मंगलवार, 17 मार्च 2015

जहां औंकार में विराजते हैं शिव


 दे वों के देव महादेव शिव अपने नाम के अनुरूप भोले हैं। बाबा मनमौजी भी हैं। उनका निवास और भेष दुनिया को संदेश देता है कि व्यक्ति अपने सामर्थ्य को पहचाने तो फिर वह प्रत्येक परिस्थिति में सुख से रह सकता है। बेफिक्र, निश्चिंत, परम आनंद में डूबा हुआ। कैलाश शिखर के वासी भोले भण्डारी ने औंकारेश्वर में भी एक पर्वत को ही अपना ठिया बनाया है। पर्वत पवित्र 'ऊँ' के आकार का है। इसीलिए यहां शिव का नाम पड़ा है- औंकारेश्वर। भोले भण्डारी को मधुर संगीत सुनाने के लिए पर्वत के नीचे माँ नर्मदा कल-कल बहती हैं। कावेरी भी उनका साथ देती नजर आती हैं। प्रकृति भी अपने पूरे सौंदर्य के साथ मौजूद है। माँ नर्मदा के घाट पर खड़े होकर औंकारेश्वर के शिखर को निहारना अलहदा अहसास है। शिखर पर पहुंचने की तीव्र लहरें मन में उठती हैं, लेकिन मान्धाता पर्वत उन्हें पीछे धकेल देता है, कहता है- 'शिखर पर बैठना है तो जाओ पहले शिव होकर आओ।' औंकारेश्वर के प्रांगण में खड़े होकर सदानीरा माँ नर्मदा को देखना भी अद्भुत है। माँ से प्रेरणा पाकर मन गंभीर हो जाता है-'मेरा, मेरे लिए कुछ भी नहीं, सब तुम्हारे लिए है।'  'नदिया न पिए कभी अपना जल, वृक्ष न खाए कभी अपना फल' जैसा गीत याद आता है। शिव के घर से आती घंटी की आवाज, नर्मदा के आंचल से होकर आई भीगी-ठण्डी बयार, शिव की स्तुति में पक्षियों का कलरव, कुछ क्षण के लिए आपको दुनिया के तमाम बंधनों-चिंताओं-परेशानियों से दूर लेकर चला जाएगा। तो आइए, औंकारेश्वर में चर-अचर, शिव के सब भक्त आपके स्वागत के लिए तैयार हैं।
        शिव के आसरे में पहुंचना एक अलग ही सुख देता है। उस पर भी औंकारेश्वर जाना हो तो, रास्ते में मिलने वाले हरे लिबास में पहाड़, घाटी के घुमावदार रास्ते और शांत प्रकृति, आपके आनंद के वेग को को और अधिक गति देती है। हम दोपहर में इंदौर से औंकारेश्वर के लिए कार से निकले थे। करीब 80 किलोमीटर की दूरी तय करने में डेढ़ घण्टे का वक्त लगा। जब इंदौर से निकले थे तब मौसम खुला हुआ था। दिसम्बर की ठण्ड में कुनकुनी धूप से सुखद अनुभूति हो रही थी। लेकिन, औंकारेश्वर के नजदीक पहुंचते-पहुंचते बादल घिर आए। बूंदाबांदी से मौसम सुहावना हो उठा। गोया कि हमारी सहयात्री चिया की तरह मौसम भी नटखट हो उठा था। मित्र मनोज पटेल की बेटी है चिया (काव्या)। सिया से उसका नाम चिया कैसे पड़ा, ये बताता हूं। किसी मित्र ने उनको कह दिया था कि इसका नाम बदलो, सिया (सीता जी) को अपने जीवन में बहुत कष्ट उठाने पड़े थे। सिया नाम का असर कहीं उसके जीवन पर भी न पड़ जाए। अपनी बेटी की खुशियों की खातिर उन्होंने सिया को चिया बना दिया। चिया बड़ी चंचल है और थोड़ी जिद्दी भी। अपनी मां नीलम और पिता के साथ वह भी औंकारेश्वर के दर्शन के लिए हमारे साथ थी। मनोज जी माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में प्रोड्यूसर हैं। इससे पहले वे एबीपी न्यूज और इंडिया न्यूज जैसे राष्ट्रीय समाचार चैनल में काम कर चुके हैं। भेरू घाट के घुमावदार रास्ते में हम कभी पहाड़ के शीर्ष पर होते तो कभी तलहटी में। वाहन चालक के अलावा हर कोई ऐसे रास्तों पर अन्दर ही अन्दर डर रहा होता है कि अब किसी मोड़ पर गाड़ी गई गड्डे में। लेकिन, हमें भरोसा था मित्र गजेन्द्र सिंह अवास्या की दक्षता पर। वे भी प्रोड्यूसर हैं। जितनी खूबसूरती से कैमरा चलाते हैं, उतनी ही खूबसूरती और तेजी से कार ड्राइव करते हैं। उनको रास्ते की जानकारी थी। इसलिए हमारे लिए गाइड का काम भी वे करते जा रहे थे। घाट उतरकर कुछ दूर चलने के बाद एक जगह भीड़ दिखी। गजेन्द्र जी ने बताया कि यह शनि मंदिर है। हम सब उतरे और न्याय के देवता शनिदेव के दर्शन किए और आगे बढ़ गए। 
