शनिवार, 31 दिसंबर 2011

जब गुंडा ही हीरो हो तो मुश्किल होती है


 हा ल ही में पहली बार मैंने दो फिल्म एक ही दिन में देखीं। एक डॉन-२ और दूसरी लेडीज वर्सेस रिक्की बहल। डॉन-२ में भारतीय सिनेमाई परंपरा के विपरीत कहानी है जबकि लेडीज वर्सेस रिक्की बहल में कहानी समाज की सोच के साथ ही बहती है। पैसा वसूल नजरिए से तो दोनों फिल्में मुझे पसंद आईं लेकिन विद्रोही मन ने इन्हें नहीं स्वीकारा। मेरे मन ने डॉन-२ में सिनेमाई परंपरा का उल्लंघन और लेडीज वर्सेस रिक्की बहल में समाज की सोच का फिल्मांकन स्वीकार नहीं किया। दरअसल, डॉन-२ के अंत में विलेन विजयी होता है। फिल्म में एक अंतरराष्ट्रीय बदमाश को हीरो की तरह प्रस्तुत किया गया है। यहां मेरा मन फिल्म निर्माता का विरोध करता है। साहित्य और सिनेमा समाज के शिक्षक-मार्गदर्शक होते हैं इस बात का मैं हिमायती हूं। ऐसे में डॉन-२ से क्या सीखा जा सकता है, अपराध जगत का बेताज बदशाह होना? कहानी में एक अपराधी को हीरो की जगह रखा गया है। फिल्म का अंत अच्छाई की जगह बुराई की जीत पर हुआ। एक गुंडा पुलिस-इंटरपोल सबको ठेंगा दिखाता हुआ उनकी गिरफ्त से दूर चला जाता है। अभी तक भारतीय सिनेमा में बहुत कम मौके आए होंगे की प्यार-रिश्ते-नाते दायित्व पर भारी पड़े हों। कर्तव्य को हमेशा भावनाओं के बंधन से ऊपर माना गया और दिखाया गया। हमारा सिनेमा अब तक सिखाता रहा है कि कर्तव्य मार्ग पर अगर अपने भी बाधा बनकर खड़े हों तो परवाह नहीं करनी चाहिए। कर्तव्य पहली प्राथमिकता है लेकिन फिल्म में कर्तव्य की मां-बहन एक कर दी गई। वरधान (बोमन ईरानी), रोमा (प्रियंका चोपड़ा) से कहता है कि डॉन (शाहरुख खान) को गोली मार दो। यहां रोमा के हाव-भाव देखकर ही दर्शक समझ जाता है भैंस गई पानी में। ये नहीं मारेगी गोली। हुआ भी यही। जिस गुंडे ने उसके भाई का कत्ल किया (डॉन-१ में) और जिसे दुनियाभर की पुलिस जिंदा या मुर्दा पकडऩा चाहती है रोमा उसके लिए खुद गोली खा लेती है। खैर, जो भी हो फरहान अख्तर ने बढिय़ा मसाला मूवी बनाई लेकिन माफ करना भाई अपुन को पसंद नहीं आई।
     वहीं, लेडीज वर्सेस रिक्की बहल में लड़कियों को बेवकूफ दिखाया गया है। दुनिया लड़कियों की प्रतिभा का लोहा मान रही है वहीं डायरेक्टर महाशय (मनीष शर्मा) ठग (रणवीर सिंह) के माध्यम से लड़कियों को कहानी के अंत तक आसानी से बेवकूफ बनाई जानी वाली 'गऊ' दिखा रहे हैं। रणवीर फिल्म में अगल-अलग जगह की लड़कियों को अपने प्रेमजाल में फंसाता है फिर उनको 'स्टूपिड' (चूतिया) बनाकर उनका पैसा ऐंठकर दूसरे शिकार की तलाश में निकल जाता था। बाद में इशिका (अनुष्का शर्मा) की मदद से तीन लड़कियां रणवीर को 'कॉन' (छल से लूटना, ठगना) करने का प्लान बनाती हैं। धूर्त ठग इशिका के जाल में फंस भी जाता है लेकिन डायरेक्टर का पुरुष अहंकार जाग जाता है। उसने सोचा होगा कि लड़कियां कैसे लड़कों को 'कॉन' कर सकती हैं। दुनिया में 'स्टूपिड' होने का ठेका तो लड़कियों ने ही लिया है। भैय्ये जबकि यह सच नहीं है। डायरेक्टर महाशय अपने पुरुषार्थ को उच्च रखने के लिए कहानी को गर्त में धकेल देते हैं। किवाड़ के पीछे से ठग लड़कियों का प्लान जान लेता है। आखिर में लड़कियों को फिर से ठग लेता है। साबित कर देता है कि वे निरी बेवकूफ ही रहेंगी। पुरुषों से जीत की होड़ न लगाएं। अच्छी भली कहानी इसी मोड़ से सड़ान मारने लगती है। उसके बाद आगे के सीन दर्शक पहले ही गेस कर लेता है। 

रविवार, 25 दिसंबर 2011

शराबी कवियों से छीन लिया था मंच

 भा रत के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के ८७वें जन्मदिन पर उनके कुछ पुराने फोटोग्राफ्स प्रस्तुत कर रहा हूं। कविमना, सरल हृदय और ओजस्वी वक्ता की एक कविता भी प्रस्तुत है। उनका जन्म ग्वालियर में हुआ था। यहीं से उन्होंने राजनीति में कदम रखा। संयुक्त राष्ट्र सभा को हिन्दी में संबोधित करने वाले भारत के सपूत और प्रख्यात हिन्दी प्रेमी के संबंध में ग्वालियर में अनेक किस्से प्रचलित हैं। एक किस्सा जरूर बताना चाहूंगा। उन दिनों की बात है जब वे महाविद्यालयीन पढ़ाई कर रहे थे। ग्वालियर में एक कवि सम्मेलन का आयोजन किया गया। कवि समय से सम्मेलन में नहीं पहुंच सके थे। कार्यक्रम में विलंब होते देख अटल बिहारी ने माइक संभाला और कॉलेज के नए-नए कवियों को मंच सौंप दिया। इसके बाद की बात और जबरदस्त है। कवि महोदय शराब के नशे में टुन्न होकर कार्यक्रम में पहुंचे। अटल बिहारी को जैसे ही मालूम हुआ उन्हें यह ठीक नहीं लगा। कविता का पाठ करते-करते कवि बहकने भी लगे थे। मामला बिगड़ता इससे पहले ही उन्होंने कार्यक्रम समाप्ति की घोषणा कर दी।
ईश्वर से यही प्रार्थना है कि उन्हें दीर्घ आयु और स्वास्थ्य मिले। ताकि वे फिर से नेताओं को मूल्य आधारित राजनीति का पाठ पढ़ा सकें।











झुक नहीं सकते
टूट सकते हैं मगर हम झुक नहीं सकते
सत्य का संघर्ष सत्ता से
न्याय लड़ता निरंकुशता से
अंधेरे ने दी चुनौती है
किरण अंतिम अस्त होती है
दीप निष्ठा का लिये निष्कंप
वज्र टूटे या उठे भूकंप
यह बराबर का नहीं है युद्ध
हम निहत्थे, शत्रु है सन्नद्ध
हर तरह के शस्त्र से है सज्ज
और पशुबल हो उठा निर्लज्ज
किन्तु फिर भी जूझने का प्रण
अंगद ने बढ़ाया चरण
प्राण-पण से करेंगे प्रतिकार
समर्पण की माँग अस्वीकार
दाँव पर सब कुछ लगा है, रुक नहीं सकते
टूट सकते हैं मगर हम झुक नहीं सकते

बुधवार, 21 दिसंबर 2011

विरोध का असल कारण कुछ और...

 रू स में कुछ मतिभ्रष्ट ईसाई मत के लोगों ने हिन्दुओं के ही नहीं वरन् संपूर्ण विश्व के ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व के धर्मग्रंथ गीता पर प्रतिबंध लगाने की मांग की। वे इस मसले को रूस के साइबेरिया प्रांत में टोम्स्क की एक अदालत में घसीट ले गए। उनके इस कुप्रयास पर दुनियाभर से कड़ी आपत्तियां आईं। नतीजन अदालत ने मामले की सुनवाई टाल दी। रूस में गीता पर लिखे जिस भाष्य को लेकर विवाद शुरू हुआ, वह इस्कॉन के संस्थापक संत स्वामी प्रभुपाद जी की रचना है,  किताब का नाम है : भगवद गीता एज इट इज। इस्कॉन संस्था भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति और उनके उपदेशों के लिए समर्पित ढंग से काम कर रही है। अनेक देशों में इस्कॉन ने भव्य मंदिर बनाए हैं। उनके माध्यम से श्रीकृष्ण और गीता के विचार को प्रचारित और प्रसारित किया। इस्कॉन के इसी समर्पण के चलते अन्य धर्म के लोग गीता और हिन्दू धर्म के करीब आए। वैसे भी विश्वभर में गीता के अनेक विद्वान मुरीद हुए हैं और वर्तमान में भी हैं। दुनिया में संभवत: गीता के अलावा कोई ऐसा ग्रंथ नहीं होगा, जिसकी सौ से ज्यादा व्याख्याएं होंगी। विरोध कर रहे लोगों ने आरोप लगाया है कि यह धर्म हिंसा सिखाता है। कट्टरवाद को बढ़ावा देता है। ईसाई मत से मेल नहीं खाता। तीनों ही तर्क अजीब  और बेबुनियाद हैं। देखा जाए तो ये तीनों तर्क तो अन्य धर्म (ईसाई और इस्लाम) के धर्मग्रन्थों पर सटीक बैठते हैं। खैर इस बात को यहीं छोड़ दिया जाए तो ठीक है।
     दरअसल, गीता के विरोध का कारण ईसाई धर्म से मेल खाना नहीं है। इसके पीछे कुछ और ही कारण है। वह कारण है इस्कॉन की ओर से किए जा रहे कार्यों के प्रभाव से कई ईसाई लोग गीता और हिन्दू धर्म के नजदीक आए हैं। वे सब कुछ छोड़कर कृष्ण के प्रेम में डूबे हैं। मैंने स्वयं देखा है कि इस्कॉन की ओर से स्थापित मंदिरों में किस तरह गोरे सबकुछ भूलकर कृष्ण की भक्ति में रमे रहते हैं। इससे ही ईसाईयों के पेट में पीर हो रही है। ईसाई इधर भारत में तमाम झूठे प्रलोभन दिखाकर और छल-कपट से हिन्दुओं को ईसाई बनाते हैं। उधर, बिना किसी प्रलोभन के ईसाई समाज इस्कॉन के सहारे हिन्दू धर्म में शामिल हो रहा है। हालांकि यह प्रक्रिया उतने स्तर पर नहीं है जितनी हिन्दुओं के ईसाई बनने की है। इसमें यह भी समझना होगा कि इस्कॉन लक्ष्य निर्धारित कर ईसाईयों को हिन्दू नहीं बनाता। न हीं उनका कभी भी धर्मांतरण करता है। वहां आने वाले सभी धर्म के लोग सिर्फ श्रीकृष्ण के भक्त ही होते हैं। संभवत: यही ईसाई मत के उन मतिभ्रष्ट लोगों की तकलीफ का कारण है। तमाम उदाहरण, घटनाएं और शोध रिपोर्ट जाहिर करती हैं कि बड़े पैमाने धर्मांतरण का काम ईसाईयों की ओर से ही किया जा रहा है। इस संबंध में पूर्व पोप बेनेडिक्ट ने तो खुली घोषणा की थी कि अब एशिया को ईसाई बनाना है। उसमें भी शुरुआत भारत से करनी है। जबकि न तो हिन्दू और न ही इस्कॉन संस्था इस तरह के कुकृत्य में संलिप्त है और न ही गीता ऐसा कोई संदेश देती है। गीता के बारे में विश्व के तमाम विद्वानों ने अपनी राय जाहिर की है। लेकिन, उसे हिंसा सिखाने वाला और कट्टरवाद को बढ़ावा देने वाला किसी ने नहीं कहा। गीता तो जीवन का सत्य पथ प्रकाशित करती है। कर्म करने की प्रेरणा देनेवाला ग्रंथ है। गीता अध्यात्म नहीं जीवन दर्शन सीखती है। मनुष्य को हर परिस्थिति में सकारात्मक रहने की ऊर्जा गीता देती है।
विश्व की नज़र में श्रीमद् भगवत गीता ----
 अल्बर्ट आइन्स्टाइन - जब मैंने गीता पढ़ी और विचार किया कि कैसे इश्वर ने इस ब्रह्माण्ड कि रचना की है, तो मुझे बाकी सब कुछ व्यर्थ प्रतीत हुआ।
अल्बर्ट श्वाइत्जर - भगवत गीता का मानवता कि आत्मा पर गहन प्रभाव है, जो इसके कार्यों में झलकता है।
अल्ड्स हक्सले - भगवत गीता ने सम्रद्ध आध्यात्मिक विकास का सबसे सुवयाव्स्थित बयान दिया है। यह आज तक के सबसे शाश्वत दर्शन का सबसे स्पष्ट और बोधगम्य सार है, इसलिए इसका मूल्य केवल भारत के लिए नही, वरन संपूर्ण मानवता के लिए है।
हेनरी डी थोरो - हर सुबह मैं अपने ह्रदय और मस्तिष्क को भगवद गीता के उस अद्भुत और देवी दर्शन से स्नान कराता हूँ, जिसकी तुलना में हमारा आधुनिक विश्व और इसका साहित्य बहुत छोटा और तुच्छ जान पड़ता है।
हर्मन हेस - भगवत गीता का अनूठापन जीवन के विवेक की उस सचमुच सुंदर अभिव्यक्ति में है, जिससे दर्शन प्रस्फुटित होकर धर्म में बदल जाता है।
रौल्फ वाल्डो इमर्सन - मैं भागवत गीता का आभारी हूँ। मेरे लिए यह सभी पुस्तकों में प्रथम थी, जिसमे कुछ भी छोटा या अनुपयुक्त नहीं किंतु विशाल, शांत, सुसंगत, एक प्राचीन मेधा की आवाज जिसने एक - दूसरे युग और वातावरण में विचार किया था और इस प्रकार उन्हीं प्रश्नों को तय किया था, जो हमें उलझाते हैं।
थॉमस मर्टन- गीता को विश्व की सबसे प्राचीन जीवित संस्कृति, भारत की महान धार्मिक सभ्यता के प्रमुख साहित्यिक प्रमाण के रूप में देखा जा सकता है।
डा. गेद्दीज़ मैकग्रेगर - पाश्चात्य जगत में भारतीय साहित्य का कोई भी ग्रन्थ इतना अधिक उद्धरित नहीं होता जितना की भगवद गीता, क्योंकि यही सर्वाधिक प्रिय है.

