शुक्रवार, 31 अक्तूबर 2014

टुकड़े-टुकड़े जोड़, जिसने भारत बनाया

 आ धुनिक भारत के शिल्पी सरदार वल्लभ भाई पटेल के विचार, कर्म और उनकी स्मृतियां मन को रोमांच और गौरव से भर देती हैं। वे ऐसे राष्ट्रभक्त महापुरुष थे जिनके लिए 'राष्ट्र सबसे पहले' था। सरदार सही मायने में राष्ट्रीय एकता के प्रतीक थे और हैं। उनकी जयंती को 'राष्ट्रीय एकता दिवस' के रूप में मनाने का निर्णय लेने के लिए भाजपानीत राजग सरकार की सराहना की जानी चाहिए। भारत की संप्रभुता, एकता और अखण्डता के लिए जीने-मरने वाले सरदार वल्लभ भाई पटेल की सूझबूझ का ही नतीजा है कि आज हम एक शक्तिशाली राष्ट्र के नागरिक हैं। दुनिया में भारत एक महाशक्ति है। वरना तो हम अपने महान राष्ट्र के टुकड़े-टुकड़े पकड़कर रो रहे होते। 
तथाकथित बुद्धिजीवियों की बुद्धि पर कई दफा तरस आता है जो यह स्थापित करने का प्रयास कर रहे हैं कि भारत को एक देश और राजनीतिक इकाई का रूप देने का श्रेय अंग्रेजों को है। कांग्रेस के ही नेता एवं पूर्व मंत्री पी. चिदम्बरम किसी कार्यक्रम में इंदौर आए हुए थे, तब उन्होंने कहा था कि भला हो अंगे्रजों का जो वे भारत आए और हमें बेहतर बना दिया। वरना हम तो अंधेरे में ही जी रहे थे। लगभग यही बातें पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने तब कहीं थीं जब वे इंग्लैण्ड गए थे, ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से मानद डॉक्टरेट की उपाधि लेने के लिए। तमाम वामपंथी विद्वान भी यही सिद्ध करने का प्रयास करते रहते हैं कि भारत को सभ्य और एक तो अंग्रेजों ने बनाया। अंग्रेज न आते तो भारत होता ही नहीं। जबकि वास्तविकता यह है कि अंग्रेजों को भारतीयों से कोई मोहब्बत नहीं थी, न ही वे मानवता में विश्वास करते थे, जो वे भारतीयों के हित की चिन्ता करते। वे लुटेरे थे। लूटने के लिए आए थे। जब वीर प्रसूता मां भारती के लड़ाकों ने अंग्रेजों को ललकारा तब आखिरकर उन्हें यहां से जाना पड़ा। लेकिन, जाते-जाते भारत का सर्वनाश करने के लिए वे अपनी कुटिल चाल चल गए थे। उन्होंने भारत को एक राजनीतिक इकाई नहीं बनाया था बल्कि उन्होंने तो भारत को कई टुकड़ों में बांट दिया था। देशभक्त सरदार वल्लभ भाई पटेल न होते तो आज भारत 562 से भी अधिक टुकड़ों में बंटा होता। वे सरदार पटेल ही थे जिन्होंने भारत को एक किया। अपनी सूझबूझ और नेतृत्व क्षमता के बल पर ही सरदार अलग-अलग झण्डा थामे 562 रियासतों को तिरंगे के नीचे ला सके। यह आसान काम नहीं था। सरदार पटेल के हाथ में यह काम न होता तो शायद यह संभव भी न हो पाता। सरदार के दृढ़ के आगे, उनकी लौह पुरुष की छवि के आगे भोपाल, जूनागढ़ और हैदराबाद के निजामों की भी एक न चली। सरदार पटेल के कारण ही ये सब आज भारत का अभिन्न अंग हैं और यहां कोई विवाद नहीं। वहीं, जम्मू-कश्मीर मसले में जवाहरलाल नेहरू के हस्तक्षेप के कारण आज तक विवाद की स्थितियां बनी हुई हैं। अगर जम्मू-कश्मीर के मामले में नेहरू ने टांग न फंसाई होती, सरदार पटेल को अपने तरीके से समस्या को हल करने दिया गया होता तो आज जम्मू-कश्मीर में अमन-चैन होता। वह अपने नाम के अनुरूप वाकई 'धरती पर स्वर्ग' होता। 
भारत-पाकिस्तान अलगाव के कारण उपजीं विषम परिस्थितियों के बीच कठोर अनुशासन प्रिय और मितभाषी सरदार वल्लभ भाई पटेल के लिए राष्ट्रीय एकता स्थापित करना चुनौतीपूर्ण कार्य था। लेकिन, तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद उन्होंने देश जोड़कर अपनी नेतृत्व क्षमता का लोहा मनवा दिया। दरअसल, निर्णय लेते वक्त उनके दिमाग में किसी प्रकार की कोई दुविधा नहीं रहती थी। उनकी सोच एकदम स्पष्ट थी- राष्ट्र सबसे पहले। किसी भी कीमत पर देश की एकता जरूरी है। राष्ट्र को एकजुट करने के लिए उन्हें कितनी ही तोहमत झेलनी पड़ी। सरदार सांप्रदायिक हैं, असमझौतावादी हैं, पूंजीपतियों के समर्थक हैं, मुस्लिम विरोधी हैं, वामपक्ष के विरोधी हैं। इस तरह के तमाम आरोप उन पर लगाए गए। लेकिन, आरोपों की परवाह न करते हुए सरदार पूरी तल्लीनता के साथ अपने काम में लगे रहे। निश्चित ही वे अपनी छवि और आरोपों की फिक्र करते तो देश कहीं पीछे छूट जाता। राष्ट्रीय एकता को हम पा नहीं सकते थे। भारत एक देश नहीं बन पाता। सरदार पटेल का ऋण हमेशा भारतीयों के माथे पर रहेगा। उस ऋण से उऋण होना संभव नहीं है। हां, एक तरीका है सरदार पटेल के विचारों और कर्मों को सार्थकता प्रदान करने का। राष्ट्रीय एकता को बनाए रखने और बढ़ाने के लिए हम 'राष्ट्रीय एकता दिवस' के मौके पर शपथ लें कि हमारे मन-वचन-कर्म से कभी भी, किसी तरह भी राष्ट्रीय एकता, अखण्डता और संप्रभुता को क्षति न पहुंचे। राज्यों के आपसी विवाद खत्म करने के लिए हमें आगे आएं। भाषाई विवाद से पार पाएं। इन्सानों में धर्म-जाति के आधार पर कोई भेद न करें। सब स्तर पर एकजुट हों। देश की आंतरिक सुरक्षा को बनाए रखने में अपना योगदान थे। राष्ट्र विरोधी विचारों और कार्यों से दूर रहें। राष्ट्र विरोधी तत्वों का पुरजोर विरोध करें। भारत के गौरव को बढ़ाने के लिए अपने कर्तव्यों का ईमानदारी से निर्वाहन करें। 
भारत सरकार ने सरदार वल्लभभाई पटेल की जयंती को राष्ट्रीय एकता दिवस के रूप में मनाने का निर्णय लेकर एकता की भावना के महत्व का भी प्रतिपादन किया है। स्वयं सरदार पटेल एकता को सबसे बड़ी ताकत मानते थे। उनका स्पष्ट कहना था- 'एकता के बिना जनशक्ति शक्ति नहीं है।' उनका यह भी मानना था कि कोई भी विश्वास तब तक मजबूत नहीं होता जब तक उसके पीछे एकता की ताकत न हो। वे कहते थे- 'शक्ति के अभाव में विश्वास किसी काम का नहीं है। विश्वास और शक्ति, दोनों ही किसी भी महान कार्य को करने के लिए अनिवार्य हैं।' उन्होंने भाषणों से ही नहीं बल्कि अपने व्यवहार से भी इन बातों को आगे बढ़ाया था। कई मसलों को लेकर जवाहरलाल नेहरू से उनकी मतभिन्नता थी लेकिन अपनी ओर से उन्होंने यह कभी भी जाहिर नहीं होने दिया। वे अच्छी तरह समझते थे कि महान उद्देश्य की प्राप्ति के लिए आपसी एकता और सामंजस्य जरूरी है। व्यक्तिगत हित, मन-मुटाव और मतभिन्नता को उन्होंने कभी अपने पास फटकने नहीं दिया। वे तो देश के लिए सर्वस्व समर्पित करने को निकले थे। उनके लिए बड़े से बड़ा पद प्राप्त करना उद्देश्य नहीं था। देश का मानस उन्हें प्रधानमंत्री बनाना चाहता था लेकिन महात्मा गांधी ने अपने प्रिय जवाहरलाल नेहरू का नाम आगे बढ़ाया। सरदार पटेल ने पद-प्रतिष्ठा की दौड़ से खुद को बाहर रखकर गांधी के सम्मान को बढ़ाया और किसी मौन तपस्वी की तरह वे राष्ट्रीय एकता को स्थापित करने में लगे रहे। आज के राजनीतिक दलों को सरदार पटेल से यह सीख लेनी चाहिए कि वे राष्ट्रीय एकता के लिए दलगत राजनीति से ऊपर उठकर आगे आएं। एकजुट हों। देश के सम्मान पर आंच आए तो मिलकर आवाज बुलंद करें। भारत की सुरक्षा के लिए नासूर बन चुकी अवैध घुसपैठ की समस्या पर राजनीति बंद करें। घटनाओं और समस्याओं को अलग-अलग चश्मे से देखना बंद करें। खुली आंखों से स्थितियों को एक समान रूप से देखें। समस्या का समाधान करते समय राजनीतिक स्वार्थ छोड़कर राष्ट्र को पहले रखकर देखें। स्वतंत्र भारत के समस्त नागरिकों की भी जिम्मेदारी है कि सरदार पटेल के काम को आगे बढ़ाने का संकल्प लें। उनकी जयंती को सार्थक बनाएं, इसे कर्मकाण्ड तक सीमित न करें। भारत को एक शक्तिशाली राष्ट्र बनाने के सरदार पटेल के स्वप्र को हम साकार करें।

