शुक्रवार, 27 जून 2014

विकास के लिए जरूरी है स्वदेशी मॉडल

 भा रत १५ अगस्त, १९४७ को आजाद हुआ। प्रधानमंत्री की कुर्सी हासिल करने में जवाहरलाल नेहरू ने सफलता पाई। हालांकि देश सरदार वल्लभ भाई पटेल को अपना मुखिया चुनना चाहता था और चुना भी था। लेकिन, महात्मा गांधी की भूल कहें या जवाहरलाल नेहरू की जिद, सरदार को सदारत नहीं मिल सकी। बहरहाल, देश सशक्त हो, विकास के पथ पर तेजी से आगे बढ़े, इसके लिए जब नीतियां बनाने की बारी आई तो हमारे पहले प्रधानमंत्री ने विवेकानंद, गांधी, विनोबा और अरविन्द के विचारों की अनदेखी की। जवाहरलाल नेहरू विदेश में पढ़े-लिखे थे। उससे भी ज्यादा वे पश्चिम की चकाचौंध और साम्यवादी विचारधारा की गिरफ्त में भी थे। भारत के मानस को शायद वे नहीं समझ सके। यही कारण था कि उनके नेतृत्व में बनी नीतियों पर पश्चिमी और साम्यवादी मॉडल की स्पष्ट छाप देखी गई। गांधी के रामराज्य की परिकल्पना को कहीं अंधेरे में धकेल दिया गया। महात्मा की ग्रामवासिनी भारतमाता की चिंता भी उस व्यक्ति ने नहीं की जो गांधी के हस्तक्षेप के कारण ही प्रधानमंत्री बना। शहरों के विकास को प्राथमिकता दी गई, वह भी विकास के विदेशी मॉडल के आधार पर। गांधीजी को नजरअंदाज करने वाले जवाहरलाल नेहरू ने विवेकानंद, अरविन्द, विनोबा, दीनदयाल और लोहिया के स्वदेशी चिंतन पर क्या कान दिया होगा, आज हम आसानी से समझ सकते हैं। प्रारंभ से पड़ी लीक से हटकर स्वदेशी मॉडल को विकसित करने में अब तक किसी ने रुचि नहीं दिखाई है। पश्चिम का पिछलग्गू बनकर हम आधुनिकता में भी पिछड़े ही रह गए। दूसरे के रंग में रंगकर हमने अपनी मौलिकता भी खो दी। कोई भी देश अपने स्वाभिमान, अतीत-वर्तमान के गौरव और स्वचिंतन के आधार पर ही आगे बढ़ सकता है, इस बात को भूलना नहीं चाहिए। भारत के आसपास ही चीन और जापान सहित अन्य देश आजाद हुए थे। आज चीन और जापान कहां है और हम कहां? जापान पर तो अमरीका ने परमाणु बम गिराकर उसकी कमर तक तोड़ दी थी। इसके बावजूद उसका हौसला कम नहीं हुआ। उसने अपने विकास का अपना मॉडल बनाया। नतीजा आज वह दुनिया के शीर्षस्थ देशों में से एक है। चीन और जापान विकसित देश हैं और हम अब भी विकासशील।
          किसी भी देश की अपनी संस्कृति होती है। उसकी अपनी भाषा-बोली, संचार की व्यवस्था होती है। उसकी अपनी भौगोलिक स्थिति होती है। उसकी अपनी पारिवारिक और सामाजिक संरचना होती है। किसी भी देश के विकास की नीतियां जब बनाई जाती हैं तो ये तथ्य ध्यान में रखने होते हैं। देश के मानस को समझना होता है। कोई भी नीति जब इन तथ्यों को ताक पर रखकर और विदेशी चकाचौंध को देखकर बनाई जाती है तो उसकी सफलता संदिग्ध हो जाती है। इसे एक सहज उदाहरण से समझ सकते हैं। किर्सी स्थूलकाय आदमी के नाप से पेंट सिलाकर किसी कृषकाय व्यक्ति को पहनाई जाएगी तो हास्यास्पद स्थिति ही बनेगी। संसाधनों का उपयोग कर पेंट तो सिलवा ली लेकिन क्या वह किसी काम आ रही है? ऐसी पेंट का क्या किया जाए? इस देश में यही हुआ। सरकारों