बुधवार, 14 दिसंबर 2011

अफजल बनाम कश्मीर की आग

 13  दिसंबर 2001 को देश के सर्वोच्च मानबिन्दु पर हमला हुआ था। दस बरस बीत गए लेकिन इस हमले को नाकाम करने में शहीद हुए वीरों के परिजनों की पीढ़ा कम नहीं हुई। उन्हें मलाल है कि संसद पर हमले और कई जवानों की हत्या का दोषी अफजल अब तक जिन्दा है। जेल में बिरयानी और सींक कबाब उड़ा रहा है। मलाई चाट रहा है। उसके ऐशो-ओ-आराम में पैसा देश की जेब से जा रहा है। इधर, कुछ सिरफिरे लोग उसको फांसी देने का जमकर विरोध कर रहे हैं। खुद कांग्रेसनीत यूपीए सरकार सालों से फाइल इधर से उधर कर रही है। पिछले साल जून में जम्मू-कश्मीर के लाटसाहब उमर अब्दुल्ला ने कहा था कि - अफजल को फांसी न दो वरना कश्मीर सुलग उठेगा और लोग सड़कों पर उतर आएंगे। मकबूल बट्ट की फांसी के बाद जो आग कश्मीर में लगी थी वही आग अफजल को फांसी देने पर लग जाएगी.... (पढ़ें - ... तो क्या मुसलमान देशद्रोही है?)  साल भर भी नहीं बीता कि सैयद अब्दुल रहमान गिलानी ने भी यही राग अलापा। गिलानी ने कहा है कि अफजल दोषी नहीं है। उसे फांसी नहीं होनी चाहिए। अगर अफजल को फांसी होती है तो कश्मीर में आग लग जाएगी। कश्मीर में अशांति फैल जाएगी। अफजल की फांसी बड़ी परेशानी का कारण बनेगी।
    ऐसा नहीं है कि राष्ट्रविरोधी बातें करने वालों की यह सिर्फ धमकियां हैं। २००६ में बकायदा अफजल की फांसी के विरोध में श्रीनगर और जम्मू के कई इलाकों में हिंसक प्रदर्शन किए गए। जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट (जेकेएलएफ) के वरिष्ठ नेता यासीन मलिक ने इन प्रदर्शनों का नेतृत्व किया।  इसी साल जम्मू-कश्मीर विधानसभा में विधायक शेख अब्दुल रशीद ने अफजल गुरु की फांसी की सजा माफी के लिए एक प्रस्ताव रखा। इस प्रस्ताव का मुख्य विपक्षी पार्टी पीपुल्स डेमोके्रटिक पार्टी (पीडीपी) ने भी अफजल की क्षमादान याचिका का समर्थन किया। मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने ट्विट कर इसे अप्रत्यक्ष रूप से बढ़ावा दिया।  देश की राष्ट्रीय अस्मिता पर हाथ डालने वाले अफजल गुरु की तरफदारी एक तरह से देशद्रोह है। शर्म की बात तो यह भी है कि देश की कथित १२५ साल पुरानी राजनीतिक पार्टी के कथित वरिष्ठ नेता अफजल को 'जी' लगाकर संबोधित करते हैं।
      मुझे ठीक-ठीक याद है कि हमले के छह-सात महीने बाद मैं संसद गया था। साथ में और भी दोस्त थे। वहां के प्रबंधन ने दो जवानों को हमें संसद घुमाने की जिम्मेदारी सौंपी। सुगठित शरीर के ऊंचे-पूरे जवान हमारे साथ हो लिए। मेरे एक दोस्त ने संसद की बाहरी दीवार में एक गहरा गड्ढा देखते हुए कहा-क्या यह गोली का निशान है। जवान का खून खौल गया। उसने हां में जवाब दिया। साथ ही कहा कि हमलावरों में से एक कुत्ता बच गया है। हमारे देश की राजनीति उसे लम्बे समय तक जिंदा रखेगी। पीढ़ा इसी बात की है। यह पीढ़ा दस बरस बाद १३ दिसंबर २०११ को भी दिखी। उस वक्त आतंकियों से लड़ते-लड़ते खेत रहे वीर जवानों के घरवालों ने दसवीं बरसी पर सरकार की ओर से आयोजित श्रद्धांजलि समारोह का बहिष्कार कर दिया। उन्होंने कहा कि हमारी एक ही मांग है कि देश के दुश्मन को जल्द ही फांसी पर लटकाया जाए। अब उसका जीवित रहना हमसे सहन नहीं होता। शहीदों के परिजन ही क्या हर देशभक्त उस वक्त ठगा-सा महसूस करता है जब खबरें आती हैं कि अफजल और कसाब की सुरक्षा में करोड़ों रुपए सरकार फूंक चुकी है। जेल में अफजल और कसाब बिरयानी खा रहा हैं। लगता है कि वे बिरयानी नहीं खा रहे हमारी बोटी नोंच-नोंच कर खा रहे हैं और हमारा उपहास उड़ा रहे हैं। जवानों को ऐसी थोती श्रद्धांजलि मत दो मेरे देश के कर्णधारो। उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि देना है तो देश के गद्दारों को फांसी दे दो। राजनीति किसी ओर मुद्दे पर कर लेना। राजनीति के लिए ढेर मुद्दे हैं।

गुरुवार, 8 दिसंबर 2011

ऑनलाइन जुबान पर ताला

 के न्द्रीय संचार एवं सूचना मंत्री कपिल सिब्बल ने कहा है कि सरकार इंटरनेट और सोशल वेबसाइट्स पर प्रकाशित होने वाली आपत्तिजनक सामग्री को नियंत्रित करने के लिए जरूरी दिशा-निर्देश तैयार करेगी। मंत्री महोदय या तो चालकी से झूठ बोल गए या फिर बोलने की आजादी पर लगाम लगाने की उनकी मंशा अभी पूरी नहीं हो सकी है। वे हिन्दुस्तानियों को पूरी तरह गूंगा करना चाहते हैं। दरअसल, 11 अप्रैल 2011 को भारत सरकार के सूचना एवं प्रौद्योगिकी विभाग ने गुपचुप तरीके से सूचना प्रौद्योगिकी (संशोधित) कानून-2008 में कांग्रेस की मंशानुरूप फेरबदल कर दिए हैं। विभाग ने आईटी एक्ट में कुछ ऐसे नियम जोड़ दिए हैं, जिनके बाद देश में इलेक्ट्रोनिक, मोबाइल और इंटरनेट समेत संचार साधनों पर सरकारी निगरानी हद से ज्यादा बढ़ गई है। यानी सरकार ने तो इंटरनेट का इस्तेमाल करने वाले करीब 10 करोड़ हिन्दुस्तानियों की ऑनलाइन जुबान पर पहले ही ताला लगाने की व्यवस्था कर ली थी। सिब्बल साहब अब बता रहे हैं या कह सकते हैं वे ऑनलाइन अभिव्यक्ति की आजादी पर और मजबूत ताला लगाना चाहते हैं। क्योंकि गूगल, फेसबुक और अन्य वेबसाइट्स ने सरकार के आदेश को पूरी तरह मामने से इनकार कर दिया है। वेबसाइट्स ने कहा कि सिर्फ विवादित होने पर वे किसी भी सामग्री को नहीं हटाएंगे। हालांकि आईटी एक्ट (संशोधित)-2008 के नए नियम 43-ए और 79 के मुताबिक सरकार किसी भी कंपनी के पास एकत्रित किसी भी व्यक्ति का डाटा हासिल कर सकती है। इसके लिए उसे किसी से इजाजत लेने की जरूरत नहीं होगी। साथ ही सरकार कथित आपत्तिजनक सामग्री प्रसारित करने पर किसी भी वेबसाइट, होस्ट वेबसाइट, सर्च इंजन और सोशल साइट को ब्लॉक कर सकती है। यह दीगर बात है कि अब तक गूगल और अन्य सोशल नेटवर्किंग साइट ने सरकार के निर्देशों का सौ फीसदी पालन नहीं किया।
         अब तक आप अपने ब्लॉग, फेसबुक पेज, वेबसाइट या अन्य सोशल साइट पर तर्कों और सबूतों के आधार पर सरकार की नीतियों की आलोचना कर सकते थे। सरकार के खिलाफ आंदोलन को समर्थन दे सकते थे। भ्रष्ट मंत्रियों या अफसरों के खिलाफ लिख सकते थे। मंत्रियों-नेताओं के भड़काऊ बयानों के खिलाफ प्रतिक्रिया जाहिर कर सकते थे। लेकिन, अब यह उतना आसान नहीं रहेगा। खासकर 'सांप्रदायिक एवं लक्षित हिंसा निवारण अधिनियम-2011' तैयार करने वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद और कांग्रेस की अध्यक्ष सोनिया गांधी, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और इस्लाम की गलत नीतियों का विरोध नहीं किया जा सकता। मंत्री कपिल सिब्बल ने सोनिया गांधी, मनमोहन सिंह और पैगंबर के खिलाफ इंटरनेट पर प्रसारित सामग्री को ही आपत्तिजनक माना है। इसीलिए सरकार ने गूगल, फेसबुक, माइक्रोसॉफ्ट और याहू के अधिकारियों से कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और पैगंबर से जुड़ी कथित अपमानजनक सामग्री को हटाने को कहा था। बाकि किसी के बारे में कोई कुछ भी लिखे-छापे वह आपत्तिजनक नहीं। कांग्रेस के नेता-कार्यकर्ता हिन्दुत्व को गरियाएं, आतंकवादियों को 'आप' और 'जी' लगाकर संबोधित करें। मैडम सोनिया गांधी गुजरात के मुख्यमंत्री को 'मौत का सौदागर' कहे। कथित कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी 'राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तुलना आतंकवादी संगठन सिमी' से करें। नई-नई राजनीति सीखे कांग्रेस के प्रवक्ता मनीष तिवारी समाजसेवी अन्ना हजारे के चरित्र पर कीचड़ उछाले। यह सब आपत्तिजनक नहीं है। मंत्री महोदय ने हिन्दुओं के खिलाफ प्रसारित सामग्री और हिन्दुओं के देवी-देवताओं के अभद्र चित्रों को भी आपत्तिजनक सामग्री नहीं माना है। ठीक वही मामला है मकबूल फिदा हुसैन हिन्दू देवताओं के नग्न चित्र बनाए तो यह अभिव्यक्ति की आजादी है। कलाकार की मौलिकता है। वहीं पैगंबर का कार्टून बनाने पर भी बावेला मचा दिया जाता है। रामायण के पात्रों के बारे में ऊल-जलूल विश्वविद्यालय में पढ़ाने पर भी कोई हल्ला नहीं। हल्ला मचाया भी जाता है है इस तरह के विवादित पाठ को कोर्स से हटाने पर कांग्रेस को चाहिए पहले अपने आंगन की सफाई करें फिर आवाम से बात करे। इस देश की जनता ने कांग्रेस को सत्ता की चाबी इसलिए नहीं दी कि उसकी मर्जी जो आए करे। लेकिन, सोनिया गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने यही किया। इससे जनता में आक्रोश है। उसकी नीतियों को लेकर, उसके नेताओं के आचरण को लेकर और यह आक्रोश बाहर निकलता है इंटरनेट और सोशल वेबसाइट पर। वेब मीडिया एक ऐसा साधन है जो जनता को अपनी बात कहने की पूरी आजादी देता है। इतना ही नहीं यहां से उसकी आवाज दूर तक भी जाती है। माहौल भी बनता है। यह हम बाबा रामदेव और अन्ना हजारे के आंदोलन के दौरान देख चुके हैं। दरअसल, देखा जाए तो कांग्रेस और उसके नेताओं के खिलाफ ही इंटरनेट और सोशल साइट पर लिखा जा रहा है। संभवत: कांग्रेस इसी बात से डरी हुई है। इसलिए वह संविधान प्रदत्त अभिव्यक्ति की आजादी को लगातार कुचलने के प्रयास करती दिखती है। कांग्रेसनीत यूपीए सरकार का बस चले तो वह पैदा होते ही हिन्दुस्तानियों के हलक में हाथ डालकर उनकी जुबान खींच ले।
        आईटी एक्ट (संशोधित)-2008 के नए नियमों के मुताबिक अगर इंटरनेट पर किसी टिप्पणी, लेख या खबर पर सरकार को आपत्ति है तो उसे 36 घंटे के भीतर हटाना होगा। अन्यथा सरकार बिना नोटिस दिए संबंधित वेबसाइट के खिलाफ कार्रवाई कर सकती है। इंटरनेट पर प्रसारित जनभावनाओं से डरी कांग्रेसनीत यूपीए सरकार अभी तक 11 वेबसाइट को बिना कारण बताए ब्लॉक करवा चुकी है। आईटी एक्ट में संशोधन से पहले जनवरी 2010 से दिसंबर 2010 तक विभिन्न वेबसाइट्स को हटाने के लिए सरकार ने गूगल को 30 आवेदन भेजे, इनमें से 53 फीसदी साइट्स बंद कर दी गईं या उनसे कथित आपत्तिजनक सामग्री हटा दी गई। वहीं साल 2009 में गूगल को सरकार ने 142 आवेदन भेजे इनमें से 78 फीसदी वेबसाइट्स को ब्लॉक कर दिया गया या कथित आपत्तिजनक सामग्री हटा दी गई।
फासीवादी नक्शे कदम पर कांग्रेस :  कांग्रेस के इस कदम से लोगों में काफी रोष है। कई राजनीतिक विशेषज्ञ और सामाजिक कार्यकर्ता बताते हैं कि कांग्रेसनीत यूपीए सरकार की नीतियों को देखकर तो यही लगता है कि यह फासीवादी, तालीबानी और साम्यवादी नक्शेकदम पर चल रही है। मंत्री महोदय हमारा देश चीन, म्यांमार, थाइलैंड, पाकिस्तान, बांग्लादेश, ईरान, उज्बेकिस्तान, वियतनाम और सउदी अरब नहीं है। भारत में लोकतंत्र है यहां सबको अपनी बात कहने की आजादी है। यह अधिकार उन्हें संविधान ने दिया है। कृपाकर उसे छीनने का प्रयास न कीजिए। 

