩे-सुनने वाले से हृदय में बिना अवरोध उतर जाती हैं। कवि के हृदय से पाठक-श्रोता के हृदय तक की यात्रा पूर्ण करना ही मेरी दृष्टि में श्रेष्ठ काव्य की पहचान है। युवा कवि सुदर्शन व्यास के प्रथम काव्य संग्रह 'रिश्तों की बूंदें' में ऐसी ही निर्मल एवं सरल कविताएं हैं। उनकी कविताओं में युवा हृदय की धड़कन है, रक्त में ज्वार है, भावनाओं में संवेदनाएं हैं। सुदर्शन की कविताओं में अपने समाज के प्रति चेतना है, सरोकार है और सकारात्मक दृष्टिकोण है। उनकी कविताओं में दायित्वबोध भी स्पष्ट दिखता है। उनकी तमाम कविताओं में रिश्तों की सौंधी सुगंध उसी तरह व्याप्त है, जैसे कि पहली बारिश की बूंदें धरती को छूती हैं, तब उठती है- सौंधी सुगंध। उनके इस काव्य संग्रह की प्रतिनिधि कविता 'रिश्तों की बूंदें' के साथ ही 'अनमोल रिश्ते' और 'मुंह बोले रिश्ते' सहित अन्य कविताओं में भी रिश्तों गर्माहट को महसूस किया जा सकता है। कुल जमा एक सौ साठ पन्नों में समृद्ध सुदर्शन का काव्य संग्रह चार हिस्सों में विभक्त है। पहले हिस्से में श्रृंगार से ओत-प्रोत कविताएं हैं, दूसरे हिस्से में सामाजिक संदेश देती कविताएं शामिल हैं। वहीं, तीसरे और चौथे हिस्से में गीत और गज़ल को शामिल किया गया है। काव्य के व्याकरण की कसौटी पर यह कविताएं कितनी खरी उतरती हैं, वह आलोचक तय करेंगे, लेकिन भाव की कसौटी पर कविताएं चौबीस कैरेट खरी हैं। कविताओं में भाव का प्रवाह ऐसा है कि पढऩे-सुनने वाला स्वत: ही उनके साथ बहता है। सुदर्शन की कविताओं पर किसी प्रकार की 'बन्दिशें' नहीं हैं। उन्होंने लिखा भी है- 'बन्दिशें भाषा की होती हैं/ एहसासों की नहीं। बन्दिशें होती हैं शब्दों में/ भावनाओं में नहीं।' उनकी पहली कृति में एहसास/भाव बिना किसी बन्दिश के अविरल बहे हैं, सदानीरा की तरह।

गुरुवार, 5 जुलाई 2018

‘सबको शिक्षा-अच्छी शिक्षा’ की ओर बढ़ते कदम

भारत सरकार के प्रकाशन विभाग की पत्रिका 'योजना' के जुलाई-2018 के अंक में प्रकाशित

- जगदीश उपासने एवं लोकेन्द्र सिंह 

किसी भी राष्ट्र की पहचान उसके मानव संसाधन से बनती है। जबकि श्रेष्ठ मानव संसाधन शिक्षा व्यवस्था पर निर्भर करता है। एक सामान्य किंतु महत्वपूर्ण बात सभी जानते हैं कि किसी भी राष्ट्र की प्रगति वहाँ के नागरिकों पर निर्भर करती है। गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्राप्त किए हुए नागरिक ही अपने देश की प्रगति में सहयोग कर सकते हैं। शिक्षित नागरिक ही अपने देश को प्रगति के पथ पर आगे ले जाने में सक्षम होते हैं। स्वामी विवेकानंद ने शिक्षा के महत्व को समझाते हुए यहाँ तक कहा है कि 'यदि शिक्षा से सम्पन्न राष्ट्र होता तो आज हम पराभूत मन:स्थिति में न आए होते।' भारत में स्वामी विवेकानंद ऐसे संन्यासी हुए जिन्होंने नागरिकों को शिक्षित बनाने पर सर्वाधिक जोर दिया। भारत जैसे विविधता सम्पन्न और विशाल देश में अब भी शिक्षा सब तक नहीं पहुँच सकी है। अनेक स्थानों पर शिक्षा के उपक्रम प्रारंभ तो हो गए किंतु उसमें गुणवत्ता नहीं है। दूसरी सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि भारत की शिक्षा व्यवस्था में भारतीय दृष्टिकोण ही नदारद है। यही कारण है कि केंद्र सरकार ने अपने पहले साल से ही शिक्षा में गुणात्मक एवं भारतीय दृष्टिकोण के अनुसार सुधार का शुभ संकल्प ले लिया था। सरकार के संकल्प 'सबको शिक्षा-अच्छी शिक्षा' की पूर्ति के लिए मानव संसाधन विकास मंत्रालय योजनाबद्ध तरीके से निरंतर कार्य कर रहा है। पिछले चार वर्ष में स्कूली शिक्षा के साथ-साथ उच्च शिक्षा में भी महत्वपूर्ण आवश्यक कदम सरकार ने उठाए हैं। शिक्षा के दोनों स्तर पर जितने भी प्रयास हुए हैं, सराहनीय हैं।