ने देश की जरूरत को नहीं समझा, उसके मानस को नहीं समझा। साठ साल में विकास का स्वदेशी मॉडल भी तय नहीं कर सके। २०० साल की गुलामी की विरासत में अंग्रेज जो सौंप गए हमारे नेता उसे ही आगे बढ़ाते रहे हैं। दरअसल दोष उनका नहीं, बल्कि उनकी शिक्षा का था। शिक्षा को लेकर मैकाले की नीति से हम सब वाकिफ हैं। भारत को सदैव मानसिक रूप से पश्चिम को गुलाम बनाने के लिए किस तरह उसने भारतीय शिक्षण प्रणाली को ध्वस्त किया। अंग्रेजियत के बुखार से पीडि़त हमारे नीति निर्माताओं के मन में यह बात गहरे पैठ गई थी कि जो कुछ पश्चिम में हुआ और हो रहा है, वह निश्चित ही श्रेष्ठ है। पश्चिम ही बेहतर है, इस व्याधि से ग्रस्त नेतृत्व क्यों स्वदेशी मॉडल की चिंता करने लगा। वह तो उसी पश्चिमी मॉडल को हम पर लादने को आतुर था, जिसकी जरूरत और समझ इस देश की ७० फीसदी आबादी को नहीं थी, लेकिन उसे पश्चिमी मॉडल से ब्लाइंड लव था। गांधीजी के स्वदेशी विकास के मॉडल में गांवों का विकास प्राथमिकता में था जबकि नेहरू की प्राथमिकता शहरों का विकास थी। भारत कृषि प्रधान देश है। उस वक्त कृषि उत्पादन में हम शीर्ष पर थे। यह हमारी ताकत थी। हमारे नेतृत्व ने इसकी अनदेखी की। जब आप अपनी ताकत की अनदेखी करते हैं तो निश्चित ही मुश्किल का सामना करना पड़ता है। बहुसंख्यक समाज की अनदेखी का ही नतीजा है कि स्थितियां बद से बदतर होती जा रही हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य, जीवनस्तर, पर्यावरण, शहरीकरण और औद्योगिकीकरण की क्या स्थिति है? सब वाकिफ हैं। एक भी क्षेत्र में हम मजबूती के साथ नहीं खड़े हैं। जब नींव ही खोखली है तो इमारत का कमजोर होना निश्चित है। हजारों लोगों के बलिदान और संघर्ष से हासिल स्वाधीनता के बाद व्यवस्था में हम क्या बदलाव लाए, सोचने की बात है। सत्ता सुख ध्येय हो जाए तो देश की चिंता रहती किसे है। देश के विकास के लिए नई नीतियां बनाना तो छोडि़ए हमारे राजपुरुष तो अंग्रेजों के बनाए कानूनों और व्यवस्थाओं को अब तक घसीट रहे हैं। राजनीति अब समाजसेवा का माध्यम नहीं रही बल्कि भोग-विलास का साधन बनकर रह गई है। समाज के लिए स्वयं को खपाने वाले लोग अब राजनीति में बहुत खोजने पर ही मिलेंगे। 
            अदूरदर्शी सोच और गलत नीतियों के फलस्वरूप ६० साल बाद हम कहां खड़े हैं? गरीब और गरीब होता जा रहा है। अमीर दोगुनी-चौगुनी गति से अमीर हो रहा है। एक छोटा-सा घर तो छोडि़ए जनाब ६० फीसदी से अधिक आबादी को दो जून की रोटी जुटाना मुश्किल हो रहा है। पश्चिमी मॉडल के कारण आज पर्यावरण जो क्षति पहुंची है, वह रोंगटे खड़े कर देने वाली है। युवा ताकत को हम पहचान नहीं रहे, उनके हाथों को काम नहीं दे पा रहे हैं, हमारी सरकारों ने समय के साथ बेरोजगारों की फौज खड़ी कर दी है। तकनीक और उत्पादन में हम कहां हैं? शिक्षा का स्तर क्या है? भारत कितना स्वस्थ है? ऐसे तमाम सवाल हैं जो हुक्कामों का मुंह नोंचने के लिए छटपटा रहे हैं। वाजिब सवाल निरुत्तर खड़े बैचेन-से