बुधवार, 22 सितंबर 2010

हटाना है तो अनुच्छेद-370 हटाओ, हालात सुधर जाएंगे

भारत सरकार घाटी में फैले अलगावाद पर कठोर कार्रवाई करने की बजाय विद्रोहियों से बातचीत कर सुलह चाहती है। इसके लिए 38 सदस्यीय सर्वदलीय शिष्टमंडल घाटी में है। कश्मीर आजादी या फिर सेना को पंगु बनाने की शर्त पर ही अलगाववादी शांत होंगे (उसके बाद कुछ और भी मांग कर सकते हैं), यह निश्चित तौर पर तय है।
          दरअसल जम्मू-कश्मीर और शेष भारत के बीच अलगाव का मुख्य कारण है संविधान की अस्थायी अनुच्छेद ३७०। जम्मू-कश्मीर समस्या भारत की अनेक समस्याओं की तरह पंडित जवाहरलाल नेहरू की ही देन हैं। इसके पीछे एक बड़ा कारण हैं शेख अब्दुल्ला। अब्दुल्ला उनकी दुर्बलता था। खैर इतिहास में जाने की बजाय वर्तमान में ही विचरण कर लेते हैं।
... बहुत ही चिंता का विषय है कि हम अलगाववादियों को दबाने, उन्हें निस्तनाबूत करने की बजाय हम उनसे बात करने को आतुर रहते हैं। यह समस्या सिर्फ कश्मीर के अलगाववादियो के साथ नहीं है वरन नक्सलियों के साथ भी है। कश्मीर में उत्पात मचा रहे पाकिस्तान के भाड़े के टट्टू भारत के वीर सैनिकों का विरोध कर रहे हैं। जिनकी दम पर आज तक कश्मीर और जम्मू बचा हुआ है। ये चाहते हैं कि सेना से विशेष सैन्य अधिकार कानून को वापिस ले लिया जाए, ताकि खुलकर पाकिस्तान से आए घुसपैठियों की खातिरदारी कर सकें और उन्हें दिल्ली, जयपुर व मुंबई में बम फोडऩे के लिए भेज सकें। बाद में भारत विरोधी लोगों का वर्चस्व घाटी में बढ़ाकर कश्मीर को भारत से छीन लिया जाए। राष्ट्रवादी चिंतक, सेना के अधिकारियों का साफ मत है कि अगर विशेष सैन्य अधिकार वापिस लिया जाता है या उसमें कटौती की जाती है तो हालात सुधरने के बजाय निश्चित तौर पर बिगड़ जाएंगे। तुष्टिकरण की नीति के चलते हमारे देश की राजनीति हमेशा से अलगाववादियों से मुकाबला करने की जगह उनके आगे घुटने टेक देती है। उसी का नतीजा है भारत को कोई भी आंखे दिखा देता है। चीन भी उनमें से एक है। हे प्रभु उस ३८ सदस्यीय शिष्टमंडल को ज्ञान देना ताकि कोई ऊलजलूल निर्णय न कर बैठे और विपक्ष और भारत भक्तों को इतनी ताकत देना की वे ऐसे किसी निर्णय को पारित न होने दें। जिससे जलते अंगारों के बीच हमारे सेना के जवानों को नंगा करके खड़ा न करा जा सके।
    मेरा मत है कि अगर वाकई कश्मीर के हालत सुधारना चाहते हैं तो वहां लागू अस्थायी अनुच्छेद  ३७० को हटा देना चाहिए। यह धारा कश्मीर को शेष भारत से पृथक करती है। इस धारा के कारण ही वहां अलगाववादियों को पनपने का मौका मिलता है। धार ३७० और अलगाववादियों के कारण कश्मीर में अब तक क्या हुआ है जरा गौर करें-
  • घाटी बदरंग हो गई। वहां से हिन्दू को निकाल बाहर कर दिया गया। वे अपना शेष जीवन शरणार्थी शिविरों में काटने को मजबूर हैं। कई मौत के घाट उतार दिए गए तो कई बलात् मुसलमान बना लिए गए।
  •  राज्य के दिशा-निर्देश नहीं बल्कि अलगाववादियों का बनाया कैलेंडर घाटी में चलता है। उत्पातियों के दबाव में इस्लामी देशों की तर्ज पर रविवार का अवकाश रद्द कर शुक्रवार का अवकाश दिवस बना दिया गया है। विश्वविद्यालय, सरकारी कार्यालय, बैंक व अन्य संस्थानों ने उसी अनुसार दैनिकक्रम तय कर लिया है।
  •  जब चाहे राष्ट्रीय ध्वज का अपमान कर दिया जाता है। बीच-चौराहे पर ध्वज जलाकर सरकार को सीधे-सीधे चुनौती दी जाती है।
  • घाटी में जाने वाले वाहनों से अलगाववादियों ने वीजा मांगना शुरू कर दिया है।
  • २० वर्षों में १६०० से अधिक दिन हड़ताल में बीते हैं। यानी २० वर्षों में पांच वर्ष हड़ताल और बंद में बीते हैं।

