शनिवार, 16 मार्च 2013

नक्सलियों को खुली चुनौती

 रा म-कृष्ण, बुद्ध और गांधी के देश में हिंसक संघर्ष बर्दाश्त नहीं है। ध्येय कितना भी ऊंचा, पवित्र और जनहित का हो लेकिन उसे पाने के लिए उचित माध्यम होना जरूरी है। बुलेट की ताकत पर बदलाव संभव नहीं होता। बदलाव तो स्वत: स्फूर्त होना चाहिए। बंदूक की नाल से तो डराया जाता है। जिसके हाथ में बंदूक होती है वह कब, किस तरफ उसे मोड़ दे, कोई नहीं जानता। यही नक्सलवाद और माओवाद के नाम पर किया जाता रहा है। व्यवस्था के खिलाफ शुरू हुआ संघर्ष अब निरीह जनता के खिलाफ हो गया है। लोग तंग आ गए हैं। नक्सलवाद भ्रष्ट हो गया है। उसका शिकार आदिवासी समाज ही बन रहा है। नक्सलियों के आतंक से तंग वनवासी समाज ने खुला पत्र लिख है। इस पत्र में बस्तर आदिवासी रक्षा समिति ने नक्सलियों से घोटपाल मड़ई विस्फोट में घायल हुए तीन ग्रामीणों को मुआवजा देने की मांग की है। समिति ने आदिवासी संस्कृति व परम्पराओं को भविष्य में आघात नहीं पहुंचाने की माओवादियों से लिखित गारंटी भी मांगी है। वनवासियों ने साफ कहा है कि यदि उनकी मांगें पूरी नहीं हुईं तो नक्सली कड़ी कार्रवाई के लिए तैयार रहें। संभवत: यह पहला मौका है जब वनवासियों ने नक्सलियों के खिलाफ इस तरह का खुला पत्र जारी किया है। हालात बदल रहे हैं। वनवासी अब और अधिक नक्सल आतंक सहन करने के मूड में नहीं दिख रहे। यह महज एक मांग पत्र नहीं है बल्कि नक्सलियों को खुली चुनौती है। आओ, अब देखते हैं तुम्हें। सचेत उन्हें भी हो जाना चाहिए जो गाए-बगाहे लाल हिंसा का समर्थन करते हैं। तथाकथित बुद्धिजीवियों को वनवासी समुदाय की पीड़ा समझनी होगी और उनके हित में अपनी लेखनी का उपयोग करना चाहिए। स्थितियां बिगड़े उससे पहले सरकार को भी चेतना होगा। आम नागरिकों के हित की रक्षा करना सरकार की ही जिम्मेदारी है। यह नौबत नहीं आनी चाहिए कि नक्सलवाद से लडऩे के लिए जनता को हथियार उठाने पड़ें। भारत सरकार के पास मौका है नक्सल आतंक को जड़ से उखाड़ फेंकने का। पीडि़त और शोषित वनवासी सरकार के साथ आने को तैयार हैं, यदि सरकार की नीयत साफ हो तो।
    वनवासी समाज की चिंता इस बात से भी बढ़ गई है कि नक्सलवाद के नाम पर धीमे-धीमे उनकी संस्कृति को भी निशाना बनाया जा रहा है। उनके लोगों का खून तो बह ही रहा है। नक्सलवाद भले ही वर्ष १९६७ में पश्चिम बंगाल के गांव नक्सलबाड़ी से शुरू हुआ हो लेकिन इसके नेताओं की वैचारिक प्रेरणा का केन्द्र विदेशी है। नक्सवाद के जन्म के साथ ही इसके प्रारंभिक नेताओं ने राष्ट्र विरोधी नारा लगाया था- 'चेयरमैन माओ ही हमारा चेयरमैन है।' माओ त्से तुंग चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापक और चीनी क्रांति का नेता था। जगजाहिर है कि चीन की तथाकथित ग्रेट प्रोलेटोरियन कल्चरल रिवोल्यूशन यानी सांस्कृतिक क्रांति में लाखों लोगों की जान व्यर्थ चली गई थी। करीब २० लाख लोगों की मौत, ४० लाख लोगों को बंदी बनाया गया और चीनी जनता पर बंदूक-तोप की दम पर वामपंथी विचारधारा थोपी गई। स्टालिन (शासन काल १९२४-१९५३) के समय सोवियत संघ में और पॉल पॉट के शासनकाल १९७५-८० के बीच कंबोडिया में निर्दोष लोगों को विचारधारा के नाम पर कत्ल किया गया।   तथाकथित भारतीय नक्सलवाद का कनेक्शन भी अंतरराष्ट्रीय वामपंथी आंदोलनों से है। विदेशी प्रेरणा केन्द्र होने के कारण नक्सलवाद का भारतीय परंपराओं और संस्कृति से कोई सरोकार नहीं है। खासकर हिन्दुत्व के तो ये विरोधी ही हैं। दरअसल, हिन्दुत्व राष्ट्रवाद की सीख देता है और नक्सलवाद की इसमें कोई रुचि नहीं है। दंतेवाड़ा जिले के ग्राम घोटपाल में आंगा देव व ग्राम्य देवता पर श्रद्धा के चलते वार्षिक मड़ई मनाया जाता है। इसी मेले में नक्सलियों ने विस्फोट किया। जिससे दो आदिवासी युवतियों और एक ग्रामीण घायल हो गया है। चार पुलिस जवान भी घायल हुए। इस विस्फोट को वनवासियों ने अपने आराध्य आंगा देव का अपमान  माना है। तीखी प्रतिक्रिया करते हुए रक्षा समिति ने देवताओं का अपमान करने पर आंध्रप्रदेश के नक्सलियों को फांसी देने की भी मांग की है। हालांकि नक्सली पहले भी वनवासी लोगों को निशाना बनाते रहे हैं। मुखबिरी का आरोप लगाकर मासूम-कोमल बच्चों सहित पूरे परिवार को जला दिया जाता है। बेरहमी से उनका कत्ल कर दिया जाता रहा है। तथाकथित नक्सली आंदोलन में शामिल करने के लिए बच्चों को जबरन उठाकर ले जाया जाता है। जवान लड़कियों के साथ दुराचार के मामले भी सामने आने लगे हैं। अब तो इनकी हरकतें बेहद घृणित हो गईं हैं। सुरक्षा जवान की हत्या कर उसके मृत शरीर में बम लगाने की हरकत, नजीर है कि नक्सलवाद विचार का पतन कितना हो चुका है।