हैं। होना यह था कि जब हमारे हाथ में सत्ता की चाबी आई थी तब ही तय करना था कि हमें जाना किधर है? भारत के मानस को समझकर विकास का मॉडल तय करना चाहिए था। एकात्म मानववाद के जनक पं. दीनदयाल उपाध्याय के कतार के अंतिम व्यक्ति की चिंता का मॉडल बनना चाहिए था। महात्मा गांधी के रामराज्य की अवधारणा को समझना चाहिए था। भारत की तासीर को पहचान कर, महसूस करके, उसके अनुरूप नीतियां बनानी थी। ऐसा मॉडल बनना चाहिए था जिसमें व्यक्ति, परिवार, समाज, नगर, राज्य और देश की जरूरतों को ध्यान में रखा जाता। स्वदेशी और सर्वस्पर्शी मॉडल के जरिए ही हम दुनिया के सामने 'मॉडल' के रूप में स्थापित हो सकते थे। 

गुरुवार, 19 जून 2014

चुनाव और राजनीति की रिपोर्टिंग सिखाती किताब

 ते ज रफ्तार इलेक्ट्रोनिक मीडिया के महत्वपूर्ण और प्रमुख संवाददाता की जिंदगी भागम-भाग की होती है। वह भारत की वाचक परंपरा का प्रतिनिधि होता है। नियमित लेखन के लिए समय निकालने वाले इलेक्ट्रोनिक मीडिया के पत्रकार विरले ही होते हैं। एबीपी न्यूज के मध्यप्रदेश के ब्यूरोचीफ बृजेश राजपूत ऐसे ही हैं। लिखने की धुन और जुनून उनके भीतर है। टीवी स्क्रीन पर नित्य-प्रतिदिन छाए रहने वाले बृजेश राजपूत अखबारों और पत्रिकाओं में भी नियमित छपते रहते हैं। दैनिक जागरण से अपने पत्रकार जीवन की शुरुआत करने वाले बृजेश राजपूत दैनिक भास्कर में होते हुए डीडी मेट्रो के मार्फत इलेक्ट्रोनिक मीडिया में पहुंचे। एक दशक से भी अधिक वक्त से वे इलेक्ट्रोनिक मीडिया को जी रहे हैं और उसे नजदीक से देख रहे हैं। बीते दस वर्षों में मध्यप्रदेश की राजनीति में आए उतार-चढ़ाव को भी उन्होंने बेहद करीब से देखा है। इसलिए जब बृजेश राजपूत 'चुनाव, राजनीति और रिपोर्टिंग' पर किताब लिखते हैं तो वह न केवल राजनीति में रुचि रखने वालों के लिए महत्वपूर्ण दस्तावेज होती है बल्कि मीडिया में आने की तैयारी कर रहे विद्यार्थियों के लिए भी जरूरी बन जाती है। उनकी किताब 'चुनाव, राजनीति और रिपोर्टिंग' मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव-२०१३ पर केन्द्रित है। 
           मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव-२०१३ कई मायनों में अहम था। यह चुनाव आम आदमी के नेता की छवि वाले शिवराज सिंह चौहान की लोकप्रियता की परीक्षा था तो केन्द्र की सत्ता के लिए होने वाले महासंग्राम का सेमीफाइनल भी था। ऐतिहासिक भ्रष्टाचार और घोटालों से किरकिरी करा चुकी कांग्रेस भी पांच राज्यों में एक साथ हो रहे इन चुनावों के माध्यम से अपनी ताकत को समेटना चाहती थी। मध्यप्रदेश में उसे उम्मीद अधिक थी। भाजपा लगातार दो बार से सत्ता में थी इसलिए कांग्रेस सोच रही थी कि भाजपा के खिलाफ एंटीइनकम्बेंसी होगी। यही कारण रहा कि पूरी ताकत के साथ रणक्षेत्र में डटने के लिए कई धड़ों में बंटी कांग्रेस को एकजुट होने के स्पष्ट संकेत राहुल गांधी ने दिए थे। एकजुटता के प्रयास हुए भी लेकिन सिर्फ दिखाने के लिए। मध्यप्रदेश के चुनाव में