सोमवार, 27 अक्तूबर 2014

संवेदनशील पत्रकार

 ज ब पत्रकारिता मिशन से हटकर प्रोफेशन हो गई हो तब सिद्धांतों को लेकर काम करना किसी के लिए भी आसान नहीं होता। आपके पास दो ही विकल्प हैं, या तो आप सिद्धांत चुनिए या फिर पत्रकारिता करिए। हालांकि बीच का रास्ता भी कुछ लोग निकालते हैं लेकिन बीच का रास्ता ज्यादा लम्बा नहीं होता। हरिमोहन शर्मा एक ऐसा नाम है, जिसने अपने उसूलों की खातिर हिन्दी के शीर्ष अखबार के संपादक पद से उतरने में पलभर की देर न लगाई। सिद्धांतों के लिए अडऩे वाले हरिमोहन शर्मा बेहद सरल, सहज और संवेदनशील व्यक्तित्व के मालिक हैं। सहज बातचीत के दौरान एक समाचार-पत्र के मालिक से उन्होंने पूछा कि आप अखबार क्यों निकालते हैं? मालिक ने जवाब दिया-'मैं सिर्फ पॉवर इंजॉय करने के लिए अखबार निकालता हूं।' मालिक का यह जवाब सुनकर उन्होंने मन ही मन कहा-तुम्हें पॉवर इंजॉय करने के लिए मैं अपनी पत्रकारिता का दुरुपयोग नहीं होने दूंगा।' मूल्यों की पत्रकारिता के हामी हरिमोहन शर्मा ने उसके बाद कभी उस समाचार-पत्र के दफ्तर की सीढिय़ां नहीं चढ़ीं। 
      57 वर्षीय हरिमोहन शर्मा ने 1982 में स्वदेश (ग्वालियर) से पत्रकारिता की शुरुआत की। रिपोर्टर से ब्यूरोचीफ और फिर अलग-अलग राज्यों में कई समाचार-पत्रों के संपादक रहे। दैनिक भास्कर समूह ने हरिमोहन शर्मा की संगठन क्षमताओं को पहचानते हुए वर्ष 2000 में हरियाणा में हिसार एडिशन की लॉन्चिंग की महती जिम्मेदारी उनके मजबूत कंधों पर डाली। उन्होंने ग्वालियर, भोपाल, पानीपत, चण्डीगढ़, उदयपुर और जयपुर में दैनिक भास्कर को मजबूत किया। दैनिक भास्कर समूह के श्रेष्ठ और मजबूत संपादकों में हरिमोहन शर्मा की गिनती होती रही। वर्ष 2009 में मध्यप्रदेश में पीपुल्स समाचार-पत्र दस्तक दे रहा था। ग्वालियर में समाचार-पत्र को एक सशक्त नेतृत्व की जरूरत थी। हरिमोहन शर्मा के नाम पर पीपुल्स की खोज खत्म हुई। ग्वालियर में श्री शर्मा ने शानदार अंदाज में पीपुल्स को लॉन्च कराया। राज एक्सप्रेस समूह को भी उन्होंने अपनी सेवाएं दीं लेकिन इस ग्रुप के साथ ज्यादा दिन तक पटरी नहीं बैठी। 
      ओजपूर्ण वाणी के धनी हरिमोहन शर्मा के पास संवेदनशीलता की सबसे बड़ी पूंजी है। 'भरा नहीं जो भावों से, बहती जिसमें रसधार नहीं। वह हृदय नहीं पत्थर है, जिसमें मानवता से प्यार नहीं।' उक्त पंक्तियां श्री शर्मा ने अपने जीवन में उतार रखी हैं। जब वे रिपोर्टर थे तब भाजपा की ओर से आयोजित भारतबंद को कवरेज करने के लिए गए थे। वहां उन्होंने देखा कि तीन-चार पुलिसकर्मी एक युवक को सड़क पर पटककर पीट रहे थे। हरिमोहन जी से यह देखा नहीं गया और वे उसे बचाने के लिए पहुंचे। पुलिसकर्मियों ने श्री शर्मा को आंदोलनकारी समझकर पकड़ लिया और तीन दिन तक थाने में बंद रखा। सकारात्मक ऊर्जा के संचारक हरिमोहन शर्मा कॉलेज के दिनों में छात्र राजनीति में सक्रीय रहे। उच्च शिक्षा और छात्रों से जुड़े मुद्दों की लड़ाई में पांच-छह दफे उन्हें जेल जाना पड़ा। उनकी अद्भुत विशेषता है, जो भी एक बार उनसे मिलता है, उनका हो जाता है। 
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"हरिमोहन जी बेहद संवेदनशील हैं। अपने से जुड़े हर व्यक्ति की चिंता करते हैं, चाहे वह ऑफिस बॉय ही क्यों न हो। एक खास बात का जिक्र करना जरूरी होगा, वे जहां भी गए, वहां पत्रकारों के लिए लाइब्रेरी जरूर बनवाई। पत्रकार अध्ययनशील बने रहे, इस पर उनका खास जोर रहता था।"
- रवि उपाध्याय, वरिष्ठ फोटो पत्रकार 