बुधवार, 27 जून 2018

खूंटी सामूहिक बलात्कार के पीछे चर्च और नक्सलियों का खतरनाक गठजोड़

- लोकेन्द्र सिंह
झारखंड के खूंटी जिले में पाँच महिला सामाजिक कार्यकर्ताओं से सामूहिक बलात्कार और पुरुष कार्यकर्ताओं के साथ मारपीट एवं उन्हें पेशाब पिलाने का अत्यंत घृणित कृत्य सामने आया है। यह बहुत दु:खद और डरावनी घटना है। पीडि़त महिलाएं एवं पुरुष अनुसूचित जाति-जनजाति समाज से हैं। देश के विभिन्न हिस्सों में अनुसूचित जाति-जनजाति वर्ग के लोगों के साथ होने वाली मारपीट की घटनाओं एवं उनके शोषण पर जिस प्रकार आवाजें बुलंद होती हैं, उनसे एक उम्मीद जागती है कि वर्षों से शोषित इस समाज हो ताकत देने के लिए देशभर में एक वातावरण बन रहा है। सभी वर्गों के लोग पीडि़तों के साथ खड़े हैं। ऐसी स्थिति में खूंटी गैंगरेप और शोषण के मामले पर पसरा सन्नाटा खतरनाक लगता है। यह डराता है। देश का तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग और टीआरपी के लिए भूखे बैठे समाचार चैनल्स भी एक अजब-सी चुप्पी साधे हुए हैं। मानो हमारी संवेदनाओं पर भी अब राजनीति हावी हो गई है। अपराधी का धर्म देखकर अब विरोध के सुर का स्तर तय होता है। चूँकि इसमें शोषणकर्ता/आरोपी के वस्त्रों का रंग गेरुआ नहीं है, इसलिए रंगकर्मी भी 'शर्मिंदगी का बोर्ड' थाम कर फोटोसेशन नहीं करा रहे हैं। जबकि पाँचों लड़कियां और उनके साथी लड़के उनके कर्मक्षेत्र से ही आते हैं। पीडि़त रंगकर्मी हैं और वनवासी समाज को जागरूक करने के लिए नुक्कड़ नाटक करते हैं। कथित प्रबुद्ध वर्ग की यह प्रवृत्ति सभ्य समाज के लिए दु:खद ही नहीं, अपितु खतरनाक ही है। चूँकि इस अपराध में प्रगतिशील बुद्धिजीवियों के प्रिय कम्युनिस्ट-नक्सली और चर्च शामिल है, इसलिए वह अपना मुंह नहीं खोल पा रहे हैं। त्रिशूल को कॉन्डम पहनाने जैसी सृजनशीलता भी नहीं दिखा पा रहे हैं। यह घटना खतरनाक इसलिए भी है, क्योंकि इसके पीछे जो विचार है, वह बहुत ही वहशी है। अपने विरोधी को डराने और उसे चुप कराने के लिए लोग मारपीट करते हैं, धमकाते हैं, अधिकतम उसकी हत्या कर देते हैं। किंतु, यहाँ अपने विरोधियों को डराने/चुप कराने के लिए उनके साथ सामूहिक बलात्कार किया गया है। यानी लड़कियों के शरीर की नहीं, बल्कि उनकी आत्मा की हत्या करने का दुस्साहस किया गया है। विचार प्रक्रिया के सबसे निचले स्तर पर जाकर ही अपने विरोधी के प्रति ऐसा बर्ताब करने का ख्याल आता है। इस अपराध का मुख्य आरोपी उग्रवादी संगठन पीएलएफआई का नेता एवं पत्थलगड़ी का समर्थक जॉर्ज जोनास किडो है और मुख्य सहयोगी आरसी मिशन चर्च द्वारा कोचांग में संचालित स्टॉपमन मेमोरियल मिडिल स्कूल के प्रभारी सह सचिव फादर अल्फोंस आइंद को बताया जा रहा है। पीडि़तों की शिकायत पर इनके विरुद्ध प्राथमिकी दर्ज की गई है। 

