गुरुवार, 29 नवंबर 2012

भारत में चमका था विज्ञान का सूर्य

 भा रत और भारत के लोगों के बारे में एक धारणा दुनिया में प्रचलित की गई कि भारत जादू-टोना और अंधविश्वासों का देश है। अज्ञानियों का राष्ट्र है। भारत के निवासियों की कोई वैज्ञानिक दृष्टि नहीं रही न ही विज्ञान के क्षेत्र में कोई योगदान है। भारत के संदर्भ में यह प्रचार लंबे समय से आज तक चला आ रहा है। नतीजा यह हुआ कि अधिकतर भारतवासियों के अंतर्मन में यह बात अच्छे से बैठ गई कि विज्ञान यूरोप की देन है। विज्ञान का सूर्य पश्चिम में ही उगा था उसी के प्रकाश से संपूर्ण विश्व प्रकाशमान है। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि आज हम हर बात में पश्चिम के पिछलग्गू हो गए हैं क्योंकि हम मानते हैं कि पश्चिम की सोच वैज्ञानिक सम्मत है। पश्चिम ने जो सोचा है, अपनाया है वह मानव जाति के लिए उचित ही होगा। इसलिए हमें भी उसका अनुकरण करना चाहिए। भारत में योग पश्चिम से योगा होकर आया तो जमकर अपनाया गया। आयुर्वेद को चिकित्सा की सबसे कमजोर पद्धति मानकर एलोपैथी के मुरीद हुए लोगों की आंखें तब खुली जब आयुर्वेद पश्चिम से हर्बल का लेवल लगाकर आया। भारत में विज्ञान को लेकर जो वातावरण निर्मित हुआ उसके लिए हमारे देश के कर्णधार भी जिम्मेदार हैं। जिन्होंने तमाम शोध और विमर्श के बाद भी भारतीय शिक्षा व्यवस्था में भारत में विज्ञान की उज्ज्वल परंपरा को शामिल नहीं किया। भारत के छात्रों का क्या दोष, जब उन्हें पढ़ाया ही नहीं जाएगा तो उन्हें कहां से मालूम चलेगा कि भारत में विज्ञान का स्तर कितना उन्नत था।
    विज्ञान और तकनीकी मात्र पश्चिम की देन है या भारत में भी इसकी कोई परंपरा थी? भारत में किन-किन क्षेत्रों में वैज्ञानिक विकास हुआ था? विज्ञान और तकनीकी के अंतिम उद्देश्य को लेकर क्या भारत में कोई विज्ञानदृष्टि थी? और यदि थी तो आज की विज्ञानदृष्टि से उसकी विशेषता क्या थी? आज विश्व के सामने विज्ञान एवं तकनीक के विकास के साथ जो समस्याएं खड़ी हैं उनका समाधान क्या भारतीय विज्ञान दृष्टि में है? ऊपर के पैरे को पढ़कर निश्चिततौर पर हर किसी के मन में यही सवाल हिलोरे मारेंगे तो इन सवालों के जवाब के लिए 'भारत में विज्ञान की उज्ज्वल परंपरा' पुस्तक पढऩी चाहिए। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक सुरेश सोनी की इस पुस्तक में तमाम सवालों के जवाब निहित हैं। पुस्तक में कुल इक्कीस अध्याय हैं। धातु विज्ञान, विमान विद्या, गणित, काल गणना, खगोल विज्ञान, रसायन शास्त्र, वनस्पति शास्त्र, प्राणि शास्त्र, कृषि विज्ञान, स्वास्थ्य विज्ञान, ध्वनि और वाणी विज्ञान, लिपि विज्ञान सहित विज्ञान के अन्य क्षेत्रों में भारत का क्या योगदान रहा इसकी विस्तृत चर्चा, प्रमाण सहित पुस्तक में की गई है। यही नहीं यह भी स्पष्ट किया गया है कि विज्ञान को लेकर पश्चिम और भारतीय धारणा में कितना अंतर है। जहां पश्चिम की धारणा उपभोग की है, जिसके नतीजे आगे चलकर विध्वंसक के रूप में सामने आते हैं। वहीं भारतीय धारणा लोक