रविवार, 20 नवंबर 2011

...आखिर गलती किसकी

  छो टा-सा बच्चा एक दिन घर-घर खेल रहा था। उसने अपने घर का डिजाइन बनाया। बच्चे ने एक छोटा-सा कमरा मुख्य भवन से दूर बनाया था। बालक के पिता ने डिजााइन देखा और बेटे को शाबासी देते हुए पूछा - वाह! सोनू, बहुत अच्छा घर बनाया है। यह कहकर उसने अपने बेटे को गोद में उठा लिया। फिर पिता ने पूछा कि - अच्छा बेटे, एक बात तो बताओ कि ये छोटा-सा कमरा क्यों बनाया है। तब उस बच्चे ने कहा - यह कमरा आपके और मम्मी के लिए है, जब आप बूढ़े हो जाएंगे। मैं और मेरी पत्नी इस घर में रहेंगे और आप उस कमरे में रहेंगे। जैसे अभी दादा-दादी रहते हैं। बाहर बने दूसरे कमरे में।
           बच्चे की बात सुनकर पिता को अपनी गलती का अहसास हुआ। फिर उसने अपनी गलती सुधारी या नहीं, पता नहीं। लेकिन, इस कहानी से साफ होता है कि हम अपने माता-पिता के साथ जैसा कर रहे हैं, वैसा ही बुढ़ापे में हमारे बेटे हमारे साथ करने वाले हैं।
         दरअसल, भेल की ओर से भोपाल में संचालित वृद्धाश्रम 'आनंदम्' के वाकये से यह कहानी याद आई। भेल प्रबंधन के एक फैसले से 'आनंदम्'  में रह रहे कई बुजुर्गों के माथे पर चिंता की रेखाएं उभर आईं। उन्हें खबर लगी थी कि 'आनंदम्' बंद होने वाला है। ऐसे में उन्हें यहां से जाना होगा। लेकिन, कहां जाएंगे? यह तय नहीं था। सभी बुजुर्गों को उनके अपनों ने घर से तो पहले ही बेदखल कर दिया था। इसलिए घर का रास्ता तो वे जानबूझकर याद करना नहीं चाहते थे। इन बुजुर्गों ने अपनी तमाम युवा अवस्था बच्चों की बेहतर परवरिश में खपा दी थी। एक आस थी कि बच्चे बुढ़ापे की लाठी बन जाएंगे और उनको खुश देखकर सुकून से जिंदगी बसर हो जाएगी। बच्चे बड़े भी हो गए और बड़े आदमी भी बन गए, लेकिन बुजुर्ग अब भी जिंदगी की जंग में हैं। अपने बेटों के आलीशान घरों, बंगलों और फ्लैटों में उन्हें इतनी सी भी जगह मयस्सर नहीं कि वे अपनी जिन्दगी की शाम वहां बिता सकें। यह भी संभव है कि बेटों ने अपने माता-पिता को बेदखल कर जिन भवनों पर कब्जा जमा रखा है उनकी नींव में इनकी पसीने की इक बूंद तक न हो। वह भी मां-बाप की कमाई हो।
      हालांकि भेल प्रबंधन ने 'आनंदम्' को बंद करने की बात को कोरी अफवाह बताया है। लेकिन, इस मसले से कई सवाल उपजे। उनमें सबसे महत्वपूर्ण है कि भारत और भारतवासियों की दशा और दिशा क्या हो गई हैं। उनकी प्राथमिकताएं ऐश-ओ-आराम है या सेवा और कर्तव्य। युवा सोच को क्या हो गया है? किस रास्ते पर चल निकले हैं ये? जिन मां-बाप ने तमाम कष्ट सहकर, अपनी इच्छाओं को तिलांजलि देकर पहले अपने बच्चे की ख्वाहिश पूरी की। आज उनके बच्चे उन्हें अपने साथ रखने को तैयार नहीं। ऐसी परिस्थितियों में जब कई बार मां-बाप बच्चों पर हक जताते हुए कहते हैं कि बेटे हमने अपना सारा जीवन तुम्हारी बेहतरी के लिए लगा दिया, क्या अब तुम्हारा इतना भी फर्ज नहीं बनता कि हमें बुढ़ापे में दो वक्त की रोटी और सिर छुपाने को छत दे सको। तब अधिकांश मामलों में बच्चों द्वारा जवाब दिया जाता है - 'यह तो आपका फर्ज था। इतना भी नहीं कर सकते थे तो हमें पैदा क्यों किया?' इन नालायक औलादों से पूछना चाहिए कि जिस तरह आज तुम अपना फर्ज भूल रहे हो वैसे ही यदि जब तुम इनकी तरह असहाय थे और ये अपना फर्ज भूल जाते तब तुम्हारा क्या होता? निश्चित ही कहीं सड़ रहे होते। दरअसल, ये लोग इस भ्रम में होते हैं कि हम जैसा कर रहे हैं वैसा हमें नहीं भोगना होगा। लेकिन, दोस्त पृकृति का नियम है जैसा करोगे वैसा भरोगे। आज नहीं तो कल।
      यह दास्तान सिर्फ भेल भोपाल के 'आंनदम्' में रहने वाले बुजुर्गों की नहीं है। देशभर में यह बीमारी फैली हुई है। इसका इलाज जरूरी है। कुछ दिन पहले ही खबर आई थी कि केरल के एर्नाकुलम में 88 वर्षीय वृद्ध भास्करन नायर ने बेटों द्वारा जबरन वृद्धाश्रम भेजे जाने से दुखी होकर आत्महत्या कर ली। वृद्ध के आठ बेटे थे। एक भी बेटा उन्हें अपने साथ रखने को तैयार नहीं हुआ। सोचो! कभी एक ने आठ को पाला था। आज आठ एक को नहीं पाल पा रहे हैं। वहीं मध्य प्रदेश के ग्वालियर शहर के एक बेटे ने एक प्लॉट को पाने के लिए अपनी जीवित मां को मृत घोषित कर दिया। दरअसल 62 वर्षीय रेशमा वेदी पाल के नाम से ग्वालियर में एक प्लॉट था। इसे हथियाने के लिए उसके बेटे नीरज ने कागजों में अपनी मां को मार दिया। गांव से उसने अपनी मां का फर्जी मृत्यु प्रमाण पत्र बनवाया। इसके बाद उस प्लॉट अपने नाम करवाकर बेच दिया। अब विधवा अबला न्याय की उम्मीद लिए नगर निगम और पुलिस अफसरों के दफ्तरों में चक्कर काट रही है। ऐसी दु:खद और शर्मनाक घटनाएं भरी पड़ी हैं। एक खोजो चार मिलेंगी। क्योंकि लोग अधिकारों की बात तो कर रहे हैं लेकिन जिम्मेदारी और कर्तव्य से बच रहे हैं। अपने लिए तो सम्मान की चाह है लेकिन दूसरे के सम्मान की फिक्र नहीं। एक और बात है घर से बुजुर्गों को दूर करना एक तरह से घर से छत हटाने जैसा है। बुजुर्ग घर में संस्कार की पाठशाला भी होते हैं। लेकिन, अब घर में उनके नहीं होने से नौनिहालों का लालन-पालन भी मशीनी हो गया है। इसीलिए उनमें संस्कारों की कमी साफ देखी जा रही है।
    आखिर में इतना ही, क्या इन वृद्ध दंपत्तियों ने भी कहानी के अनुसार गलती की थी। माना कि इन्होंने वह गलती की थी। अब इनके बच्चे उसी परंपरा पर चल निकले हैं। ऐसे में क्या यह माना जाना चाहिए कि यह परंपरा हमेशा के लिए बन जाएगी।

सोमवार, 31 अक्तूबर 2011

चंबल के बीहड़ों में गूंजने दो बेटी की किलकारी

 मैं मध्यप्रदेश के ऐसे इलाके से ताल्लुकात रखता हूं, जो कई बातों के लिए सुविख्यात है और कुख्यात भी है। ग्वालियर का किला और यहां जन्मा ध्रुपद गायन ग्वालियर-चंबल संभाग को विश्वस्तरीय पहचान दिलाता है। वहीं मुरैना का 'पीला सोना' यानी सरसों से भी देशभर में इस बेल्ट की प्रसिद्धी है। बटेश्वर के मंदिर हों या कर्ण की जन्मस्थली कुतवार दोनों पुरातत्व और ऐतिहासिक महत्व के स्थल हैं। मुरैना पीले सोने के साथ ही राष्ट्रीय पक्षी मोरों की बहुलता के लिए भी जाना जाता है। ग्वालियर-चंबल इलाके की पहचान उसकी ब्रज, खड़ी और ठेठ लट्ठमार बोली के कारण भी है। बुराई भी इधर कम नहीं। चंबल के बीहड़ एक समय खतरनाक से खतरनाक डकैतों की शरणस्थली बने रहे। वह तो शुक्र है लोकनायक जयप्रकाश नारायण और अन्य गांधीवादियों का जिनके प्रयासों से बहुत से कुख्यात डकैतों ने आत्मसमर्पण कर दिया था। हालांकि उसके बाद भी अभी तक कुछ छोटे तो कुछ बड़े डकैत सिर उठाते रहे हैं। आकंडे बताते हैं कि इस इलाके में सबसे अधिक लाइसेंसी हथियार हैं। अवैध की तो खैर गिनती ही नहीं। भिण्ड के कई गांवों में अवैध हथियार बनाने के कारखाने हैं। यहां के लोग गुस्से के भी बहुत तेज हैं। कहते हैं कि धरती को क्षत्रिय विहीन कर इधर से परशुराम जी गुजर रहे थे और उन्होंने रक्तरंजित फरसा चंबल नदी में धोया था। खैर, इधर मिलावटी मावे के लिए भी यह इलाका देशभर में हाल ही में बदनाम होना शुरू हो गया है।
     इन सबसे अधिक बदनामी का कलंक ग्वालियर-चंबल संभाग के माथे पर है। यह बेहद शर्मनाक भी है। दरअसल यह संभाग कन्या शिशु हत्या के लिए कुख्यात रहा है। इस क्षेत्र में कन्या जनम पर उसे मारने के जो तरीके प्रचलित रहे वे बेहद ही घृणित हैं। कभी तो विश्वास ही नहीं होता कि कोई ऐसा भी कर सकता है क्या? कन्या पैदा होने पर ग्वालियर-चंबल संभाग के कुछ इलाकों में तंबाकू घिसकर उसके मुंह में रख दी जाती थी। इस पर भी वह बच जाए तो खाट के पांव के नीचे उसे दबा दिया जाता था। इसके अलावा उसके पैर या सिर पकड़कर जोर से झटककर मारने के बेहद घृणित तरीके प्रचलन में थे। इनसे संबंधित कई किस्से इधर प्रचलित हैं। जैसे ही जननी ने कन्या को जन्मा तो बाहर बैठा परिवार का पुरुष सदस्य जोर से दाई से पूछता- काए का भयो? मोड़ा कै मोड़ी? जैसे ही दाई बोलती कि लड़की पैदा हुई है तो उक्त पुरुष कहता- ला देखें तो बाकी नार (गर्दन) पक्की है कै कच्ची? पुरुष कन्या शिशु का सिर दोनों हाथों से थामता और जोर से झटका देता। इतने में बेचारी का दम निकल जाता। दुनिया में आते ही उसे दुनिया से रुखसत करना पड़ता। मां प्रसव कक्ष में प्रसव पीड़ा से अधिक अपने शरीर के अंश की इस दर्दनाक मौत से अधिक  तड़पती। प्रसव से पूर्व वह लगातार भगवान से यही प्रार्थना करती कि ये प्रभु या तो लड़का भेजना नहीं तो मेरी ही जान ले लेना। यह सिलसिला अब भी बदस्तूर जारी है। फर्क कन्या हत्या के  तरीकों में आया है। अब तो क्षणभर के लिए भी उसे यह दुनिया नहीं देखने दी जाती है। उसके लिए सबसे सुरक्षित जगह मां के पेट में ही उसकी हत्या कर दी जाती है। २०११ के जनगणना के आंकड़े भी यही बयां करते हैं कि २००१ की तुलना में लिंगानुपात में अंतर बढ़ा है। २०११ की जनगणना के मुताबिक मुरैना ही मध्य प्रदेश में सबसे कम लिंगानुपात वाला जिला है। यहां छह साल तक की उम्र के बच्चों में १००० लड़कों पर महज ८२५ लड़कियां हैं। जनगणना २००१ के मुताबिक यहां इस आयु वर्ग का लिंगानुपात ८३७ था। यानी एक दशक में यहां लिंगानुपात में १२ अंकों की गिरावट दर्ज हुई। जो निश्चिततौर पर चिंतनीय है। वैसे प्रदेश के हाल भी खराब ही हैं। जनगणना २०११ के आकंड़ों के मुताबिक प्रदेश में शून्य से छह वर्ष तक के आयु समूह का लिंगानुपात ९१२ है। यह २००१ की जनगणना के मुताबिक ९३२ था। यानी इस एक दशक में प्रदेश में भी २० अंक की गिरावट हुई।
     इस बात की चर्चा इसलिए कर रहा हूं क्योंकि हाल ही में सूबे के मुखिया शिवराज सिंह चौहान ने बेटी बचाओ अभियान शुरू किया है। वहीं नवदुर्गा महोत्सव के दौरान ढूंढऩे से भी नौ-नौ कन्याएं पूजने के लिए नहीं मिलीं। वैसे मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की छवि लाड़ली लक्ष्मी योजना शुरू करने से ही बेटी हितैषी बन गई थी। बेटी बचाओ अभियान से उसमें बढ़ोतरी हुई है। अपनी इन लोक-लुभावन योजनाओं से सीएम शिवराज सिंह चौहान को राष्ट्रीय मंच पर भी खरी-खरी तारीफ मिली है। भारतीय जनता पार्टी में भी उनका कद ऊंचा हुआ है। वे भाजपा के टॉप सीएम की सूची में शामिल हैं। यूं तो अभियान के माध्यम से प्रदेशभर में बेटियों के प्रति लोगों के दृष्टिकोण में सकारात्मक बदलाव लाने के प्रयास किए ही जाएंगे। फिर भी मेरी निजी राय है कि इस अभियान के एजेंडे में ग्वालियर-चंबल संभाग प्रमुखता से होना चाहिए। यहां अब भी लोगों की सोच में बदलाव लाने के लिए काफी प्रयास किए जाने हैं। अंत में आमजन से भी यही अपील है कि कोख में ही बेटी की कब्र बनाने की जगह उसका इस खूबसूरत जहां में भव्य स्वागत हो। उसके जनम पर विलाप न हों। बधाइयां गाईं जाएं। खील-बताशे बांटे। ढोल-ढमाके बजने दें।

बुधवार, 12 अक्तूबर 2011

सच्ची बात कही थी मैंने...