मंगलवार, 26 जून 2018

आपातकाल : जब 'भारत माता की जय' कहना भी अपराध था

- लोकेन्द्र सिंह
सामाजिक कार्यकर्ता एवं सेवानिवृत्त शिक्षक श्री सुरेश चित्रांशी के हाथों में पुस्तक "हम असहिष्णु लोग"
आपातकाल भारतीय लोकतंत्र का काला अध्याय है। आपातकाल के दौरान नागरिक अधिकारों एवं स्वतंत्रता का हनन ही नहीं किया गया, अपितु वैचारिक प्रतिद्वंदी एवं जनसामान्य पर अमानवीय अत्याचार भी किए गए। आपातकाल के विरुद्ध आवाज उठाने वाले लोगों को पकड़ कर कठोर यातनाएं दी गईं। ब्रिटिश सरकार भी जिस प्रकार की यातनाएं स्वतंत्रता सेनानियों नहीं देती थी, उससे अधिक क्रूरता स्वतंत्र भारत में लोकतंत्र के सेनानियों के साथ बरती गई। आपातकाल पर लिखी गई किताबों और प्रसंगों को पढ़कर उस कालखंड की भयावहता को समझा जा सकता है। आपातकाल का दर्द भोगने वाले लोकतंत्र के सच्चे सिपाही आज भी उन दिनों की कहानियों को सुनाने के लिए हमारे बीच में मौजूद हैं। जब यह साहसी लोग उन दिनों के अत्याचार को सुनाते हैं तब अन्याय के खिलाफ लडऩे से उन्हें जो गौरव की अनुभूति हुई थी, उसकी चमक उनकी आंखों में स्पष्ट नजर आती है। इस चमक के सामने यातनाओं का दर्द धूमिल हो जाता है। उन यातनाओं एवं संघर्ष का प्रतिफल लोकतंत्र की बहाली के रूप में उन्हें प्राप्त हुआ। इसलिए उस समय भोगा हुआ कष्ट उनके लिए गौण हो गया। आपातकाल की 43वीं वर्षगांठ की पूर्व संध्या अर्थात 24 जून 2018 को अपने सामाजिक गुरु श्रद्धेय श्री सुरेश चित्रांशी के सानिध्य में बैठा हुआ था। प्रसंगवश उन्हें आपातकाल का अपना संघर्ष याद आ गया। उन्होंने लगभग डेढ़ घंटे तक आपातकाल की रोंगटे खड़े कर देने वाली घटनाओं का वर्णन किया। उस जीवंत वर्णन को सुनकर आपातकाल के कठिन समय की अनुभूति मैं स्वयं भी कर सका।

शनिवार, 16 जून 2018

असहिष्णुता के सुनियोजित प्रोपेगंडा के बरक्स

- डॉ. आशीष द्विवेदी ( निदेशक, इंक मीडिया इंस्टीट्यूट, सागर) 
आज के जमाने में लिखा और कहा तो बहुत कुछ जा रहा है पर उसमें उतना असर दिखता नहीं है। कारण अंतस से मन, वचन और कर्म को एकाकार कर लिखने वाले गिनती के हैं। शायद इसीलिए वह लेखन शाम ढलते ही किसी अंधेरे कोने में दुबक जाता है। लेखन में मारक क्षमता तभी आती है, जब आपने उस लिखे को जिया हो या महसूस किया हो। अपनी बात को कैसे दस्तावेज बनाकर, तथ्य और तर्क के साथ संप्रेषणीय अंदाज से प्रमाणित तरीके से कहा जाता है, वह कला सिखाती है होनहार लेखक लोकेद्र सिंह की ‘हम असहिष्णु लोग’ यह पुस्तक उस वक्त के घटनाक्रमों का चित्रण है, जिसने अमूमन एक साजिश के तहत इस देश की महान समरस एवं अतिउदारवादी छवि को विकृत करने का कुत्सित किंतु असफल प्रयास किया। इसमें लोकेन्द्र सिंह ने दौ सौ पृष्ठों में 73 घटनाक्रमों की जिस सटीक ढंग से व्याख्या की है, वह हर उस भारतीय को पढ़ना चाहिए जो इस राष्ट्र से प्रेम करता है। मानस के अंर्तद्वंद को खत्म कर ये लेख आपके ज्ञानचक्षु खोल देंगे।