शनिवार, 18 अक्तूबर 2014

साहित्यकार-संपादक

 आ प सबने निश्चित ही चमत्कारी पत्थर पारस की खूबी के बारे में सुना होगा। पारस से जंग लगे लोहे को स्पर्श भी करा दिया जाए तो वह चौबीस कैरेट का खरा सोना बन जाता है। पत्रकारिता और साहित्य के क्षेत्र में विष्णु नागर ऐसा ही एक नाम है। उन्होंने जिस काम को भी हाथ लगाया, वे ख्याति के शिखर तक उसे लेकर गए।
     संघर्ष, संवेदनशीलता, सरोकार और सहजता की पूंजी के सहारे विष्णु नागर ने पत्रकारिता और फिर साहित्य में अपनी धमक दर्ज कराई। वर्ष 1974 में टाइम्स ऑफ इंडिया से बतौर ट्रेनी पत्रकार अपने पत्रकारीय जीवन की शुरुआत करने वाले विष्णु नागर ने आगे चलकर कई मीडिया संस्थानों में प्रभावी भूमिकाओं का सफलतापूर्वक निर्वाहन किया। नवभारत टाइम्स में उन्होंने सबसे लम्बी पारी खेली। यहां उन्होंने पूरे 23 साल तक अपनी सेवाएं दीं। 1998 में एचटी ग्रुप से जुड़कर हिंदुस्तान के नेशनल ब्यूरो में काम किया तो पांच साल तक कादंबिनी जैसी प्रतिष्ठित पत्रिका का संपादन भी किया। इसी बीच पत्रकारिता के क्षितिज पर चमचमाते हिन्दी के इस सितारे ने दुनिया के आकाश में भी भारत की बिन्दी को रोशन किया। विख्यात रेडियो सर्विस डायचेवेले के बुलावे पर विष्णु नागर जर्मनी गए। वहां दो साल तक डायचेवेले की हिन्दी सर्विस के संपादक के रूप में काम किया। 
      निरंतर कर्मशील विष्णु नागर ने मध्यप्रदेश के प्रतिष्ठित समाचार-पत्र नईदुनिया से जुड़कर उसे दिल्ली में मजबूत किया। उनके संपादकीय कार्यकाल के दौरान हिन्दी पत्रकारिता में संडे नईदुनिया ने एक खास मुकाम बनाया। प्रयोगधर्मी और कल्पनाशील विष्णु नागर के मन में सक्रिय पत्रकारिता से हटकर कुछ नया आकाश रचने की छटपटाहट होने लगी थी। उन्होंने आलोक मेहता को अपना इस्तीफा भेज दिया। लम्बी बातचीत के बाद बेमन से मेहता जी ने उनका इस्तीफा मंजूर किया। आखिर कोई भी 'पारस' को अपने से क्यों दूर होने देना चाहेगा? विचारों का संमन्दर अपने अन्दर समेटे विष्णु नागर ने साहित्य के लिए खाली समय का भरपूर उपयोग किया। हालांकि जल्द ही वे फिर से पत्रकारिता के मैदान में आकर डट गए। वे साप्ताहिक पत्रिका 'शुक्रवार' के सम्पादक हो गए। पाठकों की नब्ज को अच्छे से समझने वाले विष्णु नागर के संपादकीय कौशल से 'शुक्रवार' जल्द ही पहले से बाजार में मौजूद चोटी की समाचार पत्रिकाओं को टक्कर देने लगी। उनके हाथों की जादुई छुअन से होकर लगातार आ रहे शुक्रवार के साहित्यिक विशेषांक तो संग्रहणीय हैं। देशभर में पाठक शुक्रवार और विशेषांकों को चाव से पढ़ रहे हैं। पत्रकारिता पर जितनी पकड़ और अधिकार विष्णु नागर का है, उतना ही प्यार उन्हें साहित्य से भी है। उनकी कई कविताओं का अनुवाद अंग्रेजी, जर्मन और रूसी भाषा में हो चुका है।
     64 की उम्र में भी युवा जोश और ऊर्जा से भरे विष्णु नागर का बचपन बड़े कष्ट और संघर्ष के बीत बीता है। कंटक भरे मार्ग पर चलकर ही विष्णु नागर का व्यक्तित्व तपा है। कह सकते हैं उसी तप की ताकत से आज भी वे एक युवा की तरह हिन्दी पत्रकारिता और साहित्य दोनों की सेवा कर रहे हैं। 
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"बेहद सरल और सहज हैं विष्णु नागर जी। वे नए लोगों को लिखने के लिए हौसला देते हैं और प्रोत्साहित भी करते हैं। उन्हें नक्सलवाद पर एक स्टोरी भेजी थी, इसी विषय पर एक बड़े लेखक ने भी उन्हें स्टोरी भेज दी। उन्होंने मुझे फोन किया और स्टोरी प्रकाशित नहीं करने पर खेद जताया। ऐसा अमूमन कोई संपादक करता नहीं है।"
- आशीष कुमार अंशु, पत्रकार 