  स दिन ग्वालियर की गुलाबी ठंडी शाम थी। वाकया नवंबर २००४ का है। मौका था रूपसिंह स्टेडियम में आयोजित 'जगजीत नाइट' का। कार्यक्रम में काफी भीड़ पहुंची थी। मैंने 'भीड़' इसलिए लिखा है क्योंकि वे सब गजल रसिक नहीं थे। यह भीड़ गजल के ध्रुवतारे जगजीत सिंह को सुनने के लिए नहीं शायद देखने के लिए आई थी।  बाद में यह भीड़ जगजीत सिंह की नाराजगी का कारण भी बनी। दरअसल गजल के लिए जिस माहौल की जरूरत होती है। वैसा वहां दिख नहीं रहा था। लग रहा था कोई रईसी पार्टी आयोजित की गई है। जिसमें जाम छलकाए जा रहे हैं। गॉसिप रस का आनंद लिया जा रहा है। जगजीत सिंह शायद यहां उस भूमिका में मौजूद हैं, जैसे कि किसी शादी-पार्टी में कुछेक सिंगर्स को बुलाया जाता है, पाश्र्व संगीत देने के लिए। गजल सम्राट को इस माहौल में गजल की इज्जत तार-तार होते दिखी। आखिर गजल सुनने के लिए एक अदब और सलीके की जरूरत होती है। यही अदब और सलीका आज की 'जगजीत नाइट' से नदारद था। गजल के आशिक और पुजारी जगजीत सिंह से गजल की यह तौहीन बर्दाश्त नहीं हुई। उनका मूड उखड़ गया। उन्होंने महफिल में बह रहे अपने बेहतरीन सुरों को और संगीत लहरियों को वापस खींच लिया। इस पर आयोजक स्तब्ध रह गए। सभी सन्नाटे में आ गए। आयोजकों ने जगजीत जी से कार्यक्रम रोकने का कारण पूछा। इस पर गजल सम्राट ने नाराजगी जाहिर करते हुए कहा था कि 'गजल मेरे लिए पूजा है, इबादत है। यहां इसका सम्मान होता नहीं दिख रहा है। अगर गजल सुननी है तो पहले इसका सम्मान करना सीखें और सलीका भी। मैं कोई पार्टी-शादी समारोह में गाना गाने वाला गायक नहीं हूं। गजल से मुझे इश्क है। मैं इसका अपमान बर्दाश्त नहीं कर सकता। यहां उपस्थित अधिकांश लोग मुझे गजल श्रोता, गजल रसिक नहीं दिखते। संभवत: आप लोग यहां सिर्फ जगजीत सिंह को देखने के लिए आए हैं। ऐसे में मेरे गजल कहने का कोई मतलब नहीं है। मैं खामोश ही भला।
      उनका इतना कहना था कि आयोजकों के चेहरे देखने लायक थे। काफी अनुनय, विनय और माफी मांगने पर जगजीत सिंह फिर से गाने के लिए तैयार हुए। लेकिन, उन्होंने चिट्ठी न कोई संदेश... गाकर ही कार्यक्रम को विराम दे दिया। जगजीत सिंह की महफिलों में अक्सर यही आखिरी गजल होती है। यह घटनाक्रम दूसरे दिन शहर के सभी अखबारों की सुर्खियां बना। उस दिन ग्वालियरराइट्स के दिलों में गजल के लिए सम्मान के भाव जगा दिए थे। इस पूरे वाकए पर उनकी लोकप्रिय गजलों में से एक 'सच्ची बात कही थी मैंने...' सटीक बैठती है।
       गजल के प्रति यह समर्पण देखकर ही गुलजार साहब उन्हें 'गजल संरक्षक' कहते हैं। यह उनकी आवाज का ही जादू था कि इतने लम्बे समय तक गजल और जगजीत सिंह एक दूजे का पर्याय बने रहे। वर्ष २००४ के दौरान मैंने जब अपने पसंदीदा गजल गायक के बारे अधिक जानने की कोशिश की तो पता चला कि आपकी जीवनसंगिनी चित्रा सिंह भी बेहतरीन गजल गायिका हैं। चित्रा से जगजीत जी का विवाह १९६९ में हुआ था। दोनों ने १९७० से १९८० के बीच संगीत की दुनिया में खूब राज किया। बाद में सड़क दुर्घटना में बेटे विवेक की मौत के बाद चित्रा सिंह ने गाना छोड़ दिया। जबकि जगजीत सिंह बेटे के गम में डूबने से बचने के लिए गजल और आध्यात्म में और अधिक डूब गए। गजल को अधिक लोकप्रिय बनाने में जगजीत सिंह का योगदान अतुलनीय है। ऑर्केस्ट्रा के साथ गजल प्रस्तुत करने का सिलसिला भी इन्हीं की देन है। यह फॉर्मूला बेहद हिट हुआ। जगजीत सिंह गजल गायक, संगीतकार, उद्योगपति के साथ ही बेहतरीन इंसान भी थे। वे कई कलाकारों की तंगहाली में मदद करते रहे, क्योंकि उन्होंने भी शुरूआती दिनों में संघर्ष की पीड़ा का डटकर सामना किया। आखिर में इस महान गायक का जन्म ८ फरवरी  १९४१ को राजस्थान के श्रीगंगानगर में हुआ था। ७० वर्ष का सफर तय कर मुंबई में १० अक्टूबर २०११ को निधन हो गया। पिता ने उनका नाम जगमोहन रखा था। उनके गुरु ने ही उन्हें जगजीत सिंह नाम दिया। गुरु का मान रखते हुए उन्होंने 'जग' से विदा लेते-लेते   इसे 'जीत' लिया था।

शनिवार, 24 सितंबर 2011

क्या यही है जादुई छड़ी?

यो जना आयोग ने भारतीय गरीबी का जिस तरह मजाक बनाया है। उस पर हो-हल्ला होना लाजमी है। योजना आयोग की ओर से गढ़ी गई गरीबी की नई परिभाषा से भला कौन, क्यों और कैसे सहमत हो सकता है। २० सितंबर २०११ मंगलवार को आयोन ने सुप्रीम कोर्ट में दायर हलफनामें में कहा है कि खानपान पर शहरों में ९६५ रुपए और गांवों में ७८१ रुपए प्रति माह खर्च करने वाले व्यक्ति को गरीब नहीं माना जा सकता। यानी शहर में ३२ रुपए और गांव में २६ रुपए रोज खर्च करने वाले व्यक्ति बीपीएल (गरीबी रेखा के नीचे) के तहत मिलने वाली कल्याणकारी सुविधाओं का लाभ नहीं उठा सकता। गरीबी की इस परिभाषा के अनुसार तो निश्चित ही रेलवे स्टेशन, बस स्टैंड और अन्य सार्वजनिक स्थानों पर दिखाई देने वाली भिखारियों की भीड़ भी अमीर हो गई। धन्य है योजना आयोग, जिसने कितने करोड़ भारतीयों की किस्मत छूमंतर कह कर बदल दी। अभिशप्त गरीबी झेलने को मजबूर करोड़ों लोगों को अमीर कर दिया। जय हो उनकी जिन्होंने इस रिपोर्ट के मार्फत एक ही झटके में भयानक महंगाई (डायन) के दौर में गरीबों के आंसू पौंछ दिए।
       इस रिपोर्ट पर माननीय प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के हस्ताक्षर हैं। अर्थात् उन्होंने इसका ठीक ढंग से अवलोकन किया होगा। वैसे भी देश से महंगाई और गरीबी दूर करने के लिए लम्बे समय से प्रधानमंत्रीजी एक जादू की छड़ी ढूंढ़ रहे थे। शायद यह रिपोर्ट उन्हें वही जादू की छड़ी लगी और उन्होंने इस पर तपाक से अपने हस्ताक्षर ठोंक दिए। ताकि अगली बार जनता से कह सकें देखो मेरे प्यारे देशवासियों मैंने जादू की छड़ी घुमाकर देश से काफी हद तक गरीबी दूर कर दी। गौरतलब है कि योजना आयोग का अध्यक्ष देश का प्रधानमंत्री होता है। योजना आयोग का उद्देश्य आर्थिक संवृद्धि, आर्थिक व सामाजिक असमानता को दूर करना, गरीबी का निवारण और रोजगार के अवसरों में वृद्धि के लिए काम करना और योजनाएं बनाना है। इसके लिए उपलब्ध आर्थिक संसाधनों का ही बेहतर उपयोग करना है। वैसे भारत में आर्थिक आयोजन संबंधी प्रस्ताव सर्वप्रथम सन् १९३४ में 'विश्वेश्वरैया' की पुस्तक 'प्लांड इकोनोमी फॉर इंडिया' में आया था। इसके बाद सन् १९३८ में अखिल भारतीय कांग्रेस ने ऐसी ही मांग की थी। सन् १९४४ में कुछ उद्योगपतियों द्वारा 'बंबई योजना' के तहत ऐसे प्रयास किए गए। सरकारी स्तर पर स्वतंत्रता के बाद सन्  १९४७ में पंडित जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में आर्थिक नियोजन समिति गठित हुई। बाद में इसी समिति की सिफारिश पर १५ मार्च १९५० को योजना आयोग का गठन असंवैधाकि और परामर्शदात्री निकाय के रूप में किया गया। भारत के प्रधानमंत्री को इसका अध्यक्ष बनाया गया। इसके बाद योजना आयोग ने भारत उक्त उद्देश्यों को ध्यान में रखकर कार्य करना शुरू किया था।
    कांग्रेस नीत यूपीए सरकार ने अपने दोनों चुनाव (२००४ और २००९) महंगाई को नियंत्रित करने और आम आदमी की दशा को सुधारने के नारे के साथ लड़े। जनता ने उसे इसी भरोसे दोनों बार संसद पहुंचाया। लेकिन, दोनों बार इस सरकार ने आम जनता के विश्वास को छला है। यूपीए के दूसरे कार्यकार्य ने तो साफ-साफ बता ही दिया कि वह आम आदमी की कितनी हमदर्द है। लगातार पेट्रो उत्पाद के महंगे कर जनता की कमर तोड़कर कर रख दी। उसे इस पर भी चैन नहीं मिली कि वह फिर से पेट्रोल के दाम बढ़ाने की तैयारी करने लगी है। एलपीजी सिलेंडर से सब्सिडी खत्म कर उसे भी महंगा करने की जुगत सरकार के कारिंदे भिड़ा रहे हैं। इस सब में बेचारे आम आदमी का जीना मुश्किल है। इधर, योजना आयोग को भी पता नहीं क्या मजाक सूझी की उसने गरीबी की यह परिभाषा गढ़ दी। योजना आयोग के इस हलफनामे और तर्कों पर सब ओर से कड़ी प्रतिक्रिया आ रही है। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने इसे तुरंत वापस लेने की मांग की है। वहीं सुप्रीम कोर्ट की ओर से नियुक्त खाद्य आयुक्त ने इसे असंवेदनशील बताया है। उन्होंने कहा है कि यह पैमाना तो उन परिवारों के लिए सही है जो भुखमरी के कगार पर हैं, गरीबों के लिए नहीं।
      योजना आयोग गरीबी पर नया क्राइटीरिया सुझाते हुए कहता है कि दिल्ली, मुंबई, बेंगलुरू, और चेन्नई जैसे महानगरों में चार सदस्यों वाला परिवार यदि महीने में ३८६० रुपए खर्च करता है तो उसे गरीब नहीं कहा जा सकता। अब भला इस रिपोर्ट को तैयार करने वाले साहब लोगों को कौन बताए कि इतने रुपए में इन महानगरों में सिर छुपाने को ठिकाना भी मुश्किल है। इतना ही नहीं आयोग कहता है कि ५.५० रुपए दाल पर, १.०२ रुपए चावल व रोटी पर, २.३३ रुपए दूध पर, १.५५ रुपए तेल पर, १.९५ पैसे साग-सब्जी पर, ४४ पैसे फल पर, ७० पैसे चीनी पर, ७८ पैसे नमक व मसालों पर, ३.७५ पैसे ईंधन पर खर्च करें तो एक व्यक्ति स्वस्थ्य जीवनयापन कर सकता है। इतना ही नहीं योजना आयोग कहता है कि यदि आप ९९ पैसा प्रतिदिन शिक्षा पर खर्च करते हैं तो आपको शिक्षा के संबंध में कतई गरीब नहीं माना जा सकता। ऐसे में तो गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करने वालों के लिए बनी तमाम कल्याणकारी योजनाओं का लाभ लेने से लाखों-करोड़ों लोग वंचित हो जाएंगे। सरकार का भारी भरकम बजट जो इन योजनाओं पर खर्च हो रहा है जरूर बच जाएगा। लेकिन, गरीबी में जी रहे लोगों को जीने के लाले पड़ जाएंगे।
      इन आंकड़ों के हिसाब से मुझे तो नहीं लगता कि देश में भुखमरी से पीडि़त को छोड़कर कोई गरीब मिलेगा।  इस तरह देखें तो वाकई यह रिपोर्ट जादुई है। जिसने भारत से कागजों में गरीबी दूर करने के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दिखाई है। योजना आयोग के अध्यक्ष और भारत के प्रधानमंत्री की जादुई छड़ी शायद यही रिपोर्ट है जिसे वो इतने दिन से ढूंढ़ रहे थे।

बस कीमतें इधर-उधर हुई हैं
15 साल पहले एक समोसा 50 पैसे का और एक फोन कॉल 7 रुपए की। आज एक फोन कॉल 50 पैसे की और एक समोसा 7 रुपए का। महंगाई बढ़ी नहीं बस कीमतें इधर-उधर हुईं हैं। - मनमोहन सिंह

रविवार, 31 जुलाई 2011

बिट्टो

बीना स्टेशन। स्वर्णजयंती एक्सपे्रस। २७ जुलाई २०११। सार्थक ग्वालियर से भोपाल जा रहा था। उसकी भोपाल में पोस्टिंग हो गई थी। वह वहां एक अखबार में काम करता है। बीना स्टेशन पर ट्रेन को रुके हुए १५ मिनट से ज्यादा वक्त बीत गया था। सभी यात्री गर्मी और उमस से बेहाल थे। महीना तो सावन का था, लेकिन भीषण गर्मी और पसीने से तरबतर शरीर से चैत्र मास का अहसास हो रहा था। कई लोग उमस से परेशान हो कर डिब्बे से उतरकर प्लेटफार्म पर खड़े हो गए थे। जिसके हाथ जो था वह उसी से हवा करने की कोशिश में था। सब की एक ही चाह थी कि जल्द ही ट्रेन चल दे तो थोड़ी राहत मिले।
'अहा! ट्रेन चल दी।' एक हल्के से झटके से सार्थक को यह अहसास हुआ। उसने सुकून की लम्बी सांस खींची और सीट से अपनी पीठ टिका दी। ट्रेन ने हल्की गति भी पकड़ ली।
लेकिन तभी, 'उफ! यह क्या हुआ?'  प्लेटफार्म पर बदहवास चीखते-चिल्लाते ट्रेन के बराबर में एक महिला को भागते देखकर अनायस सार्थक के मुंह से निकला। वह जोर-जोर से बिट्टो-बिट्टो पुकार रही थी। बिट्टो शायद उसकी बेटी का नाम था। जो ट्रेन में अपने पिता के साथ सफर कर रही थी। हां, बिट्टो उसी की बेटी है। कोई १०-११ साल की लड़की। सार्थक को याद आया कि थोड़ी देर पहले ही तो वह मेरी खिड़की के पास खड़ी थी। वह अपने पति और बेटी को छोडऩे स्टेशन आई थी। उस समय गर्मी से परेशान सार्थक के कानों में भी उनकी बातें घुल रहीं थीं। वह अपने पति से कह रही थी-  'मुझे भी साथ चलना है।'
'हां बाबा। मैं जल्द ही तुम्हें ले जाऊंगा।' पति लाड़ से उसे समझाते हुए कह रहा था।
'जल्द ही मतलब जल्द ही मुझे ले जाना और हां ट्रेन में बिट्टो का ध्यान रखना। पानी की बोटल रख ली या नहीं। गर्मी बहुत है।' - महिला ने अपने पति को हिदायत देते हुए कहा।
इसके बाद सार्थक खुद अपने सुबह में खो गया। सुबह जब वह तैयार हो रहा था तो उसकी पत्नी के भी लगभग यही वाक्य थे। भारतीय नारियों के हृदय में कितना साम्य होता है। अगर वह पश्चिमी जीवन शैली की चपेट में न आई हो तो। खैर...
फिर अचानक इसे क्या हुआ? ये इस तरह क्यों चीख रही है? तरह-तरह के उलझे हुए सवाल सार्थक के दिमाग में दस्तक देने लगे। अच्छा खुद ही उनके तरह-तरह जवाब भी तलाश रहा था। ट्रेन जब तक रुकी थी बेटी और पति उसके पास थे, लेकिन जैसे ही गाड़ी ने चलना शुरू किया होगा उसकी ममता जाग उठी होगी। उसकी छाती बेटी से बिछडऩे के भय से बैठने लगी होगी। मां आखिर मां होती है। हां यही कारण तो मौजूं दिखता है। उसके इस तरह बेसुध होकर बिट्टो-बिट्टो पुकारते हुए भागने के लिए। बेटी से बिछडऩे की पीढ़ा उसके चेहरे से साफ झलक रही थी। पति से दूर रहने का गम एक बारगी भारतीय स्त्री सह सकती है, लेकिन अपने बच्चों से दूर उससे नहीं रहा जाता। हां, यही सच है।
गाड़ी तेज होती जा रही थी। वह अब भी और जोर लगाकर दौड़ रही थी। आंखों से आंसुओं की नदी बह रही थी। वह बिट्टो के अलावा और कुछ बोल भी नहीं पा रही थी। उस क्षण सार्थक के मन में एक ही बात ने जोर मारा। जल्दी से चेन खींचकर गाड़ी को रोका जाए। यह सोचते हुए सार्थक ने चेन पुलिंग के लिए हाथ बढ़ाया ही था कि गाड़ी से कूदता हुआ उसका पति उसे दिखा। गाड़ी से इस तरह उतरते समय वह गिरते-गिरते बचा था।
'क्या हुआ? क्या बात है?' उसने अपनी पत्नी का चेहरा दोनों हाथों में भरकर उससे पूछा। ऐसी किसी स्थिति में पुरुष अक्सर क्रोधित हो जाते हैं। उसने विस्मय और परेशानी के लहजे में यह पूछा था। लेकिन, अब भी महिला के मुंह से सिवाय बिट्टो के कुछ नहीं निकला। वह और कुछ नहीं कह पाई। इस पर भागते हुए उस युवक ने गाड़ी से अपनी बेटी को उतारा। प्लेटफार्म पर तीनों मां-पिता और बेटी एक दूसरे से लिपटकर खड़े हो गए। महिला अभी भी सिसक-सिसक कर रो रही थी। उसके पति की भी आंखे नम हो गई थी। उसने पत्नी और बेटी को अपने कलेजे से ऐसे चिपका लिया जैसे सालों बाद उनसे मिला हो। सार्थक भी नम पलकों से उन्हें तब तक निहारता रहा। जब तक वे उसे नजर आए। इसके बाद भोपाल तक रास्ते भर वे उसके जेहन में बने रहे।

