सोमवार, 19 अक्तूबर 2015

'साहित्यकारों' की राजनीति : सांप्रदायिक सहिष्णुता से इनका कोई लेना-देना नहीं

 अं ग्रेजी लेखिका नयनतारा सहगल और हिन्दी कवि अशोक वाजपेयी साहित्य अकादमी की ओर से दिया गया सम्मान लौटाकर क्या साबित करना चाहते हैं? यह प्रश्न नागफनी की तरह है। सबको चुभ रहा है। वर्तमान केन्द्र सरकार के समर्थक ही नहीं, बल्कि दूसरे लोग भी सहगल और वाजपेयी की नैतिकता और विरोध करने के तरीके पर सवाल उठा रहे हैं। साहित्य अकादमी के अध्यक्ष विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ने साहित्यकारों से आग्रह किया है कि सम्मान/पुरस्कार लौटाना, विरोध प्रदर्शन का सही तरीका नहीं है। भारत में अभिव्यक्ति की आजादी है। लिखकर-बोलकर सरकार पर दबाव बनाइए, विरोध कीजिए। अगर आपकी कलम की ताकत चुक गई है या फिर एमएम कलबर्गी की हत्या से आपकी कलम डर गई है, तब जरूर आप विरोध के आसान तरीके अपना सकते हो। आप तो सरस्वती पुत्र हो तर्क के आधार पर सरकार को कठघरे में खड़ा कीजिए। वरना, समाज तो यही कहेगा कि आप साहित्य को राजनीति में घसीट रहे हो। सरकार की आलोचना के लिए आपके पास तर्क नहीं हैं, इसलिए संकरी गली से निकल लिए। आम और खास लोग बातें बना रहे हैं कि आप सम्मान के बूते खूब प्रतिष्ठा तो हासिल कर ही चुके हो, अब उसे लौटाकर मीडिया में सुर्खियां भी बटोर रहे हो।
         ध्यान देने की बात है कि किसी लेखक को महज सम्मान देने के लिए सम्मान नहीं किया जाता बल्कि सम्मान के साथ जुड़ी जिम्मेदारी भी उसे सौंपी जाती है। सम्मान लौटाने का मतलब है कि लेखक अपनी जिम्मेदारी से भाग रहे हैं। बहुत से प्रबुद्धजन सम्मान लौटाने वालों पर 'दरबारी साहित्यकार' होने के आरोप लगा रहे हैं। उनका तर्क है कि साहित्यकारों में इतनी ही नैतिकता थी तो उन्होंने इससे पहले कभी सम्मान क्यों नहीं लौटाया? क्या कांग्रेस के शासनकाल में सांप्रदायिक दंगे नहीं हुए? क्या कांग्रेस के शासनकाल में अभिव्यक्ति की आजादी का गला घोंटने के प्रयास नहीं हुए? क्या कभी मुस्लिमों की भीड़ ने हिन्दू की हत्या नहीं की? इस देश में वर्षों से यह होता रहा है। जिन राज्यों में वामपंथियों की सरकारें रही हैं, वहां भी विरोधी विचारधारा के लोगों की हत्याएं होती रही हैं, कार्यकर्ताओं, लेखकों, पत्रकारों, साहित्यकारों को प्राण गंवाने पड़े हैं।
            घटना जून-2015 की है, मस्जिद के पास बस का हॉर्न बजाने पर धर्म विशेष के लोग बस ड्राइवर रमेश की पीट-पीटकर हत्या कर देते हैं। अगस्त में मेरठ के पास हरदेवनगर में ऐसी ही उन्मादी भीड़ लड़की से छेड़छाड़ का विरोध करने पर सेना के जवान वेदमित्र चौधरी की हत्या कर देती है। इसी वर्ष मार्च में मुस्लिम लड़की से विवाद करने पर बिहार के हाजीपुर में एक हिन्दू युवक की