गुरुवार, 16 अक्तूबर 2014

स्कॉलर जर्नलिस्ट

 स्प ष्ट सोच, तर्कपूर्ण बात, साफगोई और बेबाकी का अद्भुत समन्वय अभय कुमार दुबे है। जब हम टीवी चैनल्स पर होने वाली लाइव बहस देखते हैं तो चख-चख तौबा-तिल्ला के बीच सार्थक बात और जनमानस से जुड़े सवालों की उम्मीद अभय कुमार दुबे से रहती है। वे इस भरोसे को निभाते भी हैं। जनता को बरगलाने वाले नेताओं और प्रवक्ताओं को वे अपने सटीक सवालों से कठघरे में खड़ा कर देते हैं। अपनी दूरदर्शिता और अंदाज-ए-बयां के चलते वे टीवी चैनल्स पर जनता से जुड़े मुद्दों पर होने वाली बहसों का अहम हिस्सा हो गए हैं।
                उत्तरप्रदेश के शहर इटावा में 29 सितम्बर, 1956 को जन्मे अभय कुमार दुबे ने आपातकाल में जेल काटते हुए बीए के पहले वर्ष का इम्तहान दिया और बाहर आकर दूसरे वर्ष का। स्नातक की परीक्षा पास करने के बाद फिर कॉलेज या विश्वविद्यालय में पढऩे की फुर्सत नहीं मिली। बाकी शिक्षा-दीक्षा राजनीतिक सक्रियता के दौरान कम्युनिस्ट पार्टी में काम करते हुए हुई। कम्युनिस्ट पार्टी और सांस्कृतिक क्षेत्र की अन्योन्यक्रिया पर प्रकाशित लेख 'कठोर फैसले देने की प्रवृत्ति' से श्री दुबे की तरफ भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) का ध्यान आकर्षित हुआ और वे पार्टी के कार्यकर्ता हो गए।
       उनके पिता देवीलाल दुबे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, समाजवादी नेता, पत्रकार-लेखक और ओजस्वी वक्ता थे। उन्हीं की कड़ी निगरानी में अभयजी ने पत्रकारिता का क-ख-ग सीखा। घर आए हिन्दी के यशस्वी पत्रकार बनारसी दास चतुर्वेदी से सीख पाई कि अभिव्यक्ति का कोई मौका कभी खोना नहीं चाहिए। इसे गांठ बांधकर इटावा से ही प्रकाशित पिता के अत्यंत लोकप्रिय अखबार 'दैनिक देशधर्म' में पत्रकारिता का अभ्यास शुरू किया। वर्ष 1980 में दिल्ली आकर जनसत्ता, माया, नवभारत टाइम्स, समकालीन तीसरी दुनिया, दिनमान, रविवार, भू-भारती, सरिता, हंस आदि में लेखन किया। इन दिनों अभयजी भाकपा (माले) के होलटायमरी कार्यकर्ता थे। छह साल बाद जब होलटायमरी छोड़ी तो पहले भू-भारती और फिर जनसत्ता में नौकरी की। जनसत्ता के सम्पादकीय पृष्ठों पर कई शोधपरक लेख लिखकर वे देशभर में चर्चा का केन्द्र बने। इस दौरान ही उन्होंने स्वतंत्र रूप से समाज-विज्ञान की विख्यात रचनाओं अनुवाद का काम शुरू कर दिया था। 1995-96 में सामाजिक चिंतन और विमर्श की मासिक पत्रिका 'समय चेतना' के 14 अंकों का भी संपादन श्री दुबे ने किया है। इस चक्कर में प्रभाष जोषी ने जनसत्ता से निकालने का प्रयास किया, इस कारण एक्सप्रेस समूह से लम्बा लेकिन कुछ मित्रतापूर्ण किस्म का विवाद चला।
       अभय कुमार दुबे वर्तमान में 'विकासशील समाज अध्ययन पीठ (सीएसडीएस) के भारतीय भाषा कार्यक्रम के निदेशक हैं। इस कार्यक्रम के तहत प्रकाशित 'लोक-चिंतक ग्रंथमाला' और लोक-चिंतन ग्रंथमाला' की सभी चर्चित कडिय़ों का सम्पादन उन्होंने किया है। उनके संपादन में वाणी प्रकाशन से साल में दो बार प्रकाशित होने वाली पत्रिका 'प्रतिमान' हमारे समय के सबसे महतवपूर्ण दस्तावेजों में से एक है।
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"अभय कुमार दुबे प्रोफेशनल स्कॉलर हैंl अपने गहन अध्ययन और स्पष्ट सोच के कारण पत्रकारिता जगत में उनकी एक अलग पहचान हैl"
- विजय बहादुर सिंह, वरिष्ठ समालोचक 