दो शब्द : यह एक सत्य घटना है। जिससे मैं बहुत प्रभावित हुआ। इसे मैंने एक लघुकथा का रूप देने की कोशिश की है। पता नहीं सफल रहा या असफल। इतना तो पता है कि मैं उस मां निश्चल प्रेम और अपनी बेटी के लिए उसकी तड़प अंकित करने में असफल रहा।

गुरुवार, 14 जुलाई 2011

धमाके होते रहेंगे

 मुं बई में बुधवार (१३ जुलाई २०११) को तीन जगह बम विस्फोट हुए। मुम्बा देवी मंदिर के सामने झवेरी बाजार में। दूसरा ओपेरा हाउस के पास चेंबर प्रसाद में और तीसरा दादर में। तीनों विस्फोट १० मिनट में हुए। इनमें अब ३१ लोगों की मौत हो चुकी है १२० से अधिक गंभीर हालत में अस्पताल में मौत से संघर्ष कर रहे हैं।
          भारत में यह आश्चर्यजनक घटना नहीं है। इसलिए चौकने की जरूरत नहीं। शर्मनाक जरूर है। दु:खद है। देशवासियों को ऐसे धमाकों की आदत डाल लेनी होगी, क्योंकि जब तक देश की राजनैतिक इच्छाशक्ति गीदड़ों जैसी रहेगी तब तक धमाके यूं ही होते रहेंगे। हमारे (?) नेता गीदड़ भभकियां फुल सीना फुलाकर देते हैं। करते कुछ नहीं। एक तरफ अन्य देश हैं जो करके दिखाते हैं फिर कहते हैं। अमरीका को ही ले लीजिए। उसने देश के नंबर वन दुश्मन को एड़ीचोटी का जोर लगाकर ढूंढ़ा और उसे उसके बिल में घुसकर मार गिराया। इस घटना के वक्त भी हमारे (?) नेताओं ने आतंकियों को अमरीका अंदाज में मारने की गीदड़ भभकी दी थी। लेकिन, हुआ क्या? मुंबई में ये धमाके। हमारे खुफिया तंत्र को इनकी खबर ही नहीं थी। इसके अलावा देश के शीर्ष विभागों में क्या गजब का तालमेल है यह भी धमाकों के बाद उजागर हो गया। मृतकों की संख्या को लेकर मुंबई पुलिस कमिश्नर कुछ जवाब दे रहे थे, मुख्यमंत्री के पास कुछ दूसरे ही आंकड़े थे और गृहमंत्री अपना ही सुर आलाप रहे थे। किसी के पास कोई ठोस जानकारी नहीं। देश की जनता किसकी बात पर भरोसा करे। 
        भारत की राजनीति भयंकर दूषित हो चुकी है। वोट बैंक की घृणित राजनीति के चलते देशधर्म दोयम दर्जे पर खिसका दिया गया है। इसी वोट बैंक की राजनीति के चलते भारत की 'आत्मा' (संसद) और मुंबई के 'ताज' होटल पर हमला करने वाले आतंकियों को अब तक फांसी पर नहीं लटकाया जा सका है। कांग्रेस उन्हें मुस्लिम वोट बैंक के 'महाप्रबंधक' के रूप में देखती है। उनकी सुरक्षा व्यवस्था पर सरकार करोड़ों रुपए फूंक रही है। पिछले साल ही उजागर हुआ था कि अफजल और कसाब को जेल में 'रोटी और बोटी' की शानदार व्यवस्था है। बम फोड़कर निर्दोष लोगों की हत्या कर उन्हें जिस 'जन्नत' के ख्वाब दिखाए गए थे वह उन्हें भारतीय जेलों में ही नसीब हो गई। कितनी शर्मनाक स्थिति है कि देश ही नहीं वरन् मानवता के दो बड़े अपराधी इस देश में वोटों की तराजू पर तोले जाते हैं। नेता उनकी फांसी को ऐन केन प्रकारेण टालने की जुगत भिड़ाते रहते हैं। जहां हत्यारों को इतनी सहूलियत और इज्जत बख्शी जाए वहां कौन मूर्ख बम नहीं फोडऩा चाहेगा। देश के वरिष्ठ नेता मानवता के दुश्मनों की मौत का मातम मनाते हैं। उन्हें 'जी' और 'आप' लगाकर संबोधित करते हैं। उनके प्रति अपनी श्रद्धांजलि अर्पित कर देश के शहीदों का अपमान करते हैं। निरे बेवकूफ हैं जो चेन झपटते हैं, छोटी-मोटी लूट मार कर रहे हैं। उन्हें इस देश में इज्जत और शोहरत चाहिए तो बम फोडऩे होंगे। हो सकता है देश की राजनीति का यही हाल रहा तो देर सबेरे इन्हें अक्ल आ ही जाएगी। फिर ये भी हमारे माथे बम फोड़ेंगे। इसलिए इस देश में बम धमाके होते रहेंगे।
       धमाके वाकई रोकने हैं तो दृढ़ इच्छाशक्ति की जरूरत है। आतंकियों के दिलों में खौफ पैदा करने की जरूरत है। आतंकियों और उनके मनसूबों को कुचलना ही है तो वोट बैंक की राजनीति का त्याग करना होगा। राजनीति में देशधर्म और जनता के हित सर्वोपरि रखने होंगे। अब भी यदि आतंकियों से कैसे निपटना है देश के कर्णधारों को नहीं सूझ रहा हो। उनकी बुद्धि पर ताला पड़ गया हो तो ब्रिटेन और अमरीका से सीख ली जा सकती है। जिन्होंने अपने देश में आतंक की एक-दो घटनाओं के बाद उसे फिर सिर नहीं उठाने दिया। कह सकते हैं कि उन्होंने अपनी धरती पर पनप रहे आतंक के भ्रूण की ही हत्या कर दी। उसे सपोला तक नहीं बनने दिया। इजराइल से भी प्रेरणा ली जा सकती है। जो चारों ओर से दुश्मनों से घिरा है। फिर भी मजाल है किसी की, इजराइल की तरफ आंख उठाकर भी देख ले। यहां आतंक इसलिए नहीं फनफना सका, क्योंकि यहां राष्टधर्म और राष्ट्रहित प्राथमिक हैं। यहां वोट बैंक की घृणित राजनीति नहीं। चंद वोटों की खातिर देश को बारूद के मुहाने खड़ा करने की सोच यहां की राजनीति में नहीं है। अपने नागरिकों को बेवजह मरने से बचाने के लिए बिखर रहा ब्रिटेन भी शेर हो गया। नतीजा आज उसके नागरिक बेफिक्र सोते हैं। अमरीका तो एक घटना के बाद से आज तक आतंकियों के पीछे 'तीर-कमान' लेकर पड़ गया है। वह अपने देश के नंबर एक दुश्मन का सफाया तो कर ही चुका है, उसके बाद भी शांत नहीं है। आतंक को पस्त करने की उसने ठान रखी है। वह अब भी आतंकियों को ओसामा बिन लादेन के पास भेज रहा है। इसके लिए उसने पाकिस्तान से भी बिगाड़ कर ली है। 
     ऐसा भी नहीं है कि भारत यह सब करने में समर्थ नहीं है। उसके पास आतंकियों से निपटने के लिए पर्याप्त इंतजाम नहीं है। ये सब है उसके पास। बस नहीं है तो राजनैतिक इच्छाशक्ति। इसी राजनैतिक इच्छाशक्ति के अभाव के चलते आतंकियों के हौसले बुलंद हैं। वे बार-बार देश के किसी न किसी हिस्से में धमाके करते रहते हैं। देश की सुरक्षा इंतजामों का हाल तो यह है कि हम मुंबई की सुरक्षा व्यवस्था ही पुख्ता नहीं रख पा रहे हैं। देश की आर्थिक राजधानी मुंबई में यह पहला धमाका नहीं है। मुंबई में पहली बार सिलसिलेबार धमाके १९९३ में हुए थे। उसके बाद २००२, २००३, २००६ और २००८ में भी धमाके होते रहे। १९९३ से अब तक मुंबई में ही करीब ७०० लोगों की जान हम गवां चुके हैं। इसके बाद भी हम सबक लेने को तैयार नहीं। बयानबाजी और वोट बैंक की परवाह छोड़कर हमें कुछ अमरीका और ब्रिटेन की नीति को अपनाना होगा। हमारी सेना में वो कुव्वत है। वे आतंक के सफाए के लिए अपनी मंशा भी जता चुके हैं। देश के कर्णधारों को आतंक को मिटाने के लिए कुछ ठोस नीति बनानी होगी। वरना तो यूं ही धमाके होते रहेंगे और हम अपने प्रियजनों को खोते रहेंगे।

शनिवार, 25 जून 2011

देश बांट कर रहेगी कांग्रेस

'सांप्रदायिक एवं लक्षित हिंसा निवारण अधिनियम-२०११' की आग में जलेगा देश। कांग्रेस काटेगी वोटों की फसल। बहुसंख्यकों पर होगा अत्याचार।

 कां ग्रेस की नीतियां अब देशवासियों की समझ से परे जाने लगी हैं। संविधान की शपथ लेकर उसकी रक्षा और उसका पालन कराने की बात कहने वाली यूपीए सरकार संविधान विरुद्ध ही कार्य कर रही है। उसने देश को एकसूत्र में फिरोने की जगह दो फाड़ करने की तैयारी की है। वोट बैंक की घृणित राजनीति के फेर में कांग्रेस और उसके नेताओं का आचरण संदिग्ध हो गया है। हाल के घटनाक्रमों को देखकर तो ऐसा ही लगता है कि कांग्रेस फिर से देश बांट कर रहेगी या फिर देश को सांप्रदायिक आग में जलने के लिए धकेलकर ही दम लेगी। सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ने 'सांप्रदायिक एवं लक्षित हिंसा निवारण विधेयक-२०११' तैयार किया है। लम्बे समय से सब ओर से इस विधेयक का विरोध हो रहा है। लगभग सभी विद्वान इसे 'देश तोड़क विधेयक' बता रहे हैं। इसे संविधान की मूल भावना के खिलाफ माना जा रहा है। इसे कानूनी जामा पहनाना देश के बहुसंख्यकों को दोयम दर्जे का साबित करने का प्रयास है। इसके बावजूद कांग्रेस की सलाहकार परिषद ने बीते बुधवार को इसे संसद में पारित कराने के लिए सरकार के पास भेज दिया।
          'समानांतर सरकार' नहीं चलने देंगे। 'सिविस सोसायटी' को क्या अधिकार है विधेयक तैयार करने का। यह काम तो संसद का है। इस तरह के बहानों से लोकपाल बिल का विरोध करने वाले सभी कांग्रेसी इस विधेयक को पारित कराने के लिए जी जान से जुट जाएंगे। वह इसलिए कि इस विधेयक को उनकी तथाकथित महान नेता सोनिया गांधी के नेतृत्व में तैयार कराया गया है, किसी अन्ना या रामदेव के नेतृत्व में नहीं। इसलिए भी वे पूरी ताकत झोंक देंगे ताकि इस विधेयक के नाम से वे अल्पसंख्यकों के 'वोटों की फसल' काट सकें। अन्ना हजारे और बाबा रामदेव के सुझाव मानने से तो उनकी 'लूट' बंद हो जाती। जबकि यह विधेयक उन्हें भारत को और लूटने में मददगार साबित होगा। कांग्रेस की यह 'दादागिरी' कि हम पांच साल के लिए चुनकर आए हैं हम जो चाहे करेंगे। इससे देश का मतदाता स्वयं को अपमानित महसूस कर रहा है। अन्ना हजारे और बाबा रामदेव के आंदोलन में बड़ी भारी संख्या में शामिल होकर उसने कांग्रेस को बताने का प्रयास किया कि उसकी नीतियां देश के खिलाफ हो रही हैं। वक्त है कांग्रेस पटरी पर आ जाए, लेकिन सत्ता के मद में चूर कांग्रेस आमजन की आवाज कहां सुनती है। आप खुद तय कर सकते हैं कि यह विधेयक देश में सांस्कृतिक एकता के लिए कितना घातक है। फिर आप तय कीजिए क्या ऐसे किसी कानून की देश को जरूरत है? क्या ओछी मानसिकता वाली कांग्रेस की देश को अब जरूरत है? क्या यूपीए सरकार की नीतियां और उसका आचरण देखकर नहीं लगता कि शासन व्यवस्था में 'देशबंधु' कम 'देशशत्रु' अधिक बैठे हैं? क्या कांग्रेस नीत यूपीए सरकार को पांच साल तक सत्ता में बने रहने का अधिकार है? क्या इस तरह देश में कभी चैन-अमन कायम हो सकेगा? क्या इससे 'बहुसंख्यक' अपने को कुंठित महसूस नहीं करेगा?