कल्याण की है। सुरेश सोनी मनोगत में लिखते हैं कि आचार्य प्रफुल्लचंद्र राय की 'हिन्दू केमेस्ट्री', ब्रजेन्द्रनाथ सील की 'दी पॉजेटिव सायन्स ऑफ एन्शीयन्ट हिन्दूज', राव साहब वझे की 'हिन्दी शिल्प मात्र' और धर्मपालजी की 'इण्डियन सायन्स एण्ड टेकनोलॉजी इन दी एटीन्थ सेंचुरी' में भारत में विज्ञान व तकनीकी परंपराओं को प्रमाणों के साथ उद्घाटित किया गया है। वर्तमान में संस्कृत भारती ने संस्कृत में विज्ञान और बॉटनी, फिजिक्स, मेटलर्जी, मशीन्स, केमिस्ट्री आदि विषयों पर कई पुस्तकें निकालकर इस विषय को आगे बढ़ाया। बेंगलूरु के एमपी राव ने विमानशास्त्र व वाराणसी के पीजी डोंगरे ने अंशबोधिनी पर विशेष रूप से प्रयोग किए। डॉ. मुरली मनोहर जोशी के लेखों, व्याख्यानों में प्राचीन भारतीय विज्ञान परंपरा को प्रभावी रूप से प्रस्तुत किया गया है।
    भारत में विज्ञान की क्या दशा और दिशा थी उसको समझने के लिए आज भी वे ग्रंथ मौजूद हैं, जिनकी रचना के लिए वैज्ञानिक ऋषियों ने अपना जीवन खपया। वर्तमान में जरूरत है कि उनका अध्ययन हो, विश्लेषण हो और प्रयोग किए जाएं। हालांकि कई विद्याएं जानने वालों के साथ ही लुप्त हो गईं क्योंकि हमारे यहां मान्यता रही कि अनधिकारी के हाथ में विद्या नहीं जानी चाहिए। विज्ञान के संबंध में अनेक ग्रंथ थे जिनमें से कई आज लुप्त हो गए हैं। हालांकि आज भी लाखों पांडुलिपियां बिखरी पड़ी हैं। भृगु, वशिष्ठ, भारद्वाज, आत्रि, गर्ग, शौनक, शुक्र, नारद, चाक्रायण, धुंडीनाथ, नंदीश, काश्यप, अगस्त्य, परशुराम, द्रोण, दीर्घतमस, कणाद, चरक, धनंवतरी, सुश्रुत पाणिनि और पतंजलि आदि ऐसे नाम हैं जिन्होंने विमान विद्या, नक्षत्र विज्ञान, रसायन विज्ञान, अस्त्र-शस्त्र रचना, जहाज निर्माण और जीवन के सभी क्षेत्रों में काम किया। अगस्त्य ऋषि की संहिता के उपलब्ध कुछ पन्नों को अध्ययन कर नागपुर के संस्कृत के विद्वान डॉ. एससी सहस्त्रबुद्धे को मालूम हुआ कि उन पन्नों पर इलेक्ट्रिक सेल बनाने की विधि थी। महर्षि भरद्वाज रचित विमान शास्त्र में अनेक यंत्रों का वर्णन है। नासा में काम कर रहे वैज्ञानिक ने सन् १९७३ में इस शास्त्र को भारत से मंगाया था। इतना ही नहीं राजा भोज के समरांगण सूत्रधार का ३१वें अध्याय में अनेक यंत्रों का वर्णन है। लकड़ी के वायुयान, यांत्रिक दरबान और सिपाही (रोबोट की तरह)। चरक संहिता, सुश्रुत संहिता में चिकित्सा की उन्नत पद्धितियों का विस्तार से वर्णन है। यहां तक कि सुश्रुत ने तो आठ प्रकार की शल्य क्रियाओं का वर्णन किया है। सृष्टि का रहस्य जानने के लिए आज जो महाप्रयोग चल रहा है उसकी नींव भी भारतीय वैज्ञानिक ने रखी थी। सत्येन्द्रनाथ बोस के फोटोन कणों के व्यवहार पर गणितीय व्याख्या के आधार पर ऐसे कणों को बोसोन नाम दिया गया है।
    भारत में सदैव से विज्ञान की धारा बहती रही है। बीच में कुछ बाह्य आक्रमणों के कारण कुछ गड़बड़ जरूर हुई लेकिन यह धारा अवरुद्ध नहीं हुई। 'भारत में विज्ञान की उज्ज्वल परंपरा' एक ऐसी पुस्तक है जो भारत के युवाओं को जरूर पढऩी चाहिए।