        घर से निकलते समय देर हो गई थी। सुबह से कुछ खाया भी नहीं था। सदानीरा माँ नर्मदा पर बने मोरटक्का पुल को पार करके एक-दो होटल दिखे। हम सबने तय किया कि पेट के चूहों को शान्त करने के बाद ही आगे बढऩा चाहिए। इत्मिनान के साथ मक्के की रोटी और सरसों के साग का आनन्द लिया। आगे का रास्ता सीधा और अच्छा था। गाड़ी सरपट भागी जा रही थी। बाजार पार करते हुए हम जल्द ही औंकारेश्वर पहुंच गए। औंकारेश्वर बारह ज्योर्तिलिंगों में से एक है। ऐसा माना जाता है कि इक्ष्वाक वंश के राजा मान्धाता ने तपस्या कर भगवान शंकर को प्रसन्न किया। उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर ही महादेव ने औंकार रूप में अपना निवास औंकारेश्वर में बनाया है। राजा मान्धाता के नाम पर ही इस पर्वत का नाम मान्धाता पर्वत पड़ा है। आदि शंकराचार्य के जीवन का महत्वपूर्ण प्रसंग भी इस पवित्र स्थल से जुड़ा है। आदि शंकराचार्य ने अपने गुरु गोविन्दाचार्य से नर्मदा नदी के उत्तरी तट पर औंकारेश्वर मंदिर के समीप दीक्षा ली थी। ऐसी मान्यता है कि औंकारेश्वर लिंग किसी मनुष्य ने नहीं बनाया, बल्कि यह प्राकृतिक शिवलिंग है। इसके चारों ओर हमेशा जल भरा रहता है। प्राय: किसी मन्दिर में लिंग की स्थापना गर्भ गृह के मध्य में की जाती है और उसके ठीक ऊपर शिखर होता है, किन्तु औंकारेश्वर लिंग मन्दिर के गुम्बद के नीचे नहीं है। इसकी एक विशेषता यह भी है कि मन्दिर के ऊपरी शिखर पर भगवान महाकालेश्वर की मूर्ति लगी है। 
        मंदिर तक पहुंचने के लिए नर्मदा के ऊपर एक लम्बा पुल है। इसे पार करने के बाद सीढिय़ों से होते हुए मंदिर परिसर में प्रवेश करते हैं। सदैव भीड़ रहने के कारण मुख्य मंदिर में अधिक देर तक रुकने नहीं दिया जाता। श्रद्धालुओं की कतारें लगातार रेंगती रहती हैं। धार्मिक क्रियाएं सम्पन्न कराने के लिए यहाँ पण्डें सक्रिय रहते हैं। यदि आपको इस बात में भरोसा है कि ईश्वर आपकी प्रार्थना बिना किसी मध्यस्थ के सुन लेता है तो पण्डों से बचकर ही रहना। जब हम मंदिर परिसर में पहुंचे तो पट बंद होने में पाँच मिनट शेष रह गए थे। जल्दी दर्शन कराने की बात कहकर एक पण्डा हमारे साथ हो लिया। उसने कहा था कि वह इक्यावन रुपये से अधिक नहीं लेगा। हम उसकी बात में आ गए। जैसे ही दर्शन कर मंदिर से बाहर निकले। पण्डे ने बैठा लिया। भगवान शिव की स्तुति में कुछ श्लोक पढ़े। समर्पण राशि हाथ में रखवाई। इसके बाद दान में पाँच-पाँच सौ रुपये माँगने लगा। जैसे-तैसे उससे बचकर निकले। झूठ बोलकर ये लोग पण्डे-पुजारियों की छवि को बट्टा लगाने का काम कर रहे हैं। बहरहाल, इस घटनाक्रम के बावजूद असीम शांति की अनुभूति हो रही थी। हृदय में शिव के स्नेह की बारिश होती हुई महसूस हो रही थी कि इन्द्रदेव का इशारा पाते ही बूंदाबांदी कर रहे बादलों ने तेज बारिश शुरू कर दी। शाम ढल रही थी। अंधेरा दस्तक दे रहा था। बारिश कुछ पल के लिए थमी तो कार तक जल्दी पहुंचने की हूक उठी ताकि उजाले में ही जंगल और घुमावदार रास्ते को पार कर लिया जाए। औंकारेश्वर तीर्थ के दूसरे मंदिरों और महत्वपूर्ण स्थलों को देखने का मोह छोडऩा पड़ा। कार में सवार हुए, घर की ओर चल दिए, मन ही मन औंकारेश्वर फिर से आने की तमन्ना लिए। 
कैसे पहुंचे : इंदौर से खण्डवा रोड होते हुए निजी वाहन से औंकारेश्वर मंदिर पहुंचा जा सकता है। नियमित बस सेवा भी उपलब्ध है। उज्जैन से खण्डवा जाने वाले रेलमार्ग पर 'मोरटक्का' रेलवे स्टेशन है। यहां से करीब बारह किलोमीटर की दूरी पर औंकारेश्वर तीर्थ स्थित है। मोरटक्का से बस और टेम्पो की मदद से मंदिर पहुंचा जा सकता है। 



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