'सांप्रदायिक एवं लक्षित हिंसा निवारण विधेयक-२०११' कहता है...

1- 'बहुसंख्यक' हत्यारे, हिंसक और दंगाई प्रवृति के होते हैं। (विकीलीक्स के खुलासे में सामने आया था कि देश के बहुसंख्यकों को लेकर सोनिया गांधी और राहुल गांधी की इस तरह की मानसिकता है।) जबकि 'अल्पसंख्यक' तो दूध के दुले हैं। वे तो करुणा के सागर होते हैं। अल्पसंख्यक समुदायक के तो सब लोग अब तक संत ही निकले हैं।
2- दंगो और सांप्रदायिक हिंसा के दौरान यौन अपराधों को तभी दंडनीय मानने की बात कही गई है अगर वह अल्पसंख्यक समुदाय के व्यक्तियों के साथ हो। यानी अगर किसी बहुसंख्यक समुदाय की महिला के साथ दंगे के दौरान अल्पसंख्यक समुदाय का व्यक्ति बलात्कार करता है तो ये दंडनीय नहीं होगा।
3- यदि दंगे में कोई अल्पसंख्यक घृणा व वैमनस्य फैलता है तो यह अपराध नहीं माना जायेगा, लेकिन अगर कोई बहुसंख्यक ऐसा करता है तो उसे कठोर सजा दी जायेगी। (बहुसंख्यकों को इस तरह के झूठे आरोपों में फंसाना आसान होगा। यानी उनका मरना तय है।)
4- इस अधिनियम में केवल अल्पसंख्यक समूहों की रक्षा की ही बात की गई है। सांप्रदायिक हिंसा में बहुसंख्यक पिटते हैं तो पिटते रहें, मरते हैं तो मरते रहें। क्या यह माना जा सकता है कि सांप्रदायिक हिंसा में सिर्फ अल्पसंख्यक ही मरते हैं?
5- इस देश तोड़क कानून के तहत सिर्फ और सिर्फ बहुसंख्यकों के ही खिलाफ मुकदमा चलाया जा सकता है। अप्ल्संख्यक कानून के दायरे से बाहर होंगे।
6- सांप्रदायिक दंगो की समस्त जवाबदारी बहुसंख्यकों की ही होगी, क्योंकि बहुसंख्यकों की प्रवृति हमेशा से दंगे भडकाने की होती है। वे आक्रामक प्रवृति के होते हैं।
७- दंगो के दौरान होने वाले जान और माल के नुकसान पर मुआवजे के हक़दार सिर्फ अल्पसंख्यक ही होंगे। किसी बहुसंख्यक का भले ही दंगों में पूरा परिवार और संपत्ति नष्ट हो जाए उसे किसी तरह का मुआवजा नहीं मिलेगा। वह भीख मांग कर जीवन काट सकता है। हो सकता है सांप्रदायिक हिंसा भड़काने का दोषी सिद्ध कर उसके लिए जेल की कोठरी में व्यवस्था कर दी जाए।
८- कांग्रेस की चालाकी और भी हैं। इस कानून के तहत अगर किसी भी राज्य में दंगा भड़कता है (चाहे वह कांग्रेस के निर्देश पर भड़का हो।) और अल्पसंख्यकों को कोई नुकसान होता है तो केंद्र सरकार उस राज्य के सरकार को तुरंत बर्खास्त कर सकती है। मतलब कांग्रेस को अब चुनाव जीतने की भी जरूरत नहीं है। बस कोई छोटा सा दंगा कराओ और वहां की भाजपा या अन्य सरकार को बर्खास्त कर स्वयं कब्जा कर लो।

सोनिया गांधी के नेतृत्व में इन 'देशप्रेमियों' ने 'सांप्रदायिक एवं लक्षित हिंसा निवारण विधेयक-२०११' को तैयार किया है।
१. सैयद शहबुदीन
२. हर्ष मंदर
३. अनु आगा
४. माजा दारूवाला
५. अबुसलेह शरिफ्फ़
६. असगर अली इंजिनियर
७. नाजमी वजीरी
८. पी आई जोसे
९. तीस्ता जावेद सेतलवाड
१०. एच .एस फुल्का
११. जॉन दयाल
१२. जस्टिस होस्बेट सुरेश
१३. कमल फारुखी
१४. मंज़ूर आलम
१५. मौलाना निअज़ फारुखी
१६. राम पुनियानी
१७. रूपरेखा वर्मा
१८. समर सिंह
१९. सौमया उमा
२०. शबनम हाश्मी
२१. सिस्टर मारी स्कारिया
२२. सुखदो थोरात
२३. सैयद शहाबुद्दीन
२४. फरह नकवी

शुक्रवार, 17 जून 2011

‘दूर हट ये फिरंगी, मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी’

सुबह के आठ बज रहे थे। उस दिन मैं जल्दी जाग गया था। चार बजे उठने वाले लड़के की नींद पत्रकारिता के पेशे में आने के बाद से औसतन 10 बजे खुलने लगी है। खैर, मैं नित्य की तरह शहर के खास समाचार-पत्र पढ़ रहा था। बाहर बच्चे खेल रहे थे। तभी एक जोर की आवाज आई-‘दूर हट ये फिरंगी, मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी।’ जैसी ही यह सुना, मन गदगद हो गया। मैं तुरंत ही बालकनी में पहुंचा। देखा कि एक छोटी सी बच्ची लकड़ी की तलवार से एक छोटे लड़के से लड़ाई कर रही है। उसके बाद में अपने कमरे में आ गया। अखबार पढ़ने का क्रम जारी रहा। इसी बीच रह-रह कर यह ख्याल जेहन में आ रहा था कि टेलीविजन पर जो प्रसारित हो रहा है उसका असर होता है। दरअसल, जी टीवी चैनल पर वीरांगना लक्ष्मीबाई के जीवन पर आधारित कार्यक्रम का प्रसारण किया जा रहा है। मेरा भी यह पसंदीदा कार्यक्रम है। ‘दूर हट ये फिरंगी, मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी’ उसी कार्यक्रम का प्रमुख डायलोग है। निश्चित तौर पर वह बालिका इस कार्यक्रम को देखती होगी।
     इस वाकये के बाद से उन लोगों की बात वजनदार दिख रही थी जो कहते हैं कि टेलीविजन पर अच्छे कार्यक्रम प्रसारित होने चाहिए। घटिया किस्म के कार्यक्रमों को देखने से समाज में विकृतियों का जन्म हो रहा है। वहीं वे लोग झूठे किस्म के लगे जो कहते हैं कि टेलीविजन पर प्रसारित कार्यक्रम तो समाज का ही आईना है। समाज में जो चल रहा है वही हम दिखा रहे हैं। अब भला इस बच्ची को देखकर तो झांसी की रानी के जीवन पर आधारित कार्यक्रम नहीं बनाया गया होगा। सत्य तो यही है कि झांसी की रानी सीरियल को देखकर उसने यह सीखा होगा। वैसे भी सदा से इसी बात पर जोर दिया जाता रहा है कि जो जैसा खाता है, देखता है, सुनता है और जैसा पढ़ता है उसके आचरण में वह झलकता है। परिवार छोटे हो गए हैं। घर में कहानी सुनाने को दादा-दादी है नहीं। मां-पिता दोनों ने अर्थ उपार्जन की जिम्मेदारी संभाल रखी है। ताकि इस महंगाई में गुजर हो सके। बच्चों के पालक मशीनी यन्त्र हो गए हैं। वे या तो कंप्यूटर गेम खेलकर अपना समय व्यतीत करते हैं या फिर टीवी से चिपके रहते हैं। क्या अच्छा है और क्या बुरा। इसकी उन्हें समझ नहीं होती। जो उनके बाल सुलभ मन को अच्छा लगता है वे उसे देखने लगते हैं। लगभग सभी चैनल पर फूहड़ता परोसी जा रही है। ऐसे में जिसे वो देख रहे होते हैं उसका उनके जीवन पर असर होता है। इसलिए टीवी कार्यक्रम निर्माताओं को कार्यक्रम बनाते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि उनका बच्चों और समाज के युवा वर्ग पर विपरीत प्रभाव न पड़े।
     वैसे आज झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की शहादत का दिन है। रानी लक्ष्मीबाई का जन्म काशी नगरी में मोरोपंत तांबे के घर में 19 नवम्बर 1835 को हुआ था। मां का नाम था भागीरथी। जन्म के समय लक्ष्मीबाई का नाम रखा मणिकर्णिका। 14 वर्ष की उम्र में झांसी नरेश गंगाधर राव नेवालकर से उनका विवाह हो गया। विवाह बाद ही उनका नाम रानी लक्ष्मीबाई रखा गया। रानी बचपन से ही अंग्रेजों का विरोध करती रहीं। अंग्रेजों को देश से भगाने के लिए ही मनु ने बचपन में ही शस्त्र और शास्त्र की शिक्षा ले ली थी। रानी का जीवन संघर्ष से बीता। लगभग हर एक भारतीय उनकी कहानी से परिचित है। अंग्रेजों के विरूद्ध 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में उनका योगदान अभूतपूर्व रहा। इसी बीच वह काला दिन आया जब रानी इस दुनिया से चली गईं। 17 जून 1857 को ग्वालियर में अंग्रेजों से युद्ध करते समय रानी लक्ष्मीबाई वीरगति को प्राप्त हुईं। उस महान आत्मा को मेरी ओर से कोटिशः प्रणाम।