बुधवार, 15 अक्तूबर 2014

राष्ट्रवादी पत्रकार

 ब ल्देव भाई शर्मा के नाम में ही 'भाई' नहीं बल्कि उनके व्यवहार में भी अपने अधीनस्थों और सहयोगियों के प्रति बड़े भाई जैसा लाड़-प्यार रहता है। अपने इसी व्यवहार और विश्वास के बलबूते बल्देवभाई शर्मा ने हिन्दी पत्रकारिता में सम्मानित स्थान सुनिश्चित किया है। संयमित और अनुशासित जीवन, मुद्दों पर पैनी नजर रखने वाले बल्देवभाई शर्मा की पहचान है। 
       80 के दशक में मध्यप्रदेश के ग्वालियर शहर में 'पत्रकारिता की पाठशाला' स्वदेश से पत्रकारिता शुरू करने वाले बल्देवभाई शर्मा छत्तीसगढ़, हरियाणा, उत्तरप्रदेश और दिल्ली सहित अन्य प्रदेशों में कई अखबारों की जड़ें मजबूत कर चुके हैं। स्वदेश ग्वालियर से वे बतौर उपसंपादक जुड़े थे। स्वदेश प्रबंधन ने जल्द ही उनकी पत्रकारीय क्षमता और संगठन गढऩे के कौशल को पहचान कर उन्हें रायपुर संस्करण को लॉन्च करने की जिम्मेदारी दी। बल्देवभाई शर्मा ने सुनियोजित तरीके से रायपुर में स्वदेश की नींव रखी और बतौर संपादक उसे अन्य समाचार पत्रों के मुकाबले मजबूती के साथ खड़ा किया। बाद में वे दैनिक भास्कर के पानीपत और अमर उजाला के  वाराणसी संस्करण को सफलतापूर्वक लांच कराने के बाद दैनिक भास्कर के हरियाणा संस्करण में भी संपादक रहे। दिल्ली से प्रकाशित पाक्षिक नूतन पृथ्वी में एग्जीक्यूटिव एडिटर की भूमिका भी उन्होंने निभाई। पत्रकारिता को वे समाज में बदलाव लाने की ताकत मानते हैं। उनका मानना है कि सकारात्मक पत्रकारिता से देश की अधिकतर समस्याओं का निदान किया जा सकता है। 
       हिन्दी बेल्ट की पत्रकारिता में एक खास मुकाम हासिल कर चुके और 30 वर्ष से भी अधिक पत्रकारीय अनुभव की पूंजी के मालिक बल्देवभाई शर्मा राष्ट्रवादी पत्रकारिता के मजबूत स्तम्भ हैं। राष्ट्रवाद उनकी कथनी-करनी में सहज-सरल ढंग से बहता हुआ दिखता है। वर्ष 2008 में पाञ्चजन्य के संपादक होने के बाद पाञ्चजन्य और बल्देवभाई शर्मा दोनों ही खासे चर्चित हुए। पाञ्चजन्य में यह उनका दूसरा कार्यकाल था। इससे पहले तीन साल तक वे पाञ्चजन्य को अपनी सेवाएं दे चुके थे। बहरहाल, पांच साल के संपादकीय कार्यकाल में उन्होंने विद्वतापूर्ण लेखन और समझबूझ के साथ पाञ्चजन्य को नई ऊंचाइयां दीं और उसकी प्रतिष्ठा को बढ़ाया भी। हिन्दू आतंकवाद और सांप्रदायिक हिंसा रोकथाम विधेयक जैसे अनेक गहन राष्ट्रीय मुद्दों पर लिखे उनके दर्जनों संपादकीय लगातार मीडिया की सुर्खियां बने। अब वे नेशनल दुनिया के सीनियर एडिटर हैं, फिर भी न्यूज चैनल्स पर जब भी राष्ट्रवाद पर बहस होती है तो बल्देवभाई को शिद्दत से याद किया जाता है। वे तर्कों के साथ देश-दुनिया के सामने अपनी बात रखते हैं। उनसे मतभिन्नता रखने वाले लोग भी उनकी वाकपटुता के कायल हैं और उनकी शालीनता पर मुग्ध रहते हैं। 
        बड़ी संख्या में युवा पत्रकारों ने बल्देव भाई से सामाजिक और राष्ट्रीय सरोकारों की मूल्याधारित पत्रकारिता की सीख लेकर मीडिया में खास मुकाम बनाया है। इनमें से कई तो प्रमुख समाचार-पत्रों के संपादक हैं। यह उनकी सबसे बड़ी पूंजी है। बल्देव भाई शर्मा जैसे सात्विक और साफ-सुथरे लोग आज की पत्रकारिता में कम ही देखने को मिलते हैं। पत्रकारिता के इतने लम्बे सफर में उन पर कोई दाग नहीं लगा। वे कोयले की खान में हीरे की तरह निश्कलंक चमक रहे हैं। 
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" बल्देव भाई शर्मा ने पत्रकारिता को कभी करियर बनाने का जरिया नहीं बनाया वरन उन्होंने सदैव समाजोन्मुखी पत्रकारिता की। हिन्दी पत्रकारिता में बल्देव भाई एक प्रमुख हस्ताक्षर हैं। उनके व्यक्तित्व की बात की जाए तो वे बड़े सरल हृदय के हैं। प्रत्येक व्यक्ति के लिए सहज हैं। कर्मठ हैं। सादगी पसंद हैं। " 
- यशवंत इंदापुरकर, पत्रकार एवं सामाजिक कार्यकर्ता