मंगलवार, 12 जून 2018

'राष्ट्रवाद, भारतीयता और पत्रकारिता' पर विमर्श को दिशा देती एक पुस्तक

- लोकेन्द्र सिंह
देश में राष्ट्रवाद पर चर्चा चरम पर है। राष्ट्रवाद की स्वीकार्यता बढ़ी है। उसके प्रति लोगों की समझ बढ़ी है। राष्ट्रवाद के प्रति बनाई गई नकारात्मक धारणा टूट रही है। भारत में बुद्धिजीवियों का एक वर्ग ऐसा है, जो हर विषय को पश्चिम के चश्मे से देखते है और वहीं की कसौटियों पर कस कर उसका परीक्षण करता है। राष्ट्रवाद के साथ भी उन्होंने यही किया। राष्ट्रवाद को भी उन्होंने पश्चिम के दृष्टिकोण से देखने का प्रयास किया। जबकि भारत का राष्ट्रवाद पश्चिम के राष्ट्रवाद से सर्वथा भिन्न है। पश्चिम का राष्ट्रवाद एक राजनीतिक विचार है। चूँकि वहाँ राजनीति ने राष्ट्रों का निर्माण किया है, इसलिए वहाँ राष्ट्रवाद एक राजनीतिक विचार है। उसका दायरा बहुत बड़ा नहीं है। उसमें कट्टरवाद है। हिंसा के साथ भी उसका गहरा संबंध रहा है। किंतु, हमारा राष्ट्र संस्कृति केंद्रित रहा है। भारत के राष्ट्रवाद की बात करते हैं तब 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' की तस्वीर उभर कर आती है। विभिन्नता में एकात्म। एकात्मता का स्वर है- 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद'। इसी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की समझ को और स्पष्ट करने का प्रयास लेखक प्रो. संजय द्विवेदी ने अपनी पुस्तक 'राष्ट्रवाद, भारतीयता और पत्रकारिता' के माध्यम से किया है। उन्होंने न केवल राष्ट्रवाद पर चर्चा को विस्तार दिया है, अपितु पत्रकारिता में भी 'राष्ट्र सबसे पहले' के भाव की स्थापना को आवश्यक बताया है। 

सोमवार, 11 जून 2018

प्रधानमंत्री की हत्या का षड्यंत्र और हमारी राजनीति का स्तर


- लोकेन्द्र सिंह 
भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की हत्या का षड्यंत्र रचे जाने की बात सामने आई है। माओवादी कम्युनिस्ट पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की तरह प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की हत्या करना चाहते हैं। भारत सरकार को तत्काल गंभीरता से इस मामले की जाँच करनी चाहिए और इस षड्यंत्र में शामिल लोगों को गिरफ्तार करना चाहिए। यह बहुत चिंताजनक और गंभीर मामला है। किंतु, इस मामले पर विपक्षी दलों की टिप्पणियां दुर्भाग्यपूर्ण हैं। हमारे नेता प्रधानमंत्री की हत्या के षड्यंत्र की बात पर व्यग्ंय और गैर-जिम्मेदार टिप्पणियां कर रहे हैं, जबकि हमने अपने दो प्रधानमंत्री और कई राजनेता इसी प्रकार की राजनीतिक हिंसा में खो दिए हैं। कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्सवादी) के महासचिव सीताराम येचुरी से लेकर कांग्रेस के बड़बोले नेता संजय निरूपम ने बहुत ही हल्की टिप्पणी इस मुद्दे पर की हैं। उन्होंने इसे लोकप्रियता पाने के लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का हथकंडा बताया है।

शुक्रवार, 8 जून 2018

प्रणब दा के उद्गार, संघ के ही विचार


- लोकेन्द्र सिंह
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संघ शिक्षा वर्ग-तृतीय वर्ष के समापन समारोह में दिए गए पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के बहुप्रतीक्षित उद्बोधन का विद्वान लोग अपने-अपने दृष्टिकोण से विश्लेषण कर रहे हैं। विद्वानों का एक वर्ग यह सिद्ध करने का भरसक प्रयास कर रहा है कि प्रणब दा ने संघ को उसके घर में घुसकर राष्ट्रवाद का पाठ पढ़ा दिया है। पूर्व में यह वर्ग प्रणब दा का विरोध सिर्फ इसलिए कर रहा था, क्योंकि उन्होंने सहर्ष संघ का न्यौता स्वीकार कर लिया था। वैसे, यह विश्लेषण करने वालों ने संभवत: भिन्न विचार के प्रति अपनी गहरी असहिष्णुता के कारण सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत का उद्बोधन नहीं सुना होगा। यदि हम दोनों महानुभावों के उद्बोधन सुनेंगे तो सार और तत्व एक जैसा ही पाएंगे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मंच से पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने जो कुछ कहा, वह सब संघ का ही विचार है।