गुरुवार, 16 जून 2011

कांग्रेस को भारी पड़ेगी यह गलती

कांग्रेस ने मौलिक अधिकारों को चोट पहुंचाई
 बा बा रामदेव के अनशन को खत्म करने के लिए रात को सोए हुए निर्दोष लोगों पर जिस तरह से लाठियां बरसाई गईं उससे तो इमरजेंसी की याद ताजा हो गई। जलियावाला बाग जैसी घटना है यह। पुलिसिया बर्बरता और अत्याचार की हद हो है। ऐसा तो अंग्रेजों के जमाने में होता था। आखिर कांग्रेस तमाम समस्याओं से घिरे आमजन का दमन कर सिद्ध क्या करना चाहती है। हर ओर यही चर्चा आम है। चार-पांच जून की दरमियानी रात को दिल्ली के रामलीला मैदान में इस घटना को अंजाम दिया गया। मेरी छह-सात जून यानी दो दिन ट्रेन, बस, टेम्पो और आॅटो में सफर में बीते। तब मैंने देखा की हर ओर इस मसले पर कांग्रेस की निंदा हो रही है। सबके अपने-अपने सवाल हैं, जवाब हैं। लेकिन, जहां तक मेरा मानना है अनशन के पूर्व से सरकार जितना घबरा रही थी उससे कहीं अधिक अपने ही मूर्खतापूर्ण कृत्य से कांप रही है। कांग्रेस को इस दफा उसकी चतुराई महंगी पड़ती दिख रही है। बौराई कांग्रेस ने मामले पर अपनी पकड़ बनाए रखने के लिए उन सभी राज्यों की सरकारों को बाबा रामदेव के खिलाफ हल्ला बोलने के निर्देश दे दिए, जहां उनकी सरकार है या उनके समर्थन की सरकार है। उनसे कह दिया कि बाबा रामदेव के भाजपा और आरएसएस के रिश्तों पर कुछ भी बोलो। चाहे रिश्ता हो या न हो, लेकिन तुम चीखो जितना चीख सकते हो। बाबा की संपत्ति, चरित्र पर अंगुली उठाओ। कांग्रेस के इस रुख को देखकर लगता है कि या तो कांग्रेस ने अपना आपा खो दिया है या फिर वह हिटलर के प्रोपागण्डा मिनिस्टर जोसेफ गोएबल्स के सूत्र- ‘एक झूठ को सौ बार पूरी ताकत से बोलो तो वह सच जैसा लगने लगता है।’ का पालन कर रही है। 
    कांग्रेस ने हजारों बेगुनाह लोगों पर लाठियां बरसवाकर संविधान का खुला मजाक बनाया है। भारत का संविधान अनुच्छेद 19 के तहत देश के प्रत्येक नागरिक को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देता है। हर किसी को लिखकर, बोलकर या अन्य किसी माध्यम से अपनी बात कहने का मौलिक अधिकार है। बस वह देशद्रोह और सांप्रदायिकता को बढ़ावा न देता हो। अनुच्छेद 19 बी के तहत शांतिपूर्ण और निशस्त्र सम्मेलन करने की आजादी भी दी गई है। इसके अलावा इसी अनुच्छेद के डी उपवर्ग के अनुसार भारत के नागरिकों को देश के किसी भी हिस्से में अबाध संचरण की आजादी मिली हुई है। ये सब व्यवस्थाएं इसलिए की गईं हैं कि ताकि आप अपनी बात शांतिपूर्ण ढंग से देश के किसी भी भू-भाग में जाकर कह सको। बाबा रामदेव द्वारा भ्रष्टाचार और कालेधन के खिलाफ किया शुरू किया गया आंदोलन और अनशन संविधान के मुताबिक जायज है उसे गलत नहीं ठहराया जा सकता। भ्रष्टाचार की समस्या से आज देश का हर नागरिक परेशान है। हाल ही आई एक रिपोर्ट के मुताबिक देश का हर तीसरा आदमी कभी न कभी भ्रष्टाचार का शिकार होता है। यही कारण है कि बाबा रामदेव के आंदोलन को पूरे देश से इतना समर्थन मिल रहा था। बाबा रामदेव के मामले में सरकार ने इन मौलिक अधिकारों का खुलकर हनन किया है। हजारों उन लोगों के मौलिक अधिकार को चोट पहुंचाई गई है जो उस आंदोलन का हिस्सा हैं। रामदेव के दिल्ली में प्रवेश पर रोक लगाकर कांग्रेस नीत यूपीए सरकार ने संविधान के अनुच्छेद 19 डी का हनन किया है। भ्रष्टाचार के खिलाफ चल रहा यह आंदोलन शांतिपूर्ण था। संविधान अनुच्छेद 19 बी के तहत शांतिपूर्ण तरीके से आयोजन की इजाजत देता है। तब फिर क्यों सरकार ने पुलिस के माध्यम से आधी रात को लाठियां बरसाकर हजारों लोगों को रामलीला मैदान से खदेड़ा। जिनमें महिलाएं, बच्चे और वृद्ध शामिल थे। इसमें मानवाधिकारों और महिला अधिकारों का भी हनन हुआ।
    आंसू गैस के गोले खुले भाग में दागने का नियम है। लेकिन, तमाम नियमों को ताक पर रख पुलिस ने पांड़ाल के भीतर आंसू गैस के गोले छोड़े। इस दौरान मंच पर भी आग लग गई। पुलिस की इस लापरवाही से बड़ा हादसा भी हो सकता था। मैदान में हजारों लोगों की जान मुश्किल में आ सकती थी। धारा 144 भी उपद्रव होने या उसकी आशंका की स्थिति में लागू की जाती है। सवाल उठता है कि निहत्थे और सोते हुए लोग क्या उपद्रव कर सकते थे। कांग्रेस के इशारे पर हुई इस कार्रवाई ने पूरे देश को झझकोर कर रख दिया है। संविधान द्वारा देश के नागरिकों को दिए गए मौलिक अधिकारों को भी तार-तार कर दिया है। लोगों का आक्रोश देख कर लग रहा है कि भविष्य में कांग्रेस को यह गलती बहुत भारी पड़ेगी।
    कांग्रेस नीत यूपीए सरकार का इस कार्रवाई से दोगला चेहरा भी उजागर होता है। एक ओर सरकार दिल्ली में आकर देशद्रोह और अलगाववाद को बढ़ावा देने वाले लोगों का संरक्षण करती दिखती है। वहीं दूसरी ओर शांतिपूर्ण ढंग से अपनी परेशानी बयां सकते लोगों का दमन करते दिखती है। इसी सरकार ने कश्मीर को लेकर दिल्ली में ही जहर उगलते लोगों पर एक एफआईआर तक दर्ज नहीं की। कश्मीर के पत्थरबाजों को शांत करने के लिए 100 करोड़ का राहत पैकेज जारी किया। जबकि वे देशहित में पत्थर कतई नहीं बरसा रहे थे, भाड़े पर और आईएसआई के कहने पर सेना पर पत्थरबाजी कर रहे थे। इतना ही नहीं सरकार इससे भी चार कदम आगे चली गई। सुप्रीम कोर्ट में देशद्रोह का मामला विचाराधीन होने के बावजूद बिनायक सेन को राष्ट्रीय योजना आयोग की समिति में शामिल कर लिया गया। हमेशा नक्सलियों से वार्ता का आतुर सरकार ने इन निर्दोश लोगों पर लाठियां क्यों चलाईं समझ से परे है। इसी कांग्रेस के कुछ नुमाइंदे दुनिया के सबसे बड़े आतंकवादी ओसामा बिन लादेन की मौत पर विधवा विलाप करते हैं और उसे ‘आप’ व ‘जी’ लगाकर संबोधित करते हैं वहीं देशहित में आवाज उठा रहे बाबा रामदेव को ठग कह रहे हैं। आश्चर्य है।
    आश्चर्य इस पर भी है कि मानवता के पैरोकार और गरीबों के मसीहा राहुल गांधी पूरे एपीसोड में कहीं नजर नहीं आ रहे। जबकि भट्टा परसौल में महिलाओं पर हुए अत्याचार पर कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी ने खूब प्रलाप किया किया था। लेकिन, यहां आधी रात को हुई पुलिसिया कार्रवाई में महिलाओं और बच्चों की दुर्दशा पर एक आंसू तक नहीं टपकाया। एक लाइन बोलकर भी पूरे घटनाक्रम का विरोध नहीं किया। वहीं हमारे प्रधानमंत्री ने इस पर भी अपनी मजबूरी जाहिर कर दी। वैसे उनसे देश की जनता को और दूसरे बयान की उम्मीद भी नहीं थी।
    अनशन के प्रारंभ से लेकर इस काण्ड तक बाबा रामदेव की भी कुछ गलतियां रहीं। यथा: जब सरकार बाबा से बात करने स्वयं आ रही थी तो बाबा को उसके पास स्वयं जाने की जरूरत नहीं थी। बाबा को बातचीत के लिए एक प्रतिनिधि मंडल भेजना चाहिए था, खुद को हर काम में आगे नहीं रखना था। बाबा ने अन्ना हजारे की भी चेतावनी को गंभीरता से नहीं लिया। उन्होंने साफ कह दिया था कि यह सरकार दगाबाज है। कभी भी सरकार पीठ में छुरा घोंप सकती है। बाबा भूल गए कि उनका मुकाबला सरकार की चालाक चौकड़ी से था। कपिल सिब्बल सरकार ऐसे चतुर वफादार सिपाही है जिसने दुनिया की आंखों में धूल झौंकने की पूरी कोशिश की थी। कपिल सिब्बल ने पता नहीं गणित के किस नायाब फार्मूला से सिद्ध कर दिया था कि 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाला हुआ ही नहीं है। ऐसे चुतर लोगों की चाल में बाबा फंस गए थे। लेकिन, पता नहीं किसकी मति ने फेरी खाई और रात में सोते हुए लोगों पर आंसू गैस के गोले छुड़वा दिए, लाठियां चलवा दीं। इनमें हजारों की संख्या में महिलाएं और उनके साथ आए बच्चे शामिल थे। कल्पना करिए कि ऐसी अफरा-तफरी में वृद्धों, महिलाओं और बच्चों की क्या हालत हुई होगी। वह भी दिल्ली जैसे शहर में आधी रात को। बताया जा रहा है कि पांच हजार लोग अभी तक अपने सगे-संबंधियों से बिछड़े हुए हैं।
    लाख विरोध के बाद भी कांग्रेस अभी तक अपनी इस कार्रवाई को जायज ठहरा रही है। घटना के बाद कांग्रेस ने बाबा रामदेव की संपत्ति का हिसाब-किताब लगाने में, उनकी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी से संबंध की खोज-खबर लेने में ओर बाबा रामदेव के कारोबार को सूचीबद्ध करने में जितनी सक्रियता दिखाई है, अगर उतनी कालाधन वापस लाने में दिखाई होती तो देश का कुछ भला होता। भ्रष्टाचारियों के खिलाफ कार्रवाई करने में और भ्रष्टाचार रोकने के लिए कोई ठोस कानून बनाने में तत्परता दिखाई होती तो शायद लोगों को इतने बड़े आंदोलन में शामिल होने की नौबत ही नहीं आती। लेकिन, कांग्रेस की मंडली में जमा भ्रष्ट नेताओं की ऐसी मंशा है ही नहीं। खैर, अभी तो इसे आंदोलन की शुरुआत ही माना जाना चाहिए। अगर बाबा रामदेव सरकार को माफ करके अनशन वापस भी ले ले तो जल्द ही कोई न कोई एक नया अन्ना हजारे या बाबा रामदेव भ्रष्टाचार, महंगाई, बेलगाम होती कानून व्यवस्था से पीड़ित जनता का नेतृत्व करने आ सामने आ ही जाएगा। 
यह लेख भोपाल से प्रकाशित साप्ताहिक समाचार पत्र एलएन स्टार के ११ जून को प्रकाशित अंक में भी पढ़ा जा सकता है.

रविवार, 5 जून 2011

आप को कुछ कहने का अधिकार नहीं!

 आ प अपना काम करें, देश की समस्याओं पर बोलने का कोई अधिकार आपको नहीं है। अगर आप डाक्टर हैं तो लोगों का इलाज करें। शिक्षिक हैं तो सिर्फ वही पढ़ाएं जो किताबों में लिखा है। इंजीनियर है तो बिल्डिंग बनाएं, देश निर्माण करने की आवश्यकता नहीं। यही संदेश दिया है कांग्रेस ने चार-पांच जून की दरमियानी रात रामलीला मैदान में योग गुरु बाबा रामदेव के अनशन पर बर्बर कार्रवाई कर। कांग्रेस और उनके नेताओं ने मीडिया के सामने खुलकर कहा कि हमने भ्रष्टाचार के खिलाफ अनशन कर रहे इस देश के नागरिकों पर आंसू गैस के गोले दागकर और लाठियां भांज कर एकदम सही किया है। इतना ही नहीं उन्होंने उन तमाम लोगों के खिलाफ भी कार्रवाई करने का मन बना लिया है, जिन्होंने बाबा रामदेव का साथ दिया है या जिन्होंने भ्रष्टाचार के विरोध में अपनी आवाज उठाने का प्रयास किया। पूरी कांग्रेस और उनके बड़बोले नेता बकबक करने में लगे हैं कि बाबा रामदेव योग गुरु हैं, उन्हें लोगों को सिर्फ योग सिखाने का काम ही करना चाहिए। भ्रष्टाचार के खिलाफ देश जागरण की जरूरत नहीं। उनकी मंशा साफ देश को लूटने की दिखती है। वे चाहते हैं कि हम आराम से भ्रष्टाचार करते रहें और कोई हमें कुछ न कहे। उन्हें पता है जनता जाग गई तो हमने देश में जो लूट-खंसोट मचा रखी है वह बंद करनी पड़ेगी। मुझे आज तक यह समझ नहीं आया कि यह कौन सा तर्क है कि आप जो काम कर रहे हैं वही करें। देश की समस्याओं के बारे में कुछ भी कहने का आपको अधिकार नहीं। अरे, इस देश के हर एक नागरिक का अधिकार है कि वह देश में चल रही गड़बड़ियों को उजागर कर सके, उनके खिलाफ आवाज बुलंद करे। इस देश में ही नहीं बल्कि दुनिया भर में राजपाठ में साधु-संतो, शिक्षिकों और उपदेषकों ने हमेशा से मार्गदर्शन दिया है। इस देश के इतिहास में तो इसकी लम्बी परंपरा है।
          कांग्रेस और उसके नेताओं ने 60 सालों में इस देश को जमकर लूटा है। अब जनता जाग रही है तो उसे डर लग रहा है कि उसका गोरखधंधा कैसे जारी रहेगा। कांग्रेस नीत यूपीए सरकार ठग है, धोखेबाज, बर्बर है। उसने पहले अन्ना हजारे को धोखा दिया और अब बाबा रामदेव के अनशन पर बल प्रयोग किया है। वैसे हमेशा से ही कांग्रेस के शासनकाल में जनआंदोलनों का यही हश्र होता आया है। आपातकाल में भी लाखों लोगों पर अनगिनत अत्याचार किए गए। पांच जून की दरमियानी रात जो हुआ उसका सारे देश में सब ओर से विरोध हो रहा है। कांग्रेस के इशारे पर रात में सोते हुए लोगों पर लाठीचार्ज जैसी दमनात्मक कार्रवाई की गई। पांडाल में हजारों महिलाएं अपने छोटे बच्चों के साथ सो रहीं थीं। वृद्ध साधु-संन्यासी और देशभर से आए हजारों आमजन दिनभर की थकान के बाद गहरी नींद में थे। ऐसे वक्त की गई बर्बर पुलिया कार्रवाई की तुलना जलियांवाला बाग से की जा रही है। जो कि अतिश्योक्ति कतई नहीं। कल्पनामात्र से ही आंखें भर आती हैं कि अपरा-तफरी में छोटे-छोटे बच्चों की क्या हालत हुई होगी। गरीबों का मसीहा बनने का ढोंग करने वाला राहुल गांधी इन्हें देखने नहीं आया और न ही का बयान जारी किया कि यहां महिलाओं के साथ कांग्रेस के इशारे पर कितनी बर्बता बरती गई। लेकिन, उस दयालु, करुणा के प्रतीक, मानवता के रक्षक राहुल गांधी का कहीं कोई अता-पता नहीं।
...... ये कैसी सरकार है जो एक और तो भ्रष्टाचारियों और आतंकवादियों के खिलाफ कोई कार्यवाई नहीं कर रही है वहीँ निर्दोष और समस्याओं से घिरे लोगों पर आसू गैस के गोले दाग कर अत्याचार कर रही है... क्या ये सरकार समाजकंटकों के बचाव और देश भक्तों के विरोध में है...???


किसने क्या कहा -

गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी - इस घटना को रामलीला मैदान में रावण लीला करार दिया।
भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी - बाबा रामदेव की गिरफ्तारी और लोगों पर लाठीचार्ज की तुलना जलियांवाला बाग कांड और आपातकाल की।
गाधीवादी कार्यकर्ता अन्ना हज़ारे - बाबा रामदेव और उनके समर्थकों पर कल मध्यरात्रि को हुई पुलिस कार्रवाई देश की लोकशाही पर कलंक की तरह है और इस कार्रवाई के लिए सरकार को सबक सिखाने वाला आदोलन करने की जरूरत है।
भाजपा के अध्यक्ष नितिन गडकरी - शनिवार को बाबा रामदेव के खिलाफ की गई कार्रवाई इमर्जेंसी के दिनों की याद दिलाती है। पार्टी अध्यक्ष ने कहा, ' यह लोकतंत्र को कलंकित करने वाली घटना है , जिसे सोनिया गांधीऔर मनमोहन सिंह के इशारे पर अंजाम दिया गया। पुलिस और आरएएफ ने लोकतांत्रिक तरीके से अनशन कर रहे निहत्थे लोगों पर अत्याचार किया , जो दुखद है।
संतोष हेगड़े - कर्नाटक के लोकायुक्त और लोकपाल विधेयक मसौदा समिति में समाज की ओर से शामिल सदस्य संतोष हेगड़े ने कहा कि बाबा रामदेव और उनके समर्थकों पर की गई पुलिस कार्रवाई आपातकाल के दिनों की याद दिलाती है। पुलिस ने रामलीला मैदान पर धारा 144 लगा दी। धारा 144 तब लगाई जाती है जब कानून व्यवस्था से जुड़ी स्थिति बिगड़ने की आशंका होती है। लेकिन जब पुलिस कार्रवाई हुई तब रामदेव, उनके समर्थक, महिलाएं और बच्चे सो रहे थे। सोते लोग कैसे कानून व्यवस्था से जुड़ी स्थिति बिगाड़ सकते हैं।
शांति भूषण - पुलिस की इस बर्बर कार्रवाई से आपातकाल की याद आ जाती है। उन्होंने कहा कि यह काफी निंदनीय है और प्रधानमंत्री को इस मुद्दे पर इस्तीफा देना चाहिए।
बीजेपी के प्रवक्ता प्रकाश जावड़ेकर - सभी को इसका विरोध करना चाहिए। उन्होंने इसे आजादी और लोकतंत्र, दोनों पर हमला बताया है।
आरएसएस प्रवक्ता राम माधव - सरकार का रवैया हैरान करने वाला है। सरकार भ्रष्टाचारियों से डर गई है, जिस कारण आंदोलन को जबरन खत्म करवाया गया। स्वामी अग्निवेश ने भी पुलिस कार्रवाई की निंदा करते हुए कहा कि वे इसका विरोध करेंगे।
अरविंद केजरीवाल - केंद्र सरकार ने बाबा और अन्ना दोनों को धोखा दिया है।
बाबा रामदेव - हरिद्वार पहुंचने के बाद कहा कि यूपीए सरकार मेरे एन्काउंटर की साजिश कर रही थी। उन्होंने प्रेस प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा कि अनशन से पहले होटल में केंद्रीय मंत्रियों के साथ मीटिंग के दौरान भी उन्हें अनशन न करने के लिए धमकी दी गई थी। सोनिया गांधी पर निशाना साधते हुए उन्होंने कहा कि यूपीए अध्यक्ष के निर्देश पर ही रामलीला मैदान में जमा महिलाओं और बच्चों बर्बर कार्रवाई की गई।