मंगलवार, 7 अक्तूबर 2014

नदी नहीं बची तो हम कहां बचेंगे

 स ब जानते हैं कि नदियों के किनारे ही अनेक मानव सभ्यताओं का जन्म और विकास हुआ है। नदी तमाम मानव संस्कृतियों की जननी है। प्रकृति की गोद में रहने वाले हमारे पुरखे नदी-जल की अहमियत समझते थे। निश्चित ही यही कारण रहा होगा कि उन्होंने नदियों की महिमा में ग्रंथों तक की रचना कर दी और अनेक ग्रंथों-पुराणों में नदियों की महिमा का बखान कर दिया। भारत के महान पूर्वजों ने नदियों को अपनी मां और देवी स्वरूपा बताया है। नदियों के बिना मनुष्य का जीवन संभव नहीं है, इस सत्य को वे भली-भांति जानते थे। इसीलिए उन्होंने कई त्योहारों और मेलों की रचना ऐसी की है कि समय-समय पर समस्त भारतवासी नदी के महत्व को समझ सकें। नदियों से खुद को जोड़ सकें। नदियों के संरक्षण के लिए चिंतन कर सकें। हर तीन साल में देश के चार अलग-अलग संगम स्थलों पर लगने वाला कुंभ भी इसी चिंतन परंपरा का सबसे बड़ा उदाहरण है। 'नद्द: रक्षति रक्षित:' (नदी संरक्षण) विषय पर आहूत 'मीडिया चौपाल' को ऐसे ही उदाहरण की श्रेणी में रखा जा सकता है। नदी संरक्षण के लिए वेब संचालकों, ब्लॉगर्स एवं जन-संचारकों के जुटान का स्वागत किया जाना चाहिए। 'विकास की बात विज्ञान के साथ : नये मीडिया की भूमिका' और 'जन-जन के लिए विज्ञान और जन-जन के लिए मीडिया' जैसे महत्वपूर्ण विषयों पर पिछले दो वर्षों में मीडिया चौपाल का सफल आयोजन भोपाल में हो चुका है। तीसरी मीडिया चौपाल दिल्ली में भारतीय जनसंचार संस्थान के परिसर में जमेगी। भारत की लगभग सभी नदियों और उससे जुड़े जीवों (मनुष्य भी शामिल) के सम्मुख जब जीवन का संकट खड़ा हो तब संवाद के नए माध्यम 'सोशल मीडिया' की पहुंच, प्रयोग और प्रभाव का नदी संरक्षण के लिए उपयोग करने पर मंथन करना अपने आप में महत्वपूर्ण और आवश्यक पहल है। 
         नदी संरक्षण में सोशल मीडिया की कितनी अहम भूमिका हो सकती है, इसे सब समझते हैं। सोशल मीडिया की ताकत और प्रभाव की अनदेखी शायद ही कोई करे। पिछले चार-पांच वर्षों में सोशल मीडिया का प्रभाव जोरदार तरीके से बढ़ा है। सस्ते स्मार्टफोन की बाढ़ ने तो ज्यादातर लोगों को सोशल मीडिया का सिपाही बना दिया है। यह आम आदमी का अपना अभिव्यक्ति का माध्यम बन गया है। इसका उपयोग सहज है, इसलिए यह मीडिया अधिक सोशल हो गया है। दोतरफा संवाद, बिना रोक-टोक के अपनी बात कहने की आजादी और सहज उपलब्धता के कारण आम आदमी ने इसे हाथों-हाथ लिया है। स्वयं को अभिव्यक्त करने के साथ-साथ आदमी यहां सार्थक संवाद भी कर रहा है। पिछली सरकार को अपने कई फैसले इसलिए वापस लेने पड़े क्योंकि सोशल मीडिया पर उनके खिलाफ जमकर माहौल बनाया गया था। लोक कल्याण के लिए बनाई गईं कमजोर नीतियों पर जोरदार बहस आयोजित हुईं। सोशल मीडिया का ही असर है कि समाज में फिर से राजनीतिक चेतना बढ़ी है। राजनीति को कीचड़ की संज्ञा देकर इससे बचने वाले युवा भी सोशल मीडिया के माध्यम से भारतीय राजनीति का स्वास्थ्य सुधारने का प्रयास कर रहे हैं। क्रांति की अलख जगा रहे हैं। भारत के संदर्भ में देखें तो अन्ना हजारे के आंदोलन को खाद-पानी सोशल मीडिया ने ही दिया। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इसका सबसे बेहतर उपयोग कर इसकी ताकत और लोकप्रियता को जग-जाहिर कर दिया है। भारतीय जनता पार्टी की अभूतपूर्व जीत और कांग्रेस की ऐतिहासिक हार की कहानी कहीं न कहीं सोशल मीडिया पर ही लिखी जा रही थी। 'तहलका' की एक रिपोर्ट के मुताबिक पेशेवर आंदोलनकारी भी सोशल मीडिया का जमकर इस्तेमाल कर रहे हैं। यानी इस प्रभावशाली माध्यम का उपयोग हर कोई कर रहा है। राजनेता से लेकर अभिनेता और तमाम चर्चित शख्सियतें रोज ट्विटर, फेसबुक और ब्लॉग सहित अन्य सोशल मंचों से जुड़ रहे हैं। इन सबके बीच पर्यावरण से जुड़े लोग ही कहीं पीछे खड़े दिखते हैं। नदी और मानव जाति का कल बचाने के लिए उन्हें और हमें भी सोशल मीडिया पर सक्रियता बढ़ानी होगी। सोशल मीडिया के माध्यम से जन जागरण करना होगा। आखिर नदी बचाने के लिए हमें अपनी सामाजिक जिम्मेदारी को स्पष्टतौर पर समझना ही होगा। सामाजिक जिम्मेदारी तय करने के लिए संचार के सामाजिक माध्यम से अच्छा मंच कहां हो सकता है। बस, जरूरत है इस दिशा में सार्थक और सामूहिक प्रयास करने की। मीडिया चौपाल के प्रयास से यह संभव हो सके तो कितना सुखद होगा। 
        अब जरा एक नजर नदियों की स्थिति पर भी डाल लेते हैं ताकि हम अपनी जिम्मेदारी को ठीक से समझ लें और उसे अधिक वक्त के लिए टालें नहीं बल्कि तत्काल नदी संरक्षण में अपनी भूमिका तलाश लें। नदियां हमें जीवन देती हैं लेकिन विडम्बना देखिए कि हम उन्हें नाला बनाए दे रहे हैं। मोक्षदायिनी श्री गंगा भी इससे अछूति नहीं है। मां गंगा का आंचल उसके स्वार्थी पुत्रों ने कुछ जगहों पर इतना मैला कर दिया है कि उसके वजूद पर ही संकट खड़ा हो गया है। धार्मिक क्रियाकलापों से गंगा उतनी दूषित नहीं हो रही जितनी कि तेजी से बढ़ती हुई जनसंख्या, जीवन के निरंतर ऊंचे होते हुए मानकों, औद्योगिकीकरण और शहरीकरण के हुए अत्यधिक विकास के कारण मैली हो रही है। गंगा सहित अन्य नदियों के प्रदूषित होने का सबसे बड़ा कारण सीवेज है। बड़े पैमाने पर शहरों से निकलने वाला मल-जल नदियों में मिलाया जा रहा है जबकि उसके शोधन के पर्याप्त इंतजाम ही नहीं हैं। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने अपने अध्ययन में कहा है कि देशभर के ९०० से अधिक शहरों और कस्बों का ७० फीसदी गंदा पानी पेयजल की प्रमुख स्रोत नदियों में बिना शोधन के ही छोड़ दिया जाता है। कारखाने और मिल भी नदियों को प्रदूषित कर रहे हैं। हमने जीवनदायिनी नदियों को मल-मूत्र विसर्जन का अड्डा बनाकर रख दिया है। नदियों में सीवेज छोडऩे की गंभीर भूल के कारण ग्वालियर की दो नदियां स्वर्णरेखा नदी और मुरार नदी आज नाला बन गई हैं। इंदौर की खान नदी भी गंदे नाले में तब्दील हो गई है। कभी इन नदियों में पितृ तर्पण, स्नान और अठखेलियां करने वाले लोग अब उनके नजदीक से गुजरने पर नाक-मुंह सिकोड़ लेते हैं। यह स्थिति देश की और भी कई नदियों के साथ हुई है। देश की ७० फीसदी नदियां प्रदूषित हैं और मरने के कगार पर हैं। इनमें गुजरात की अमलाखेड़ी, साबरमती और खारी, आंध्रप्रदेश की मुंसी, दिल्ली में यमुना, महाराष्ट्र की भीमा, हरियाणा की मारकंडा, उत्तरप्रदेश की काली और हिंडन नदी सबसे ज्यादा प्रदूषित हैं। गंगा, नर्मदा, ताप्ती, गोदावरी, कृष्णा, कावेरी, महानदी, ब्रह्मपुत्र, सतलुज, रावी, व्यास, झेलम और चिनाब भी बदहाल स्थिति में हैं।
         भारत सरकार ने करोड़ों रुपये जल और नदी के संरक्षण पर खर्च कर दिए हैं लेकिन नतीजा ढाक के तीन पात ही है। नदियां साफ-स्वच्छ होने की जगह और अधिक मैली ही होती गई हैं। आखिर नदियों को बचाने की रणनीति में कहां चूक होती रही है? क्यों हम अपनी नदियों को मैला होने से नहीं बचा पा रहे हैं? क्या किया जाए कि नदियों का जीवन बच जाए? क्या उपाय करें कि नदियां नाला न बनें? इन सब सवालों पर मंथन जरूरी है। समाज का जन जागरण जरूरी है। प्रत्येक भारतवासी को यह याद दिलाने की जरूरत है कि नदी नहीं बचेगी तो हम भी कहां बचेंगे? नदी के जल की कल-कल है तो कल है और जीवन है। नदियों में मल-मूत्र (सीवेज) और औद्योगिक कचरा छोडऩा सरकार को तत्काल प्रतिबंधित करना चाहिए। नदियों के संरक्षण के अभियान में अब तक समाज की भागीदारी कभी सुनिश्चित नहीं की गई। जबकि समाज को उसकी जिम्मेदारी का आभास कराए बगैर नदियों का संरक्षण और शुद्धिकरण संभव ही नहीं है। यह आंदोलन है, भले ही सरकारी योजना की शक्ल में है। हम जानते हैं कि समाज की सक्रिय भागीदारी के बिना कोई भी आंदोलन अपने लक्ष्य को नहीं पा सकता। मीडिया चौपाल पर होने वाले मंथन में इन सब सवालों पर गंभीर विमर्श होना चाहिए। जन संचार के माध्यमों से जुड़े लोगों को अपनी भूमिका तय करने के साथ ही इस आंदोलन को समाज के बीच ले जाने के लिए भी प्रयास करने चाहिए। 'हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए, इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।' कवि दुष्यंत कुमार की ये पंक्तियां मीडिया चौपाल में सबसे लिए प्रेरणा और पथ-प्रदर्शन का काम करें तो निश्चित ही नदी संरक्षण की दिशा में एक बड़ी मुहिम शुरू हो सकती है। 