पुस्तक : भारत में विज्ञान की उज्ज्वल परंपरा
मूल्य : ६० रुपए
लेखक : सुरेश सोनी
प्रकाशक : अर्चना प्रकाशन
१७, दीनदयाल परिसर, ई/२ महावीर नगर,
भोपाल-४६२०१६, दूरभाष - (०७५५) २४६६८६५
   

रविवार, 18 नवंबर 2012

क्या फिर से पढ़ाए जाएंगे नैतिकता के पाठ?

 भ्रष्टाचार, अत्याचार, यौनाचार, अवमानना जैसी बुराइयों की लम्बी सूची है, जो आज देश में चहुं ओर अपने बलवति रूप में दिख रही हैं। इन बुराइयों में लिप्त लोगों को सब दण्ड देना चाह रहे हैं। घोटाले-भ्रष्टाचार रोकने के लिए सिस्टम (जैसे लोकपाल) बनाने की मांग कर रहे हैं। अपराध को कम करने के लिए कानून के हाथ और लम्बे करने पर विमर्श चल रहा है। यह चाहत, मांग और विमर्श अपनी जगह सही है। दुष्टों को दण्ड मिलना ही चाहिए, भ्रष्टाचार रोकने सिस्टम जरूरी है और बेलगाम भाग रहे अपराध पर लगाम कसने के लिए कानून के हाथ मजबूत करना ही चाहिए। लेकिन, इसके बाद भी ये बुराइयां कम होंगी क्या? इस बात को लेकर सबको शंका है।
    ऐसे में विचार आता है कि भारत जैसे सांस्कृतिक राष्ट्र में ये टुच्ची बुराइयां इतनी विकराल कैसे होती जा रही हैं? यही नहीं घोटाले और भ्रष्टाचार व्यक्ति के बड़े होने की पहचान बन गए हैं। हाल ही में यूपीए सरकार के मंत्री सलमान खुर्शीद के ट्रस्ट पर विकलांगों का पैसा खाने का आरोप लगा। मामला पूरे ७१ लाख के घोटाले का था। लेकिन, खुर्शीद के बचाव में एक कांग्रेसी नेता कहते हैं कि ७१ लाख का घोटाला कोई घोटाला है। खुर्शीद मंत्री हैं वे महज ७१ लाख का घोटाला करेंगे ये माना ही नहीं जा सकता। हां, अगर ये ७१ लाख की जगह ७१ करोड़ होते तो सोचना भी पड़ता कि खुर्शीद ने गबन किया है। कांग्रेस नेता के बयान से साफ झलकता है कि बड़ा घोटाला यानी बड़ा मंत्री। खैर जाने दीजिए। कमी कहां हो रही है कि समाज की यह स्थिति बनी है। दरअसल, इसका मूल कारण नैतिक मूल्यों का पतन होना है। जब मनुष्य की आत्मा यह पुकारना ही भूल जाए कि तुम जो कर रहे हो वह गलत है तो मनुष्य किसकी सुनेगा। नैतिक मूल्यों की कमी तो आएगी ही शिक्षा व्यवस्था ही ऐसी कर रखी है कि मनुष्य को मनुष्य नहीं पैसा कमाने वाला रोबोट बनाया जा रहा है। रोबोट तो रोबोट होता है। उसे क्या भले-बुरे का ज्ञान। स्कूल के समय से उसके मन में एक बात बिठाई जाती है कि बड़ा होकर अमीर बनना है, पैसा कमाना है, अरबों-खरबों में खेलना है। बड़ा होकर वह इसी काम में जुट जाता है। जो जिस स्तर पर है उस स्तर का घोटाला कर रहा है।
    आज हालात ये हैं कि व्यक्ति महिलाओं के बदसलूकी करते वक्त भूल जाता है कि उसके घर में भी मां-बहन है। अपने बूढ़े मां-पिता को सताते समय उसे यह ज्ञान नहीं रहता कि आने वाले समय में वह भी बूढ़ा होगा। दूसरों को ठगते समय वह यह नहीं देखता कि बेईमानी की कमाई नरक की ओर ले जाती है। किसी की मेहनत की कमाई चोरी करते वक्त वह सोचता है कि उसे कौन पकड़ेगा, वह भूल जाता है कि आत्मा है, परमात्मा है जो सबको देख रहा है और पकड़ रहा है। यह सब उसे भान नहीं है क्योंकि उसका नैतिक शिक्षण नहीं हुआ। वह नैतिक रूप से पतित है। बेचारा सीखता कहां से? हमारी शिक्षा व्यवस्था में नैतिक मूल्यों को विकसित करने की व्यवस्था ही खत्म कर दी गई। परिवार भी एकल हो गए। दादा-दादी से महापुरुषों का चरित्र सुनकर नहीं