हत्या कर दी जाती है। इरूल (आंध्र), पश्चिमी भांडुप (मुम्बई), मुजफ्फरनगर और कोसीकलां (उत्तरप्रदेश) में भी इसी तरह विशेष समुदाय के लोगों के समूह ने हिन्दू युवकों की पीट-पीटकर हत्या कर दी थी। तब 'साहित्यकारों' ने सम्मान नहीं लौटाए, क्यों? आज साहित्यकार इतना आडम्बर क्यों कर रहे हैं? आम आदमी भी साफतौर पर देख पा रहा है कि यह साहित्यकारों की राजनीति है। कुछ खास किस्म के साहित्यकारों का 'पॉलिटिकल स्टैंड'।
            एबीपी न्यूज के वरिष्ठ पत्रकार ने तो सीधेतौर पर नयनतारा सहगल की नैतिकता पर सवाल खड़े कर दिए हैं। उन्होंने अपने लेख में ऐसे तथ्यों को सामने रखा है, जिनसे नयनतारा की नैतिकता और राजनीति बेपर्दा हो जाती है। नयनतारा की अंतरआत्मा तब सोयी रही जब उनके ही नेहरू-गांधी रिश्तेदारों ने प्रधानमंत्री रहते हुए सांप्रदायिक दंगों का समर्थन ही नहीं किया बल्कि दंगइयों को संरक्षण तक दिया। आपातकाल लागू करके अभिव्यक्ति की आजादी ही नहीं बल्कि मौलिक अधिकार भी छीन लिए। दरअसल, वाजपेयी और सहगल की नैतिकता चयनित है। उनके जैसे करीब 21 साहित्यकार अब तक साहित्य अकादमी से प्राप्त सम्मान लौटा चुके हैं। उनका यह फैसला इस बात की ताकीद करता है कि ये भी लेखकों की उसी जमात से आते हैं, जिसे भारतीय जनता पार्टी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और हिन्दुत्व से एलर्जी है। वरना क्या बात है कि उत्तरप्रदेश की सरकार से सवाल पूछने की जगह अशोक वाजपेयी प्रधानमंत्री की चुप्पी से बेचैन हैं? इसी उत्तरप्रदेश के मुजफ्फरनगर और कोसीकलां के दंगे में उन्मादी मुसलमानों की भीड़ ने जब हिन्दू युवकों की हत्या की तब किसी ने कांग्रेसनीत केन्द्र सरकार से सवाल नहीं किए थे, क्यों? सबको याद है कि ये वही अशोक वाजपेयी हैं, जो भोपाल गैस त्रासदी के समय हजारों लोगों की मौत के बाद भी विश्व कवि सम्मेलन का आयोजन कर रहे थे। विरोध के बाद भी वाजपेयी ने सम्मेलन को न तो रद्द किया और न ही स्थगित। हजारों लोगों की मौत का उपहास उड़ाता हुआ बेहद असंवेदनशील और शर्मनाक बयान और दे दिया था- 'मुर्दों के साथ मरा नहीं जाता।' बहरहाल, चाहे कोई मुहम्मद अखलाक (दादरी में गोहत्या के आरोप में मारा गया युवक) हो, गौरव (मुजफ्फरनगर के दंगे में मारा गया युवक) या फिर देवा (कोसीकलां के दंगे में मारा गया सब्जी व्यापारी), किसी की भी हत्या बर्दाश्त नहीं है। ऐसी घटनाएं शर्मिंदा करती हैं। उससे भी अधिक शर्मिंदगी तब होती है जब इन घटनाओं पर ओछी राजनीति होती है।