शुक्रवार, 3 अक्तूबर 2014

मन के रावण को मारो, राम बनो

 द शहरा प्रतीक का पर्व है। बुराई की हार और अच्छाई की जीत का प्रतीक पर्व। शक्ति स्वरूपा मां दुर्गा की साधना, उपासना के साथ ही आध्यात्मिक और सद्शक्तियों के जागरण के पर्व नवरात्र के दौरान ही बुराइयों के पिण्ड रावण को जलाने के लिए सब ओर तैयारियां शुरू हो जाती हैं। मोहल्लों में रहने वाले बच्चे खुद ही रावण तैयार कर रहे होते हैं जबकि बड़ी मंडलियां बाजार से बड़े से बड़ा 'रेडीमेड' रावण खरीदने के लिए चंदा जमा करते हैं। अंतत: छोटे-बड़े सभी रावणों को गली-मैदान में स्वाह कर उल्लास मनाते हैं कि बुराई का अंत कर दिया। सब माया है। सब कर्मकाण्ड है। गली-मैदानों में धूं-धूं कर पुतला ही जलता है, रावण तो जिन्दा रहता है। हम सबके भीतर। तैयारी उसे मारने की होनी चाहिए। भीतर का रावण एक तीर से नहीं मरता, उसके लिए रोज सजग रहना पड़ता है कमान खींचकर, जैसे ही सिर उठाए, तीर छोड़ देना होता है। कई दिन तो रोज उसे मारना पड़ता है। इसके बाद फिर समय-समय पर उसका वध करना होता है। यह सतत प्रक्रिया है। लेकिन, हम मार किसे रहे हैं, बाहर के रावण को, वह भी पुतले को। असल रावण तो जीते रहते हैं, हम में और तुम में। ये हम और तुम का रावण मर गया फिर सब ठीक हो जाएगा। अब सवाल यह है कि आखिर भीतर कौन-सा रावण बैठा है। जैसा कि हम जानते हैं कि रावण दस बुराइयों का प्रतीक है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, अहंकार, आलस्य, हिंसा और चोरी। ये रावण के दस सिर हैं। दशहरा इन्हीं दस प्रकार के पापों के परित्याग की प्रेरणा देता है। दशहरा दस पापों को हरने का पर्व है। भगवान श्रीराम का युद्ध इन्हीं दस पापों से था। रावण के इन्हीं दस पापों को परास्त कर श्रीराम महापराक्रमी बने। पूज्य और आराध्य बने। समाज के प्रेरणास्त्रोत बने। दस प्रकार के पापों के पिण्ड रावण को जलाना ही प्रत्येक मनुष्य की प्राथमिकता होनी चाहिए। यदि मनुष्य अंतर्मन में छिपकर बैठे इन रावणों को मार सका तो सही अर्थों में वह श्रीराम के दिखाए मार्ग पर चल रहा है। इन बुराइयों पर विजय पाने का सामथ्र्य हर किसी में है, हर किसी के भीतर राम भी बैठे हैं। तो अपने भीतर के राम को पहचानो। रोज रावण मारो और राम बनो। 
ध्यान देने की बात यह है कि काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, अहंकार, आलस्य, हिंसा और चोरी, ये दस पाप ही मनुष्य को रावण बनाते हैं। ये पाप आपस में संबद्ध हैं। एक दूसरे से जीवन पाते हैं। इसके अलावा प्रत्येक पाप के भी दस-दस सिर हैं। एक भी पाप भीतर जिंदा है तो सब जिंदा हैं। इसलिए सबका अंत जरूरी है। काम में अंधा होकर ख्यातनाम व्यक्तित्व भी धूमिल हो जाता है, क्षणभर में। सिर्फ व्यक्तित्व ही धूमिल नहीं होता बल्कि उसके साथ जुड़े मानबिन्दुओं पर भी प्रश्न चिह्न खड़े होते हैं। यदि धार्मिक चोला ओढ़कर बैठा व्यक्ति काम का शिकार हो जाता है तो लोगों का विश्वास डिगता है। इसका फायदा धर्म-परंपरा विरोधी लोग उठाते हैं। धर्म-परंपरा के नाम पर अपना जीवनयापन कर रहे चारित्रिक रूप से कमजोर व्यक्ति की आड़ में धर्म विरोधी लोग हमलावर भूमिका में आ जाते हैं। वे संबंधित धर्म पर आक्षेप लगाते हैं। परंपराओं पर अंगुली उठाते हैं। हालांकि जिस धर्म और समाज पर अगुंली उठाई जा रही होती है, वह धर्म और समाज ही चारित्रिक रूप से पतित व्यक्ति को स्वीकार नहीं करता है। रावण को प्रकांड ब्राह्मण बताया जाता है लेकिन इसके बावजूद हिन्दू समाज में उसका आदर नहीं है। कारण, उसका अमर्यादित आचरण। इसलिए आपने जीवनभर नाम रूपी जो पूंजी कमाई है, उसे बचाए रखना चाहते हैं, अपनी आने वाली पीढ़ी को हस्तांतरित करना चाहते हैं तो वासना रूपी रावण का अंत बार-बार करते रहिए।
मनुष्य जब विवेकशून्य हो जाता है, तब उसे क्रोध आता है। क्रोध में वह सदैव ऐसा निर्णय लेता है जिस पर उसे बाद में पश्चाताप होता है। सच मायने में क्रोध के वक्त व्यक्ति सारी मनुष्यता खो देता है। वह रावण बन जाता है। क्रोध में ही मनुष्य अपनी सबसे प्रिय वस्तु का भी नाश कर देता है। हत्या तक कर देता है। समाज और राष्ट्र के संदर्भ में देखें तो हड़ताल, प्रदर्शन और दंगे में हम क्या करते हैं? क्रोध के गुलाम होकर मनुष्यों की क्षति, समाज की क्षति, राष्ट्रीय संपत्ति की क्षति, स्वयं की क्षति और अपनी आत्मा की क्षति। क्रोध पर विजय पाना हमारी प्राथमिकता में होना चाहिए। 