सोते आजकल का नौनिहाल बल्कि उनका चारित्रिक विकास तो टीवी, कम्प्यूटर, मोबाइल और इंटरनेट कर रहा है। मैकाले का उदाहरण अकसर सभी देते हैं। उसने ब्रिटेन पत्र लिखकर बताया कि भारत को गुलाम बनाना मुश्किल है क्योंकि यहां की शिक्षा व्यवस्था लोगों के नैतिक पक्ष को मजबूत बनाती है। वे देश और समाज के लिए जीने-मरने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं। यदि भारत को गुलाम बनाना है तो सबसे पहले यहां की शिक्षा व्यवस्था ध्वस्त करनी होगी। बाद में उसने यही किया। भारत में गुरुकुल और ग्राम-नगर की पाठशालाएं खत्म कर मिशनरीज के स्कूल खुलवा दिया। अभी तक हम मैकाले के हिसाब से पढ़ रहे हैं, अपना नैतिक पतन करने के लिए। आजाद होने के बाद सबसे पहला सुधार शिक्षा व्यवस्था में होना चाहिए था लेकिन किसी ने ध्यान नहीं दिया। अब जाकर भाजपा या अन्य राष्ट्रवादी पार्टियां/संगठन शिक्षा व्यवस्था में परिवर्तन की बात करती हैं तो भगवाकरण कहकर उसका विरोध किया जाता है।
    भारत में गैरसरकारी स्तर पर अतुलनीय योगदान देने वाले महान शिक्षाविद् गिजुभाई बधेका भी इस बात को कई बार कहते थे कि भारत की शिक्षा व्यवस्था का कबाड़ा कर दिया गया है। शिक्षा से नैतिक मूल्य हटाने से बच्चे स्कूल-कॉलेजों से स्वार्थी, स्पर्धालु, आलसी, आराम-तलबी और धर्महीन मनुष्य बनकर निकल रहे हैं। उनका शिक्षा की दशा-दिशा तय करने वालों से आग्रह था कि शिक्षा पद्धति में धार्मिक-नैतिक जीवन को, गुरु-परंपरा और आदर्श शिक्षक को स्थान दें।  लेकिन, इस दिशा में अभी तक कुछ हुआ नहीं। उल्टा जितना था उसे भी निकाल बाहर किया। हां, रामायण के कुपाठ पढ़ाने के जरूर इस बीच प्रयास हुए, भरपूर हुए। खैर, जब बात हाथ से निकलती दिखने लगी है। समाज एकदम विकृत होता दिखने लगा तब जाकर सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय की आंख खुली है। अब ये कितनी खुलीं हैं और किस ओर खुलीं हैं, ये देखने की बात है। खबर है कि एनसीईआरटी प्राथमिक स्तर पर नैतिक और मूल्य आधारित शिक्षा शुरू करेगा। सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय ने बड़े होते बच्चों को नैतिक शिक्षा के सकारात्मक पक्ष के प्रति संवेदनशील बनाने के लिए एनसीईआरटी को इसकी संभावना तलाशने को कहा है। मंत्रालय ने राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) के एक प्रतिनिधि मंडल को अगले महीने इस मुद्दे पर विचार-विमर्श के लिए आमंत्रित किया है। नैतिक शिक्षा का विषय प्राथमिक शिक्षा का एक हिस्सा होगा। इसके अलावा मूल्य आधारित विषय जैसे बड़ों का आदर और उनके प्रति संवेदनशीलता इस विषय और उनके प्रति संवेदनशीलता इस विषय का एक महत्वपूर्ण हिस्सा होगा। अब यहां यह देखना है कि एनसीईआरटी और सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय नैतिक मूल्य भारत की संस्कृति की जड़ों में तलाश करेंगे या फिर बाहर से आयातित करेंगे। भारत की आने वाली युवा पीढ़ी को संभालकर रखना है और उन्हें जिम्मेदार नागरिक बनाना है तो उसे शिक्षित करने के लिए भारतीय संस्कृति की जड़ों में ही लौटना होगा। पश्चिम में तो वैसे ही नैतिक मूल्यों के नाम पर कुछ है नहीं। वहां के नैतिक मूल्य ही तो मैकाले हमारी शिक्षा में ठूंस गया जिसके दुष्परिणाम हम आज भुगत रहे हैं।

