मंगलवार, 6 सितंबर 2016

अलगाववादियों से बात क्यों?

 केंद्र  सरकार ने जम्मू-कश्मीर में शांति बहाली के लिए राजनीतिक पहल शुरू की। इसके तहत एक सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल जम्मू-कश्मीर में बातचीत के लिए भेजा गया। इस दल में सभी विचारधारा के लोग शामिल थे। प्रतिनिधिमंडल ने करीब 300 लोगों से मुलाकात की है। इनमें सिविल सोसायटी, राजनीतिक दल, यूनिवर्सिटी के शिक्षक, कुलपति, फल उत्पादक, छात्र और बुद्धिजीवी शामिल थे। सरकार ने बड़ा दिल दिखाते हुए अलगाववादियों से भी बात करने की इच्छा जताई। जैसा कि तय है कि अलगाववादियों को जम्मू-कश्मीर की शांति व्यवस्था में कोई दिलचस्पी नहीं है, क्योंकि उन्होंने तो स्वयं ही वहाँ हिंसक गतिविधियों को बढ़ावा देने की सुपारी ले रखी है। इसलिए जब प्रतिनिधिमंडल अलगाववादियों से बातचीत करने के लिए पहुँचा तब उसे निराशा ही हाथ नहीं लगी, बल्कि अपमानजनक स्थितियों का सामना भी करना पड़ा। अलगाववादियों ने न केवल हद दर्जे की असहिष्णुता का प्रदर्शन किया बल्कि अपनी नीयत भी दिखा दी। हालांकि यह सरकार की भूल है, जो उसने आतंकी विचारधारा को प्रश्रय देने वाले अलगाववादियों से बातचीत करने की पहली की। चोरी रोकने के लिए भला चोरों से क्या बात करना? भारत के प्रमुख राजनीतिक दलों के नेताओं का स्वागत अलगाववादियों ने जिस तरह किया, उससे जाहिर होता है कि यह कभी नहीं सुधरेंगे।
           भारत के गृह मंत्री जब जम्मू-कश्मीर में शांति बहाली के उपायों पर चर्चा कर रहे थे, उसी वक्त इन्हीं अलगाववादियों के इशारे पर घाटी के अलग-अलग हिस्सों में पत्थरबाजी का सिलसिला शुरू कर दिया गया। श्रीनगर, अनंतनाग, पुलवामा, त्राल, कुलगाम, शोपियां, अवंतिपोरा और सोपोर में हुई पत्थरबाजी में करीब २०० लोग घायल हुए। हुर्रियत के कट्टरपंथी धड़े के नेता सैयद अली शाह गिलानी ने तो प्रतिनिधिमंडल के सदस्यों के लिए दरवाजे तक नहीं खोले। यह किस तरह की सभ्यता का प्रदर्शन है? यह किस तरह की सोच है? इस सोच के लोग जम्मू-कश्मीर के लोगों को कभी भी प्रेम नहीं सिखा सकते। इन्हें फिजाओं में सिर्फ नफरत घोलना आता है। यह जहरीले लोग हैं। अलगाववादियों के इस आपत्तिजनक आचरण पर गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने कड़ा बयान जारी किया है। उन्होंने कहा है कि 'यह न तो जम्हूरियत है, न कश्मीरियत है और न ही इंसानियत है। कश्मीर भारत का अभिन्न हिस्सा था और रहेगा। जम्मू-कश्मीर के लोग भी यही मानते हैं। कश्मीर में शांति चाहने वालों से बातचीत के लिए दरवाजे ही नहीं, बल्कि रोशनदान भी खुले हैं।' भारतीय राजनीति में लम्बा अनुभव रखने वाले राजनाथ सिंह भी न जाने क्यों नहीं समझ पा रहे कि केवल इस तरह की बयानबाजी से जम्मू-कश्मीर की समस्या का स्थायी हल नहीं निकलेगा। क्योंकि, पाकिस्तान से पोषित इन अलगाववादियों को मोहब्बत की बातें समझ नहीं आती हैं। 
           सरकार को स्पष्टतौर पर समझना होगा कि जम्मू-कश्मीर में हिंसा को बढ़ावा देने में इन्हीं अलगाववादियों का हाथ रहता है। यदि इनकी नकेल कस दी जाए, तब जम्मू-कश्मीर में स्वत: ही शांति बहाली हो जाएगी। अलगाववादियों से बात नहीं, बल्कि इनके खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जानी चाहिए। सरकार को तत्काल इन अलगाववादियों को दी गई तमाम सुविधाएं और सुरक्षा वापस ले लेनी चाहिए। वैसे भी यह अतार्किक है कि सरकार देश के खिलाफ साजिश करने वालों की सुरक्षा और सुविधा पर करोड़ों रुपया खर्चा करती है। यह उन देशभक्त सैनिकों और नागरिकों के लिए बेहद असहनीय है, जो देश की एकता और अखंडता के लिए हथेली पर जान लेकर चलते हैं। अलगाववादियों पर खर्च किया जाना धन, जम्मू-कश्मीर की जनता की बेहतरी पर खर्च किया जाए तो अधिक सार्थक होगा। 

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