रोचक मोड़ तब आया जब कांग्रेस की ओर से चुनाव प्रबंधन समिति का अध्यक्ष केन्द्रीय मंत्री और ईमानदार छवि के युवा ज्योतिरादित्य सिंधिया को बनाया गया। खैर, चुनाव की चर्चा को छोड़ते हैं, चुनाव आंखों देखा हाल तो आप बृजेश राजपूत की इस पुस्तक में पढ़ ही सकते हैं। पुस्तक बेहद सरल और सहज प्रवाह में लिखी गई है। लेखक की भाषा-शैली ऐसी है कि वरिष्ठ टीवी पत्रकार रवीश कुमार भी लिखते हैं- 'किताब को पढ़ते वक्त लगा कि कोई चुनाव के बाद किस्सा सुना रहा है और इस तरह सुना रहा है कि जैसे इस वक्त चुनाव हो रहे हों। एकदम लाइव कमेंट्री की तरह।'
          किताब की बात करें तो 'चुनाव, राजनीति और रिपोर्टिंग' को आप तीन हिस्सों में रखकर देख सकते हैं। शुरू के पहले हिस्से में लेखक ने यह बताने की कोशिश की है कि चुनाव पर यह किताब क्यों लिखी गई है। उन्होंने यह भी बताया कि चुनाव रिपोर्टिंग क्यों और कैसे की जाती है या की जानी चाहिए। यह हिस्सा खासकर मीडिया के विद्यार्थियों या नए पत्रकारों के लिए बेहद महत्वपूर्ण है। इस अध्याय में राजनीतिक पत्रकारिता में लम्बा समय बिता चुके एक संजीदा पत्रकार ने अपने अनुभव साझा किए हैं। इसी हिस्से में श्री राजपूत ने बताया है कि मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव-२०१३ क्यों खास रहे। क्यों देशभर के मीडिया की नजरें मध्यप्रदेश के चुनाव पर थीं। १९२ पृष्ठ की 'चुनाव, राजनीति और रिपोर्टिंग' के संबंध में देश के वरिष्ठ पत्रकारों की टिप्पणियां भी पुस्तक के पहले हिस्से में ही हैं। पुस्तक का दूसरा हिस्सा बृजेश राजपूत के सक्रिय लेखन को जाहिर करता है। इस हिस्से में मध्यप्रदेश चुनाव की तस्वीर बताते उनके तेरह लेख शामिल हैं। ये आलेख चुनाव की शुरुआत के पहले से लेकर परिणाम के बाद तक का हाल बयान करते हैं। तीसरे हिस्से में चुनाव-२०१३ को चित्रों और आंकड़ों के आईने में समझने की कोशिश है। यह कहा जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगी कि राजनीति-मीडिया के विद्यार्थियों, राजनीतिक विचारकों, विश्लेषकों और भविष्य के चुनाव के लिए यह पुस्तक एक उपयोगी दस्तावेज साबित होगी। मध्यप्रदेश के छोटे से जिले नरसिंहपुर के करेली से निकलकर देश के क्षितिज पर छा जाने वाले सौम्य स्वभाव के बृजेश राजपूत ने मध्यप्रदेश की धरती पर ही नहीं बल्कि गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, उत्तरप्रदेश, छत्तीसगढ़ और उत्तराखण्ड में घूम-घूमकर समाज के मिजाज को समझा है। राजनीतिक पत्रकारिता के अलावा वे सामाजिक सरोकार की पत्रकारिता को भी साथ लेकर चलते हैं। पत्रकारिता में अपने काम के लिए कई पुरस्कारों से नवाजे गए बृजेश राजपूत को इस किताब के लिए बहुत-बहुत बधाई और शुभकामनाएं।
पुस्तक : चुनाव, राजनीति और रिपोर्टिंग
लेखक : बृजेश राजपूत
मूल्य : १९५ रुपये
प्रकाशक : शिवना प्रकाशन
पी.सी. लैब, सम्राट कॉम्प्लैक्स बेसमेंट
बस स्टैण्ड, सीहोर-४६६००१ 
फोन : ०७५६२४०५५४५
ईमेल : shivna.prakashan@gmail.com