सोमवार, 12 नवंबर 2012

संकल्प


दीपों के इस महा उत्सव में 
एक दीप कर्म-ज्योति का हम भी जलाएं। 
धरा के गहन तिमिर को हर लें
हम स्वमेव दीपक बन जाएं।।

भारत के नवोत्थान के प्रयत्नों में 
एक अमर प्रयत्न हम भी कर जाएं। 
उत्कृष्ट भारत के निर्माण में काम आए
हम नींव के पत्थर बन जाएं।। 

नवयुग के इन निर्माणों में
एक निर्माण हम भी कर जाएं।
संस्कृति का तेजस झलकाएं
हम वो आत्मदीप बन जाएं।।

पशुता/अनाचार के जग में
एक बने सब और नेक भी हम बन जाएं। 
छू न सके भावी पीढ़ी को पाप छद्म ये
हम वो अकाट्य पर्वत बन जाएं।।

- लोकेन्द्र सिंह -
(काव्य संग्रह "मैं भारत हूँ" से)

इस कविता को देखने-सुनने के लिए 'अपना वीडियो पार्क'


मंगलवार, 6 नवंबर 2012

मेरा भारत



मेरा भारत है साक्षात कृष्ण स्वरूप।
देखो उसके आभा-मंडल से झलकता है अलौकिक तेज।
छेड़कर मुरली की मधुर तान
चर-अचर समूचे जग को आनंदित करता है।
शांति, पंचशील की संरचना हेतु
पल प्रतिपल सौम्य वातावरण निर्मित करता है।
अखिल ब्रह्मांड का पोषण करने
डाल अंगोछा कांधे, चरवाहा बनता है मेरा मोहन।।