सोमवार, 20 सितंबर 2010

रैन, रिले और रिश्ते

क्वींस बैटन रिले का सम्मान भी और विरोध भी
फिर दिखी सांप्रदायिक एकता की झलक मेरे शहर में
 १९  सितंबर खास रहा ग्वालियर के लिए। एक तो १९ वें कॉमनवेल्थ गेम्स की क्वींस बैटन रिले का आगमन था। जाते-जाते बदरा इतना बरसे की शहर का हर जर्रा भीग गया। इक और खास और अति महत्वपूर्ण घटनाक्रम रहा उदारवादी मुसलमानों का सही बात के लिए आगे आना।
  .      
क्वींस बैटन रिले का विरोध करते लोग।
शनिवार-रविवार दरमियानी रात से ही शहर में बादलों ने नेमत बरसानी शुरू कर दी। जो अभी यानी रविवार-सोमवार की रात १:२६ मिनट पर भी जारी है। मानसून बीत गया। पहली बार बरसाती (रैनकोट) पहनकर दफ्तर आना पड़ा। इसी झमाझम बारिस में शाम के वक्त क्वींस बैटन रिले का आगमन हुआ। जिसकी शहरभर में परिक्रमा कराई गई। नतीजतन जगह-जगह जाम लगा। लोगों को खामख्वाह परेशानी उठानी पड़ी। घुटनों तक पानी से भरी सड़क पर जाम खुलने का इंतजार किया। जगह-जगह शहर की विभिन्न संस्थाओं ने बैटन रिले का स्वागत किया। वहीं एक ओर एक सामाजिक संस्था ने वीरागंना महारानी लक्ष्मीबाई समाधी के सामने बैटन रिले का विरोध किया। उसे गुलामी का प्रतीक माना। कुल मिला कर बैटन रिले की अच्छी झांकी जम गई। हां एक और बात बताते हैं जहां प्रदेश के मुखिया शिवराज चौहान ने बैटन रिले को थामने से इनकार कर दिया। वहीं उनकी पार्टी की ग्वालियर महापौर समीक्षा गुप्ता और क्षेत्रीय सांसद यशोधरा राजे सिंधिया ने शहर में इसकी आगवानी की।
यूं ही कायम होंगे मीठे रिश्ते
शांति की अपील के लिए आगे आए मुस्लिम।
  दूसरी बात पर आते हैं जो इस समय बहुत महत्वपूर्ण है। २४ सितंबर को अयोध्या राम जन्मभूमि का फैसला आना है। दोनों पक्षों (हिन्दू-मुसलमान) को बड़ी बेसब्री से इसका इंतजार है। जरा-सी चिंगारी धार्मिक भावनाएं भड़का सकती है। यह जानकर सभी लोग शांति की कामना लेकर आगे आ रहे हैं। दोपहर में एक टीवी चैनल पर बहस देख रहा था। वहां भी दोनों पक्षों के बड़े नेता धैर्य से काम लेने की बात करते दिखे। उन्होंने भी लोगों से शांति की अपील की। मेरे शहर के मुसलमान बंधुओं ने भी एक मिशाल कायम करने की कोशिश की। वे हाथ में बैनर-पोस्टर लेकर शहर में निकले। जिन पर लिखा था- हम अमन चाहते हैं। बहुत अच्छा लगा, देखकर। मैं अक्सर कहता भी रहता हूं कि अच्छी बात कहने के लिए जो उदारवादी मुसलमान हैं उन्हें आगे आना होगा। अक्सर होता यह है कि कट्टरवादी सोच के मुस्लिम उन्हें पीछे छोड़ देते हैं या उनकी आवाज का गला घोंट देते हैं। जिससे मुस्लिम समुदाय के सकारात्मक लोगों का पक्ष सामने नहीं आ पाता। आज जो हुआ यह एक अच्छी पहल है। इससे पहले भी मैं एक बार सांप्रदायिक एकता की मिशाल अपने शहर में देख चुका हूं। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का दशहरे पर प्रतिवर्ष पथ संचलन निकलता है। जिसका जगह-जगह लोग फूल बरसा कर स्वागत करते हैं। बीते वर्ष मैंने देखा कि एक-दो मुस्लिम गुट भी पथ संचलन के स्वागत के लिए आगे आए। उपनगर ग्वालियर में संघ की एक शाखा पर कुछ मुस्लिम बालक और  युवा भी आते रहे हैं। इन बातों से यह मत सोचना कि मेरे शहर में कट्टर मानसिकता के मुसलमान नहीं रहते। वे भी बड़ी संख्या में रहते हैं। एक-दो बार पाकिस्तान के लिए जासूसी करते भी धरे गए हैं तो कुछ बस्तियों में  पाकिस्तान के जीतने पर आतिशबाजी भी करते हैं। मैं आज इसीलिए खुश हूं कि उनको पीछे धकिया कर उदारवादी और सच्चा मुसलमान अब आगे आ रहा है।