            साहित्यकारों की इस भेड़चाल को प्रगतिशील आलोचक नामवर सिंह भी गलत ठहराते हैं। वरिष्ठ पत्रकार और कवि विष्णु खरे ने भी साहित्यकारों को खरी-खरी सुनाई है। चरित्र अभिनेता अनुपम खैर तो साफ कहते हैं कि साहित्यकारों को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता पच नहीं रही है। कहीं न कहीं यह सच भी है, क्योंकि इनमें से अधिकतर साहित्यकारों ने चुनाव पूर्व नरेन्द्र मोदी के खिलाफ प्रस्ताव पारित किया था। लोगों से अपील की थी कि नरेन्द्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी को वोट न दें। 
            राजनीति से प्रेरित साहित्यकारों के कृत्य की निंदा साहित्य जगत से ही होने लगी है तो वे घबराए-से दिख रहे हैं। अब वे आग्रह कर रहे हैं कि सम्मान लौटाने के प्रतीकात्मक विरोध पर प्रश्न चिह्न लगाकर उसे कमजोर करने का प्रयास न किया जाए? लेकिन, सवाल तो उठेंगे, साहित्यकारों की नैतिकता पर, विरोध प्रदर्शन के तरीके पर, सम्मान लौटाने के समय पर और उसके पीछे के आधार पर। दरअसल, सम्मान लौटाने का एक भी तर्क उचित नहीं है, इसलिए साहित्यकारों को साहित्य जगत का ही साथ नहीं मिल रहा है। मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य अकादमी की प्रेमचंद सृजनपीठ, उज्जैन के निदेशक एवं वरिष्ठ साहित्यकार जगदीश तोमर कहते हैं कि सम्मान लौटा रहे अधिकतर साहित्यकार कांग्रेस और वामपंथ राजनीति और विचारधारा से प्रेरित हैं। अयोध्या से लौट रहे वृद्ध, नौजवान, महिलाओं और मासूम बच्चों को गोधरा में रेलगाड़ी के डिब्बे में बंद करके जला दिया गया था, तब इन साहित्यकारों की अंतरआत्मा कहाँ सोई रही। अखिल भारतीय साहित्य परिषद के राष्ट्रीय संगठन मंत्री श्रीधर पराड़कर ने कहा कि साम्प्रदायिक सहिष्णुता से इन विशेष साहित्यकारों का कोई लेना-देना नहीं है। परिषद के महामंत्री पवनपुत्र बादल ने आरोप लगाते हुए कहा है कि यह बात समझ से परे है कि जो स्वयं साहित्य अकादमी के कर्ताधर्ता बने हुए थे और अपनों को साहित्य अकादमी के पुरस्कार और सम्मान बांट रहे थे, वे स्वयं साहित्य अकादमी पर अंगुली उठा रहे हैं। खास विचारधारा से प्रेरित साहित्यकारों की निंदा करने वालों में लखनऊ के हृदय नारायण दीक्षित, दिल्ली के नरेन्द्र कोहली, जबलपुर के डॉ. त्रिभुवननाथ शुक्ल, विश्व हिन्दी सम्मान प्राप्त चेन्नई के डॉ एन. सुन्दरम्, इन्दौर के मिथिला प्रसाद त्रिपाठी, दिल्ली के कमल किशोर गोयनका, पटना के शत्रुघ्न प्रसाद, विश्व हिन्दी सम्मान प्राप्त लखनऊ के आनन्द मिश्र जैसे लब्ध-प्रतिष्ठित साहित्यकारों के साथ ही तमिलनाडु भाषा संगम, आंध्रप्रदेश की जातिय साहित्य परिषद, दिल्ली की अखिल भारतीय साहित्य परिषद तथा ग्वालियर की मध्य भारतीय हिन्दी साहित्य सभा जैसी संस्थाएं भी शामिल हैं। बहरहाल, साहित्य सम्मान लौटाने के नाम पर राजनीति कर देश का माहौल खराब कर रहे साहित्यकारों को अपनी कलम पर भरोसा नहीं हैं।

3 टिप्‍पणियां:

पसंद करें, टिप्पणी करें और अपने मित्रों से साझा करें...
Plz Like, Comment and Share