मेरा भारत है साक्षात राजा राम स्वरूप।
देखो उसके ललाट पर दमकता है अनोखा ओज।
पुरुखों की रीति-परम्परा
जग कल्याण हित अग्रेषित वह करता है।
सत्य, सत की रक्षा हेतु
वन में रहकर विध्वंसक का वध करता है।
स्वर्णमयी लंका तज करके
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी कहता है मेरा पुरुषोत्तम।।
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- लोकेन्द्र सिंह -
(काव्य संग्रह "मैं भारत हूँ" से)


शुक्रवार, 2 नवंबर 2012

कुंआरा करवाचौथ

 का र्तिक मास की कृष्ण पक्ष की पंचमी का दिन था। यानी करवाचौथ के एक दिन बाद। सुबह के करीब ११ बज रहे होंगे। सूरज आसमान के बीचों-बीच जगह बनाने को चल रहा था। धूप हो रही थी लेकिन जाड़े ने उसकी उष्णता कम कर दी थी। दोपहर की धूप भी गुनगुनी, अच्छी लग रही थी। छत पर सब बैठे थे। मैं अभी-अभी नहा-धोकर निपटा था। ठंड में देर से ही नहाने की हिम्मत हो पाती है। फिर ग्वालियर की ठंड के क्या कहने। हालांकि अभी ठंड अपने सबाब पर नहीं आई थी। भोजन की तैयारी थी। तभी दरवाजे से आवाज आई।
    कहां है भाई? इधर आ।
    अंदर ही आ जा। मैं खाना खाने बैठ गया हूं।
आवाज मैं पहचान गया था। सत्यवीर आया था बाहर। यहीं एक गली छोड़कर ही तो रहता है। मैन रोड पर उसका मकान है। मेरा सबसे खास दोस्त है। दिन-रात के २४ घंटे में से कम से कम १० घंटे हम साथ रहते हैं। वैसे तो वह मेरे घर कम ही आता है। मैं ही उसके घर पहुंच जाता हूं। थोड़ी देर पहले उसी के यहां से तो आया था।
    अरे यार, तू बाहर निकल आ।
    अब ऐसी भी क्या बात है। अंदर आकर ही बता देता।
    क्या बता देता? बैंड बजी पड़ी है। तू तो यहां आराम से रोटी खा रहा है कोई दो दिन से प्यासा है।
    क्यों, क्या हो गया? कौन प्यासा है? साफ-साफ बता।
    अरे यार, उसकी अम्मा की... पूर्वी ने करवाचौथ का व्रत धर लिया है। कल से पानी तक नहीं पिया है, पिया के चक्कर में। सत्यवीर ने झुंझलाते हुए कहा। मेरे कंधे पर हाथ रखा और फिर मुझे सड़क की ओर लेकर चल दिया।
    साली कुतिया की तरह घूम रही है। मेरा तो दिमाग खराब हो गया है। एक तो मां को पहले ही सब पता चल गया है कि मेरा उसके साथ लफड़ा चल रहा है। तुझे तो पता ही है चार दिन पहले ही मां उसके घर जाकर उसकी मां को ठांस आई- तुम्हारी लड़की हवा में उडऩे लगी है। संभालो। मेरे घर आई या मेरे लड़के से मिली तो टांगे तोड़ दूंगी। ये साली हरामखोर ने करवाचौथ का व्रत धर लिया। अब व्रत खुलवाने के लिए दिमाग खा रही है। संदेश पर संदेश भेज रही है। मैं क्या करूं? कुछ समझ में नहीं आ रहा।
    तू बहुत बड़ा वाला है यार। तेरे से मैंने पहले ही कही थी- मत पड़ उस लड़की के चक्कर में। तुझे उससे प्यार-व्यार तो था नहीं। मजे के चक्कर में फंस गईं न लेंडी। अब भुगतो, और क्या।
