बुधवार, 21 दिसंबर 2011

विरोध का असल कारण कुछ और...

 रू स में कुछ मतिभ्रष्ट ईसाई मत के लोगों ने हिन्दुओं के ही नहीं वरन् संपूर्ण विश्व के ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व के धर्मग्रंथ गीता पर प्रतिबंध लगाने की मांग की। वे इस मसले को रूस के साइबेरिया प्रांत में टोम्स्क की एक अदालत में घसीट ले गए। उनके इस कुप्रयास पर दुनियाभर से कड़ी आपत्तियां आईं। नतीजन अदालत ने मामले की सुनवाई टाल दी। रूस में गीता पर लिखे जिस भाष्य को लेकर विवाद शुरू हुआ, वह इस्कॉन के संस्थापक संत स्वामी प्रभुपाद जी की रचना है,  किताब का नाम है : भगवद गीता एज इट इज। इस्कॉन संस्था भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति और उनके उपदेशों के लिए समर्पित ढंग से काम कर रही है। अनेक देशों में इस्कॉन ने भव्य मंदिर बनाए हैं। उनके माध्यम से श्रीकृष्ण और गीता के विचार को प्रचारित और प्रसारित किया। इस्कॉन के इसी समर्पण के चलते अन्य धर्म के लोग गीता और हिन्दू धर्म के करीब आए। वैसे भी विश्वभर में गीता के अनेक विद्वान मुरीद हुए हैं और वर्तमान में भी हैं। दुनिया में संभवत: गीता के अलावा कोई ऐसा ग्रंथ नहीं होगा, जिसकी सौ से ज्यादा व्याख्याएं होंगी। विरोध कर रहे लोगों ने आरोप लगाया है कि यह धर्म हिंसा सिखाता है। कट्टरवाद को बढ़ावा देता है। ईसाई मत से मेल नहीं खाता। तीनों ही तर्क अजीब  और बेबुनियाद हैं। देखा जाए तो ये तीनों तर्क तो अन्य धर्म (ईसाई और इस्लाम) के धर्मग्रन्थों पर सटीक बैठते हैं। खैर इस बात को यहीं छोड़ दिया जाए तो ठीक है।
     दरअसल, गीता के विरोध का कारण ईसाई धर्म से मेल खाना नहीं है। इसके पीछे कुछ और ही कारण है। वह कारण है इस्कॉन की ओर से किए जा रहे कार्यों के प्रभाव से कई ईसाई लोग गीता और हिन्दू धर्म के नजदीक आए हैं। वे सब कुछ छोड़कर कृष्ण के प्रेम में डूबे हैं। मैंने स्वयं देखा है कि इस्कॉन की ओर से स्थापित मंदिरों में किस तरह गोरे सबकुछ भूलकर कृष्ण की भक्ति में रमे रहते हैं। इससे ही ईसाईयों के पेट में पीर हो रही है। ईसाई इधर भारत में तमाम झूठे प्रलोभन दिखाकर और छल-कपट से हिन्दुओं को ईसाई बनाते हैं। उधर, बिना किसी प्रलोभन के ईसाई समाज इस्कॉन के सहारे हिन्दू धर्म में शामिल हो रहा है। हालांकि यह प्रक्रिया उतने स्तर पर नहीं है जितनी हिन्दुओं के ईसाई बनने की है। इसमें यह भी समझना होगा कि इस्कॉन लक्ष्य निर्धारित कर ईसाईयों को हिन्दू नहीं बनाता। न हीं उनका कभी भी धर्मांतरण करता है। वहां आने वाले सभी धर्म के लोग सिर्फ श्रीकृष्ण के भक्त ही होते हैं। संभवत: यही ईसाई मत के उन मतिभ्रष्ट लोगों की तकलीफ का कारण है। तमाम उदाहरण, घटनाएं और शोध रिपोर्ट जाहिर करती हैं कि बड़े पैमाने धर्मांतरण का काम ईसाईयों की ओर से ही किया जा रहा है। इस संबंध में पूर्व पोप बेनेडिक्ट ने तो खुली घोषणा की थी कि अब एशिया को ईसाई बनाना है। उसमें भी शुरुआत भारत से करनी है। जबकि न तो हिन्दू और न ही इस्कॉन संस्था इस तरह के कुकृत्य में संलिप्त है और न ही गीता ऐसा कोई संदेश देती है। गीता के बारे में विश्व के तमाम विद्वानों ने अपनी राय जाहिर की है। लेकिन, उसे हिंसा सिखाने वाला और कट्टरवाद को बढ़ावा देने वाला किसी ने नहीं कहा। गीता तो जीवन का सत्य पथ प्रकाशित करती है। कर्म करने की प्रेरणा देनेवाला ग्रंथ है। गीता अध्यात्म नहीं जीवन दर्शन सीखती है। मनुष्य को हर परिस्थिति में सकारात्मक रहने की ऊर्जा गीता देती है।
विश्व की नज़र में श्रीमद् भगवत गीता ----
 अल्बर्ट आइन्स्टाइन - जब मैंने गीता पढ़ी और विचार किया कि कैसे इश्वर ने इस ब्रह्माण्ड कि रचना की है, तो मुझे बाकी सब कुछ व्यर्थ प्रतीत हुआ।
अल्बर्ट श्वाइत्जर - भगवत गीता का मानवता कि आत्मा पर गहन प्रभाव है, जो इसके कार्यों में झलकता है।
अल्ड्स हक्सले - भगवत गीता ने सम्रद्ध आध्यात्मिक विकास का सबसे सुवयाव्स्थित बयान दिया है। यह आज तक के सबसे शाश्वत दर्शन का सबसे स्पष्ट और बोधगम्य सार है, इसलिए इसका मूल्य केवल भारत के लिए नही, वरन संपूर्ण मानवता के लिए है।
हेनरी डी थोरो - हर सुबह मैं अपने ह्रदय और मस्तिष्क को भगवद गीता के उस अद्भुत और देवी दर्शन से स्नान कराता हूँ, जिसकी तुलना में हमारा आधुनिक विश्व और इसका साहित्य बहुत छोटा और तुच्छ जान पड़ता है।
हर्मन हेस - भगवत गीता का अनूठापन जीवन के विवेक की उस सचमुच सुंदर अभिव्यक्ति में है, जिससे दर्शन प्रस्फुटित होकर धर्म में बदल जाता है।
रौल्फ वाल्डो इमर्सन - मैं भागवत गीता का आभारी हूँ। मेरे लिए यह सभी पुस्तकों में प्रथम थी, जिसमे कुछ भी छोटा या अनुपयुक्त नहीं किंतु विशाल, शांत, सुसंगत, एक प्राचीन मेधा की आवाज जिसने एक - दूसरे युग और वातावरण में विचार किया था और इस प्रकार उन्हीं प्रश्नों को तय किया था, जो हमें उलझाते हैं।
थॉमस मर्टन- गीता को विश्व की सबसे प्राचीन जीवित संस्कृति, भारत की महान धार्मिक सभ्यता के प्रमुख साहित्यिक प्रमाण के रूप में देखा जा सकता है।
डा. गेद्दीज़ मैकग्रेगर - पाश्चात्य जगत में भारतीय साहित्य का कोई भी ग्रन्थ इतना अधिक उद्धरित नहीं होता जितना की भगवद गीता, क्योंकि यही सर्वाधिक प्रिय है.

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