सोमवार, 8 दिसंबर 2014

एक्टीविस्ट जर्नलिस्ट

 ए क युवक, जिसे डॉक्टरों के मुताबिक 12-13 साल पहले करीब 30 वर्ष की आयु में ही दुनिया को अलविदा कह देना था। अंग्रेजी दवाओं के साइड इफैक्ट से जिसका शरीर खोखला हो चुका था। फेफड़े और लीवर डैमेज की स्थिति में थे। वह युवक छोटी उम्र से डायबिटीज जैसी बीमारी से जूझ रहा था। आंखों की रोशनी ऐसी हो गई थी कि उसे लगता था जैसे कि वह कुहासे के भीतर से देख रहा हो। वर्षों तक 2-3 घण्टे ही बमुश्किल सो सकता था। अल्सर और एसिडिटी का हाल यह था जैसे पेट में आग जल रही हो। अपने हौसले, अपने लड़ाका स्वभाव और नियमित छोटे-छोटे प्रयोगों के अभ्यास से वह युवक आज न केवल स्वस्थ है बल्कि शारीरिक और वैचारिक स्तर पर समाज को भी स्वस्थ करने की दिशा में प्रयत्नशील है। संत समीर समाजकर्मी हैं, आंदोलनकारी हैं और लड़ाका किस्म के पत्रकार हैं। अपनी बीमारियों से लड़ते-लड़ते समाजशास्त्र से स्नातकोत्तर करने वाले समीर जी स्वदेशी चिकित्सक भी हो गए।
      उत्तरप्रदेश के भगवानपुर गांव में 10 जुलाई, 1970 को जन्मे संत समीर फिलहाल हिन्दुस्तान टाइम्स समूह की प्रतिष्ठित मासिक पत्रिका कादम्बिनी के मुख्य कॉपी संपादक हैं। नब्बे के दशक में वैकल्पिक पत्रकारिता के रास्ते उन्होंने खबरों की दुनिया में कदम रखा। प्रतिष्ठित फीचर सर्विस 'स्वदेशी संवाद सेवा' में समीर जी ने करीब आठ साल तक संपादन कार्य किया। वे बहुराष्ट्रीय उपनिवेशवाद, वैश्वीकरण और डब्ल्यूटीओ जैसे मुद्दों पर बहस की शुरुआत करने वाली इलाहाबाद से प्रकाशित पत्रिका 'नई आजादी उद्घोष' के संपादक और सलाहकार संपादक भी रहे। आजाद भारत में पहली बार बहुराष्ट्रीय उपनिवेश के खिलाफ अस्सी के दशक के उत्तरार्ध में स्वदेशी-स्वावलंबन का आंदोलन खड़ा करने वालों में भी संत समीर का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। बहरहाल, व्यावसायिक पत्रकारिता के तौर पर उन्होंने सबसे पहले पूर्वी उत्तरप्रदेश के अखबार 'जनमोर्चा' के लिए खबरनवीसी की। बाद में न्यूज एजेंसी 'ईएमएस' और क्रॉनिकल समूह के पाक्षिक 'प्रथम प्रवक्ता' से जुड़े। 
      'हिन्दी की वर्तनी' और 'अच्छी हिन्दी कैसे लिखें' सहित कई चर्चित किताबों के लेखक संत समीर के तमाम लेखों की अनुगूंज विधानसभाओं और संसद तक पहुंची है। हाल ही में दिल्ली चुनाव के बाद 'आप के विधायकों के नाम खुला खत' शीर्षक से लिखी गई उनकी लम्बी चिट्ठी खासी चर्चित हुई। सही मायने में यह चिट्ठी न केवल आम आदमी पार्टी बल्कि भ्रष्ट होती जा रही समूची भारतीय राजनीति के लिए एक दिशाबोध भी थी। बेहद संवेदनशील और विनम्र स्वभाव के संत समीर जिंदगी को बड़े करीब से जीते हैं। गरीब बच्चों को पढ़ाना, नि:शुल्क चिकित्सकीय परामर्श के साथ होम्योपैथी दवाएं बांटना और जिंदगी से निराश हो चुके लोगों का हौसला बढ़ाना, उनकी दिनचर्या का हिस्सा हो गए हैं। 
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"हिंदी पत्रकारिता में भाषा-संहार के इस युग में संत समीर उन विरले पत्रकारों में से हैं जो शुद्ध भाषा के आग्रही हैं और अच्छी हिंदी लिखने के लिए सहायक ग्रंथों की रचना भी कर रहे हैं।
- विजयदत्त श्रीधर, संस्थापक-संयोजक, सप्रे संग्रहालय, भोपाल
-  जनसंचार के सरोकारों पर केन्द्रित त्रैमासिक पत्रिका "मीडिया विमर्श" में प्रकाशित आलेख
  

2 टिप्‍पणियां:

  1. ऐसे जीवट इंसान समाज में मिसाल कायम कर लोगों को विपरीत परिस्थितयों जीना सिखाते हैं..
    बहुत बढ़िया प्रेरक प्रस्तुति।

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