शुक्रवार, 3 जून 2011

कुछ अपना-सा, कुछ बेगाना-सा शहर भोपाल

षि गालव की तपोस्थली ग्वालियर (ग्वाल्हेर) से राजा भोज की नगरी भोपाल (भोजपाल) आए हुए तकरीबन 25 दिन हो गए हैं। भोपाल प्रदेश की राजधानी है। राजधानी में रहने का सुख पाना बहुतों का सपना होता है। मेरा भी था। लेकिन, अब तक मुझे भोपाल में सुखद अनुभूति नहीं हो सकी है। हां, ग्वालियर से बिछुडने की पीड़ा जरूर है। ग्वालियर मुझे रोज याद आता है। आबाद भोपाल में रहने के लिए अब तक एक ठिकाना नहीं ढूंढ सका हूं। शायद इसलिए भी कि मुझे आफिस के नजदीक ही रहना है और अपना जेब भी छोटी है। वो तो शुक्र है कि यहां मेरे कुछ अजीज रहते हैं, जिनसे हौसला कायम है। वरना मैं अब तक उल्टे पैर ग्वालियर भाग लिया होता। दीपक जी सोनी, प्रमोद जी त्रिवेदी, मुकेश जी सक्सेना, अनिल जी सौमित्र। इन सबसे मेरे दिल के तार बहुत गहरे जुड़े हैं। भोपाल में ये सब मेरा सबसे बड़ा सहारा हैं। इनके अलावा कुछ और भी हैं जिन पर मैं अपना अधिकार रखता हूं। कुछ नए दोस्त भी बने हैं। इन सबकी वजह से पहाड़ सी परेशानियां भी बौनी नजर आती हैं।
              यह पहली दफा नहीं है कि मैं घर से बाहर रह रहा हूं। फर्क इतना है पहले पता रहता था कि दो-तीन महीने गुजरने के बाद वापस घर पहुंच जाउंगा। इस बार आने का तो पता था, लेकिन घर कब जाऊंगा यह नहीं पता। शायद इसलिए ही रह-रहकर ग्वालियर की बहुत याद आती है। बात इतनी सी नहीं है। दरअसल सुना है कि यहां चूना बहुत लगाया जाता है। यहां एक जगह का तो नाम ही चूना भट्टी है। भोपाल आते ही एक साहित्यक पत्रिका के माध्यम से साहित्यकार ने आगाह कर दिया कि भैया भोपाल में संभलकर रहना। न जाने कब कोई भोपाली सूरमा (सूरमा भोपाली) मिल जाए और मजाक-मजाक में चूना लगा जाए। इस बात पर विश्वास करने के अलावा कोई और चारा भी नहीं था। साहित्यकार आला दर्जे का था और खुद चूनाभोगी (भुक्तभोगी) था। सो गुरू बहुत डर बैठा है मन में। अपुन ठहरे बाबा भारती कोई भी डाकू सुल्तान ठग सकता है।
            वाहन विहीन हूं। आफिस जाते वक्त चेतक ब्रिज मिलता है। दरअसल आफिस चेतक ब्रिज के पास ही है। पुल के ठीक बीच जाकर खडा हो जाता हूं। वहां से नीले और लाल रंग की लम्बी-लम्बी ट्रेनें गुजरती हैं। मन करता है कि हीरो की माफिक पुल से सीधे ट्रेन पर कूद सवार हो जाऊं और घर पहुंच जाऊं। लेकिन, यह भी संभव नहीं। खैर, थकहार कर फिर से एक अदद ठौर की तलाश में जुट जाता हूं। माना कि कहां राजा भोज और कहां गंगू तेली। लेकिन, ये भी सही है कि एक दिन तेली के दिन भी फिरेंगे और राजा भोज अपनी नगरी में उसे ससम्मान स्थान देंगे।

  फिलहाल खाली दिमाग की उपज एक कविता और झेलिए.....

ग्वालियर तू बहुत याद आता है।

गोपाचल पर्वत पर शान से खडा
आसमान का मुख चूमता ‘दुर्ग’
नदीद्वार, जयेन्द्रगंज, दौलतगंज
नया बाजार से कम्पू को आता रास्ता
वहां बसा है मेरा प्यारा घर
मुझे बहुत भाता है
ग्वालियर तू मुझे बहुत याद आता है।

सात भांति के वास्तु ने संवारा
सबको गोल घुमाता ‘बाड़ा’
दही मार्केट में कपडा, टोपी बाजार मे जूता
गांधी मार्केट में नहीं खादी का तिनका
पोस्ट आफिस के पीछे नजरबाग मार्केट में
मेरा दोस्त कभी नहीं जाता है
ग्वालियर तू मुझे बहुत याद आता है।

सन् 57 के वीरों की विजय का गवाह
शहर की राजनीति का बगीचा ‘फूलबाग’
बाजू से निकली स्वर्णरेखा नाला
कईयों को कर गया मालामाल
चैपाटी की चाट खाने
शाम को सारा शहर जाता है
ग्वालियर तू मुझे बहुत याद आता है

चाय की दुकान, कालोनी का चैराहा
यहां सजती दोस्तों की महफिल
देष की विदेष की, आस की पड़ोस की
बातें होती दुनिया जहान की
मां की ममता, पिता का आश्रय
पत्नी का प्यार बुलाता है
ग्वालियर तू मुझे बहुत याद आता है।
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- लोकेन्द्र सिंह -
(काव्य संग्रह "मैं भारत हूँ" से)

रविवार, 22 मई 2011

शिक्षा का वामपंथीकरण, पढ़ो गांधी की जगह लेनिन

  सो च रहा था कम्युनिस्ट इस देश की सभ्यता व संस्कृति को मान क्यों नहीं देते? ध्यान में आया कि उनकी सोच और प्रेरणास्रोत तो अधिकांशत: विदेशी हैं। फिर क्यों ये इस देश के आदर्शों पर गर्व करेंगे। भारत की सभ्यता, संस्कृति और आदर्श उन्हें अन्य से कमतर ही नजर आते हैं। हालांकि भारत के युवा वर्ग को साधने के लिए एक-दो भारतीय वीरों को बोझिल मन से इन्होंने अपना लिया है। हाल ही में उन्होंने मेरे इस मत को पुष्ट भी किया। वामपंथियों ने त्रिपुरा में स्कूली किताबों में महात्मा गांधी की जगह लेनिन को थोप दिया है। यह तो किसी को भी तर्कसंगत नहीं लगेगा कि भारत के नौनिहालों को महात्मा गांधी की जगह लेनिन पढ़ाया जाए। त्रिपुरा में फिलहाल सीपीएम की सरकार है। मुख्यमंत्री कम्युनिस्ट माणिक सरकार हैं। त्रिपुरा में कक्षा पांच के सिलेबस से सत्य, अंहिसा के पुजारी महात्मा गांधी की जगह कम्युनिस्ट, फासिस्ट, जनता पर जबरन कानून लादने वाले लेनिन (ब्लादिमिर इल्या उल्वानोव) को शामिल किया है। 
        लेनिन की मानसिकता को समझने के लिए उसकी एक घोषणा का जिक्र करना जरूरी समझता हूं। लेनिन ने एक बार सार्वजनिक घोषणा द्वारा अपने देशवासियों को चेतावनी दी थी कि 'जो कोई भी नई शासन व्यवस्था का विरोध करेगा उसे उसी स्थान पर गोली मार दी जाएगी।'  लेनिन अपने विरोधियों को बेरहमी से मौत के घाट उतार दिया करता था। ऐसे आदर्श का पालन करने वाले लेनिन को अब त्रिपुरा के बच्चे पढेंग़े। वे बच्चे जो अभी कक्षा पांच के छात्र हैं। इस उम्र में उनके मन में जिस तरह के विचारों का बीजारोपण हो जाएगा। युवा अवस्था के बाद उसी तरह की फसल देश को मिलेगी। इस तथ्य को वामपंथी अच्छे से जानते हैं। इसी सोची समझी साजिश के तहत उन्होंने महात्मा को देश के मन से हटाने की नापाक कोशिश की है। उन्होंने ऐसा पहली बार नहीं किया, वे शिक्षा व्यवस्था के साथ वर्षों से दूषित खेल खेलते आ रहे हैं।
    वामपंथियों की ओर से अपने हित के लिए समय-समय पर शिक्षा व्यवस्था के साथ किए जाने वाले परिवर्तनों पर, तथाकथित सेक्युलर जमात गुड़ खाए बैठी रहती है। उन्हें शिक्षा का यह वामपंथीकरण नजर नहीं आता। वे तो रंगे सियारों की तरह तब ही आसमान की ओर मुंह कर हुआं...हुआं... चिल्लाते हैं जब किसी भाजपा सरकार की ओर से शिक्षा व्यवस्था में बदलाव किया जाता है। तब तो सब झुंड बनाकर भगवाकरण-भगवाकरण जपने लगते हैं। सेक्युलर जमातों की यह नीयत समझ से परे है। खैर, वामपंथियों को तो वैसे भी महात्मा गांधी से बैर है। क्योंकि, गांधी क्रांति की बात तो करते हैं, लेकिन उसमें हिंसा का कोई स्थान नहीं। वहीं वामपंथियों की क्रांति बिना रक्त के संभव ही नहीं। गांधी इस वीर प्रसूता भारती के सुत हैं, जबकि कम्युनिस्टों के, इस देश के लोग आदर्श हो ही नहीं सकते। गांधीजी भारतीय जीवन पद्धति को श्रेष्ठ मानते हैं, जबकि वामपंथी कहते हैं कि भारतीयों को जीना आता ही नहीं। गांधीजी सब धर्मों का सम्मान करते हैं और हिन्दू धर्म को सर्वश्रेष्ठ घोषित करते हैं, जबकि कम्युस्टिों के मुताबिक दुनिया में हिन्दू धर्म में ही सारी बुराइयां विद्यमान हैं। वामपंथियों का महात्मा गांधी सहित इस देश के आदर्शों के प्रति कितना 'सम्मान' है यह १९४० में सबके सामने आया। १९४० में वामपंथियों ने अंग्रेजों का भरपूर साथ दिया। महात्मा गांधी ने अंग्रेजों के खिलाफ भारत छोड़ो आंदोलन का सूत्रपात किया। उस समय कुटिल वामपंथियों ने भारत छोड़ो आंदोलन के विरुद्ध खूब षड्यंत्र किए। गांधी और भारत के प्रति द्वेष रखने वाले वामपंथी देश के बच्चों को क्यों महात्मा को पढऩे देना चाहेंगे।
    शिक्षा बदल दो तो आने वाली नस्ल स्वत: ही जैसी चाहते हैं वैसी हो जाएगी। इस नियम का फायदा वामपंथियों ने सबसे अधिक उठाया। बावजूद वे उतने सफल नहीं हो पाए। इसे भारत की माटी की ताकत माना जाएगा। तमाम प्रयास के बाद भी उसके बेटों को पूरी तरह भारत विमुख कभी नहीं किया जा सका है। वैसे वामपंथी भारत की शिक्षा व्यवस्था में बहुत पहले से सेंध लगाने में लगे हुए हैं। भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद के प्रकल्प के तहत दस खण्डों के 'स्वाधीनता की ओर' ग्रंथ का प्रकाशन करवाया गया। इसे तैयार करने में अधिकांशत: कम्युनिस्ट टोली लगाई गई। अब ये क्या और कैसा भारत का इतिहास लिखते हैं इसे सहज समझा जा सकता है।  इस ग्रंथ में १९४३-४४ तक के कालखण्ड में महात्मा गांधी जी के बारे में केवल ४२ दस्तावेज हैं, जबकि कम्युनिस्ट पार्टी के लिए सैकड़ों। ऐसा क्यों? क्या कम्युनिस्ट पार्टी इस देश के लिए महात्मा गांधी से अधिक महत्व रखती है? क्या कम्युनिस्ट पार्टी का स्वाधीनता संग्राम में गांधी से अधिक योगदान है? भारतीय इतिहास के पन्नों से हकीकत कुछ और ही बयां होती है। इतिहास कहता है कि १९४३-४४ में भारत के कम्युनिस्ट अंग्रेजों के पिट्ठू बन गए थे। इसी ग्रंथ में विश्लेषण के दौरान गांधी जी को पूंजीवादी, शोषक वर्ग के प्रवक्ता, बुर्जुआ वर्ग के प्रतिनिधि, प्रतिक्रियावाद का संरक्षक आदि कहकर गालियां दी गईं। यह है कम्युनिस्टों का चेहरा। यह है गांधीजी के प्रति उनका द्वेष।
    स्वतंत्रता पूर्व से ही वामपंथियों ने बौद्धिक संस्थानों पर कब्जा करना शुरू कर दिया था। इसका असर यह हुआ कि तब से ही शिक्षा-साहित्य में भारतीयता के पक्ष की उपेक्षा की जाने लगी थी। जयशंकर को दरकिनार किया, उनकी जगह दूसरे लोगों को महत्व दिया जाने लगा। कारण, जयशंकर भारतीय संस्कृति के पक्ष में और उसे आधार बनाकर लिखते थे। ऐसे में उन्हें आगे कैसे आने दिया जाता। वहीं प्रेमचंद की भारतीय संस्कृति से ओतप्रोत रचनाओं को कचरा बताकर पाठ्यक्रमों से हटवाया गया। उनके 'रंगभूमि' उपन्यास की उपेक्षा की गई। क्योंकि, रंगभूमि का नायक 'गांधीवादी' और भारतीय चिंतन का प्रतिनिधित्व करता है। निराला की वे रचनाएं जो भारतीय मानस के अनुकूल थीं यथा 'तुलसीदास' और 'राम की शक्तिपूजा' आदि की उपेक्षा की गई। ऐसे अनेकानेक उदाहरण हैं।
    आजादी के बाद इन्होंने तमाम विरोधों के बाद भी मनवांछित बदलाव शिक्षा व्यवस्था में किए। महान प्रगतिशीलों ने 'ग' से 'गणेश' की जगह 'ग' से 'गधा' तक पढ़वाया। केरल में तो उच्च शिक्षा का पूरी तरह वामपंथीकरण कर दिया है। वहां राजनीति, विज्ञान और इतिहास में राष्ट्रभक्त नेताओं और विचारकों का नामोनिशान ही नहीं है। केरल के उच्च शिक्षित यह जान ही नहीं सकते कि विश्व को शांति का मंत्र देने वाले महात्मा गांधी और अयांकलि के समाज सुधारक श्रीनारायण गुरु सहित अन्य विचारक कौन थे। इनके अध्याय वहां के पाठ्यक्रम में शामिल नहीं हैं। ये यह भी नहीं जान सकते कि भारत ने आजादी के लिए कितने बलिदान दिए हैं, क्योंकि स्वतंत्रता आंदोलन का तो जिक्र ही नहीं है, जबकि माक्र्सवादी संघर्ष से किताबें भरी पड़ी हैं।
यह लेख भोपाल से प्रकाशित साप्ताहिक समाचार पत्र एलएन स्टार के २१ मई को प्रकाशित अंक में भी पढ़ा जा सकता है.