    दरअसल, भारत में सक्रिय नक्सली समूह वास्तव में देश के विरुद्ध परोक्ष युद्ध लड़ रहे हैं। पुलिस रक्षक दल पर आक्रमण करना, वनवासियों में दबदबा बनाने के लिए अबोध नागरिकों की निर्मम हत्या, राजनीति का संरक्षण पाने के लिए राजनेताओं की हत्या, धन उगाही के लिए व्यवसायियों को धमकाना, सरकार की विकासोन्मुखी योजनाओं के कार्यान्वयन को रोकना, स्कूल की इमारतों में बम विस्फोट और शिक्षकों का अपहरण कर हत्या करना ऐसी सभी घटनाएं यही संकेत करती हैं। नक्सलियों की लोकतंत्र में आस्था नहीं। वे लोकतंत्र को उखाड़कर अतिवादी व निरंकुश कम्युनिष्ट शासन स्थापित करना चाहते हैं।   अब तक लाल आतंक के नाम पर नक्सली लाखों लोगों का खून बहा चुके हैं। इनमें पुलिस के जवान, सरकारी अफसर, नेता, व्यवसायी, उद्योगपतियों सहित आम नागरिक भी शामिल हैं।
    भारत में ८ प्रतिशत से अधिक वनवासी आबादी है। नक्सलवाद इन्हीं के बीच केंद्रित है। अब तक की सरकारों को १५ प्रतिशत मुस्लिमों की तो चिंता है लेकिन वनांचल में रहने वाले अबोध वनवासियों की फिक्र नहीं। १५ प्रतिशत लोगों के लिए तो अरबों रुपए की योजनाएं चलाई जा रही हैं लेकिन वनवासियों के लिए सिर्फ दिखावा। ये भोले-भाले वनवासी अल्पसंख्यकों की तरह मुखिर नहीं हैं, ये अब तक की केन्द्र सरकारों के वोट बैंक भी नहीं है। क्या इसीलिए इनकी उपेक्षा की जाती है। नक्सलबाड़ी से निकलकर देश के ५० से अधिक जिलों में नक्सलवाद के फैलने के लिए अब तक की सरकारों की उदासीनता ही जिम्मेदार है। बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़, ओड़ीसा, महाराष्ट्र और आंध्रप्रदेश के जनजातीय और पिछड़े क्षेत्रों में नक्सली गतिविधियां अधिक हैं।  इसे ही रेड कॉरिडोर के नाम से जाना जाता है यानी लाल आतंक का गढ़। हालांकि उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, केरल और कर्नाटक में भी इनकी हिंसक घटनाएं सामने आती हैं। नक्सलवाद से निपटने के लिए सरकारी स्तर पर मजबूती के साथ प्रयास होने चाहिए। नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में भूमि सुधार, गरीबी उन्मूलन, शिक्षा, स्वास्थ्य, खेलकूद और सांस्कृतिक विरासत को बढ़ावा देकर वनवासियों का विश्वास जीतना होगा। वनवासी क्षेत्रों को रोजगार के अवसर उपलब्ध कराने होंगे। सड़क, इमारतों और रेल की पटरियों को नुकसान पहुंचाने वाले नक्सलियों से भी कड़ाई से निपटना होगा। सरकार को चाहिए कि वह सेना की भी मदद ले क्योंकि नक्सलवाद अब नासूर बन गया है।  यही नहीं पुलिस का भी आधुनिकीकरण करना होगा। नक्सलियों के पास एके-४७ से लेकर अति आधुनिक हथियार हैं लेकिन पुलिस के पास पुरानी तकनीक की बंदूकें, ऐसे में पुलिस भी कैसे मुकाबले करे। हालांकि नक्सल आतंक से निपटने के नाम पर सरकार के पास नीति है लेकिन नीयत नहीं है। नक्सल प्रभावित इन क्षेत्रों को विकास की मुख्यधारा में लाने के लिए सरकारों को पुरजोर कोशिश करनी होगी। आधे-अधूरे मन के साथ बदलाव संभव नहीं। लाल आतंक के चगुंग में फंसे वनवासी सुकून चाहते हैं जो उनके नसीब में नहीं।

5 टिप्‍पणियां:

  1. नक्सलवाद बड़ी समस्या है ...
    सोचने की जरुरत है .....
    सटीक लेख
    साभार !

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  2. प्रयास होने ही चाहियें इस समस्या से निपटने के ..... सधा , सार्थक लेख

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  3. प्रशासन को हिंसक आंदोलनों पर और जिन कारणों से यह आंदोलन अस्तित्व में आते हैं, नियंत्रण पाने के लिये दृढ़ इच्छाशक्ति का प्रयोग करना ही चाहिये।

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  4. बंदूक की आड़ में सच्चाई कितनी देर तक छिपेगी, देर-सबेर यह होना ही था। जनता तो अत्याचारों से त्रस्त है ही लेकिन सरकार भी हत्यारों को रोकने की अपनी ज़िम्मेदारी निभाए तो बात बने।

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