    अबे तू दोस्त है या दुश्मन। मैं मुसीबत में हूं तू मजे ले रहा है। उसे समझा न कि ये त्योहार कुंआरी लौंडियों के लिए नहीं होता। ब्याह के बाद रहे अपने पति के लिए रखे मजे से। मेरे गले क्यों पड़ रही है?
    उसने तो तुझे मन ही मन पति मान लिया न। अब क्या किया जा सकता है। मैंने हंसते हुए कहा।
    वह शांत रहा क्योंकि घर आ गया था। हम छत पर पहुंचे। दो मंजिल मकान है। कुल जमा ३० जीने चढऩे होते हैं छत पर पहुंचने के लिए। यहां ही हम सब मुद्दों पर चर्चा करते हैं। पूर्वी को पहली चिट्ठी भी सत्यवीर ने मुझसे यहीं बैठकर लिखवायी थी।
    अबे यार, मजाक का टाइम नहीं है। हमको तो समझ में नहीं आता कि ये कौन-सा चलन चल निकला है, कुंआरी लड़कियां करवाचौथ का व्रत रख लेती हैं।
    हम बताते हैं क्या चलन है। वैलेन्टाइन का नाम सुना है।
    अब हमको ये भी नहीं पता होगा क्या?
    मालूम है तुम्हें नहीं पता होगा तो क्या मुझ जैसे ब्रह्मचारी को पता होगा। दो-दो तीन-तीन गोपियों से उपहार जो वसूलते हो उस दिन। देने के नाम पर सबको चूतिया बना देते हो। हां तो सुनो भाई साधौ। देशी वैलेन्टाइन हो गया है करवाचौथ। जितनी भी लड़कियां प्रेम में आकंठ डूबी हैं। जिनका प्रेम सरेबाजार बाइक पर बैठते समय कुछ अपने प्रेमी पर टपकता है कुछ रास्ते पर, ऐसी सभी कथित कुंआरी लड़कियां करवाचौथ का व्रत रखने लगी हैं। और सुन बेटा लौंडे भी कम नहीं, वे भी करवाचौथ कर रहे हैं।
    पगला गए है भौसड़ी के सब। उसकी झुंझलाहट और बढ़ गई थी। छत से पूर्वी का घर साफ-साफ दिखता है। सत्यवीर और पूर्वी के नैना यहीं से चार होते रहे हैं। अभी भी पूर्वी इधर-उधर चहल-कदमी कर रही थी। वह इशारे से सत्यवीर को कहीं बुलाना चाह रही थी। यह देखकर सत्यवीर का दिमाग गर्म हो रहा था। वह रसिक जरूर था लेकिन ये सब चोचलेबाजी उसे कतई पसंद नहीं थी। पूर्वी को वैसे भी वह छोडऩे की फिराक में था। एक तो मां ने सारा मामला पकड़ लिया था। दूसरा सत्यवीर को भी समझ आ गया था कि यह चिपकने वाली लड़की है।
    पगलाए नहीं हैं बच्चू। प्रेम में हैं। प्रेम जो न कराए वो कम है। तू सुन, प्रेमी युगल करवाचौथ का व्रत खोलने के क्या-क्या उपाय करते हैं। तेरा मामला तो लेट हो गया। बेचारी पूरे दो दिन से बिना अन्न-पानी के है। कुछ रहम कर अपनी महबूबा पर। तो लड़के पाइप से चढ़कर अपनी कुंआरी पत्नी को चांद से चेहरे का दीदार कराने और उसे अपने हाथ से पानी पिलाने पहुंच जाते हैं। लड़कियां सबके सोने के बाद चुपके से छत पर आ जाती हैं। या फिर कहीं बाहर मिल लेते हैं।
    तू एक काम कर खाना खाकर आ। फिर अपन दो दिन के लिए गांव चलते हैं। कॉलेज में भी खास पढ़ाई नहीं चल रही है। मुझे समस्या से बाहर निकालने के लिए तेरा दिमाग भी नहीं चल रहा है।
    गांव जाने से समस्या का हल नहीं निकलेगा मेरे भाई।