हम ध्यानपूर्वक देखें कि लोभ के कारण आज देश की क्या स्थिति है? आम समाज को क्या नुकसान हो रहा है? लोभ मनुष्य को भ्रष्टाचारी बनाता है। लोभ ही बेईमान भी बनाता है। लोभ पर शुरुआत से ही काबू नहीं किया गया तो यह बढ़ता ही जाता है। यह कभी-भी कम नहीं होता। लोभी मनुष्य ने पहले हजारों के घोटाले किए फिर लाखों के और अब लाखों के घोटाले उनके लिए घोटाले ही नहीं हैं। क्योंकि लोभ बढ़ गया। यानी भ्रष्टाचार की सीमा बढ़ गई। देश-समाज का नुकसान ज्यादा बढ़ गया। यही हाल मोह का है। मोह में पड़कर आदमी क्या नहीं कर रहा। अपनी जिम्मेदारी भूल गया है। स्वकेन्द्रित होकर रह गया है। अपने परिवार के लिए समाज और देश के साथ बेईमानी भी कर रहा है। 
दशहरा चूंकि शक्ति का पर्व है। इस दिन क्षत्रिय अपने हथियारों की पूजा करते हैं। पूर्वजों ने समाज को एक संदेश देने की कोशिश की है कि ताकत हासिल कीजिए। साथ में यह भी संकेत कर दिया कि इसका दुरुपयोग मत कीजिए। समाज में अपनी प्रतिष्ठा के मद में चूर मत होईए। प्रभावशाली होने का अंहकार मत पालिए। शक्ति का उपयोग हिंसा के लिए मत कीजिए। गरीब, असहाय पर अपनी ताकत का प्रदर्शन नहीं करें बल्कि उनकी रक्षा के लिए आगे खड़े रहें। लेकिन, समाजकंटकों को यह आभास भी दिलाते रहिए कि आप शक्तिशाली हैं ताकि वह आपकी ओर, आपके समाज और देश की ओर आंख दिखाने की हिम्मत न जुटा सके। दरअसल, कमजोर को हर कोई दबाना चाहता है। भारतीय राजनीति इसका अच्छा उदाहरण है। यहां बाहुबली नेतागिरी कर रहे हैं। कमजोर की कोई पूछ नहीं। जो शक्तिशाली है, संगठित वोट बैंक हैं उनकी भारतीय राजनीति में भारी पूछपरख है, मौज भी उनकी ही है। शासन की योजनाएं भी उनके लिए हैं जबकि असंगठित बहुसंख्यक समाज की फिक्र तक किसी को नहीं। उसकी भावनाएं भी जाती रहें चूल्हे में। 
        मजबूत और शक्तिशाली दिखने की जरूरत जितनी व्यक्तिगत स्तर पर है, उससे कहीं अधिक एक देश के लिए आवश्यक है। इजराइल के संबंध में इसे समझा जा सकता है। इजराइल छोटा-सा देश है लेकिन साहस उसका किसी ऊंचे पर्वत से भी विशाल है। सब ओर से शत्रु देशों से घिरा है लेकिन मजाल है कि कोई उसकी तरफ आंख उठाकर देख जाए। इजराइल ने अपनी शक्तिशाली छवि यूं ही नहीं बनाई है। उसने करके दिखाया है। अपने शत्रुओं को ईंट का जवाब पत्थर से दिया है। जबकि भारत और पाकिस्तान में ऐसा नहीं दिखता। पाकिस्तान बार-बार गुर्राता है। भारत की ओर आंखें तरेरता है। चार युद्ध हारने के बाद भी उसकी इतनी हिम्मत भारत के कमजोर नेतृत्व के कारण है। भारत सरकार बार-बार उसके अमर्यादित व्यवहार को माफ करती है। जबकि होना यह चाहिए कि पाकिस्तान की ओर से कोई संदिग्ध गतिविधि की आशंका दिखे तो घटना घटने से पहले ही भारत की ओर से कार्रवाई कर दी जानी चाहिए। यदि ऐसा हो जाए तो पाकिस्तान की अक्ल ठिकाने आ जाए। वह भारत विरोधी कदम उठाने से पहले सौ बार सोचेगा। अब समय चीन को भी चेताने का आ गया है। वह भी बार-बार सीमा का उल्लंघन कर रहा है। 
         दशहरा महज उल्लास का पर्व नहीं है। बल्कि बहुत कुछ संकेत की भाषा में बताने की कोशिश करता है। अपने भीतर के तमाम रावणों को मारो-जलाओ बाकि बाहर सब ठीक हो जाएगा। खुद सशक्त बनो तो समाज ताकतवर बनेगा और देश को भी मजबूती मिलेगी। माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों ने अपने वार्षिक उत्सव में लघु नाटक 'प्रतीकात्मक रामायण' का मंचन किया। यह उद्देश्यपूर्ण, सार्थक और प्रभावशाली प्रस्तुति रही। 'प्रतीकात्मक रामायण' के निर्देशक और लेखक मयंक मिश्रा ने रावण के दस सिरों को दस बुराइयों का प्रतीक माना। राम ने एक-एक कर इन बुराइयों का सर्वनाश कर रावण पर विजय प्राप्त की। रावण दरअसल हम सबके भीतर बैठे पापों का ही नाम है। जब ये पाप हावी हो जाते हैं तो मनुष्य रावण बन जाता है। मनुष्य रावण न बने इसलिए रोज इन बुराइयों को मारते रहे। प्रतीकों के माध्यम से दशहरे का यही संदेश है।