    अब तू जा जल्दी खाना खाकर आ। तेरा दिमाग नहीं चलेगा। मेरी खाज है मुझे ही खुजानी पड़ेगी।
    खाना खाने के बाद मैंने घर पर बताया कि दो दिन के लिए गांव होकर आता हूं। बहुत दिन हो गए हैं, गांव गए हुए। एक जोड़ी कपड़े पॉलीबैग में डाले और चला आया फिर से सत्यवीर के घर। वो तैयार बैठा था। बस पकडऩे के लिए हम घर से बचते-बचाते निकले, कहीं पूर्वी न देख ले। बस स्टॉप पर खड़े हुए पांच मिनट ही हो पाईं थीं कि पूर्वी आ गई। वो मैडम तो घाघ की तरह शिकार पर नजरें जमाए बैठी थी। उसे देखकर सत्यवीर के माथे की लकीरें बढ़ गईं। कोई देख ले और घर जाकर कह दे तो मां के हाथ दोनों के बारह बजने तय थे। सत्यवीर और पूर्वी के बारह मेरे नहीं। मेरे तो तेरह बजते।
    भैया इन्हें समझाओ न। मैंने इनके लिए व्रत रखा है और ये हैं कि मुझे पानी तक नहीं पिला रहे हैं। मैं दुकान तक जाने की कहकर आई हूं जल्दी वापस जाना होगा। आप प्लीज इन्हें समझाइए। पूर्वी ने उदास चेहरे के साथ मुझसे गुहार लगा रही थी।
    वैसे तुम्हें ये व्रत रखने की सलाह किसने दी? ये व्रत कुंआरी लड़कियों के लिए होता ही नहींं हैं। जाओ खुद ही पानी पी लेना, कोई दिक्कत नहीं होगी। मैंने अपनी लंगोटिया यारी निभाने की कोशिश की। हालांकि मुझे पता थी कि लड़की प्रेम में पगलाई हुई है। आसानी से मानेगी नहीं। वह नहीं मानी और सत्यवीर के पास पहुंच गई। खूब विनय किया पूर्वी ने लेकिन सत्यवीर नहीं माना। तब एक बार फिर वो मेरे पास आई।
    बस आप मेरा व्रत खुलवा दीजिए। आपका एहसान रहेगा मुझ पर।
    यहां तो पानी ही नहीं है। कैसे खुलेगा तुम्हार व्रत?
    इतना सुनते ही उसने इधर-उधर देखा। टिक्की (पानी पूरी) वाले के ठेले को देखकर उसका चेहरा खिल गया। वो पट्ठी दौड़ते हुए वहां गई। टिक्की वाले से एक दोना (पत्ते की कटोरी) लिया और उसमें जलजीरा का पानी भरकर ले आई।
    अब बुला लो अपने दोस्त को। जरा अपने हाथ से पिला दे फिर भाग जाए, जहां जाना हो।
    ठीक है। लेकिन, तुम्हारे लिए एक सलाह है। ये लड़का तुम्हें प्यार नहीं करता। इसलिए इसका ख्याल अपने दिल से निकाल देना। भविष्य में इस तरह की नाटक-नौटंकी मत करना। हमारी बात बुरी लग रही होगी लेकिन यही सत्य है।
    सत्यवीर के हाथ से टिक्की का पानी पीकर वह अपने घर चली गई। सत्यवीर ने भी राहत की सांस थी। उसने कहा - अब क्या करेंगे गांव जाकर।
    अब गांव तो चलना ही पड़ेगा। हम मन बना चुके हैं। दो दिन गांव में रहकर आएंगे। चलो बस आ गई।
    दोनों बस में सवार हो गए। ईश्वर की कृपा से सीट भी मिल गई। सत्यवीर किसी सोच में डूब गया। हम मंद-मंद मुसकरा रहे थे। पूरे एपिसोड को सोच-सोच कर मैं मन ही मन व्यथित भी था तो हंस भी रहा था। व्यथित इसलिए था कि आज के युवा किस रास्ते पर हैं। जिन्हें न तो प्रेम का पता है न परंपराओं का।