बुधवार, 15 सितंबर 2010

हिन्दी हृदय की भाषा है

''हिन्दी में भाव हृदय की गहराई से निकलते हैं और अंग्रेजी में दिमाग की ऊपरी सतह से।"
इन्ही में एक है कुशल शर्मा..
 १४   सितंबर है, हिन्दी दिवस है। सबने लिखा, खूब लिखा। समर्थन में लिखा। विरोध में लिखा। किसी ने बहुत अच्छा लिखा तो किसी ने औसत लिखा। किसी न किसी तरह हिन्दी को याद किया। एक मैं ही रह गया था। हिन्दी की सेवा में ही उलझा था। फुरसत हुई तो देखा हिन्दी दिवस को अंग्रेजी कलेण्डर के हिसाब से बीते हुए २० मिनट हो चुके हैं, लेकिन एक ऐसी याद जेहन में आ गई कि लिखने को बैचेन हो उठा। व्यक्तिगत अनुभव है हो सकता है उससे सब सहमत न हो। वैसे भी किसी के अनुभव ही क्या, किसी के विचार से सब सहमत हो ऐसा नहीं होता। अगर ऐसा होता तो निश्चित ही आज भारत में हिन्दी का बोलबाला उतना ही होता, जितना आज हिन्दी प्रेमियों और सेवियों ने चाहा है। खैर बात को आगे बढ़ाते हैं। बात कोई आठ-नौ साल पुरानी होगी। मैं दिल्ली और हरियाणा की सीमा पर स्थित साधना स्थली झिंझौली में एक शिविर में प्रशिक्षण ले रहा था। यह शिविर सूर्या फाउंडेशन ने आयोजित किया था। यह संस्था बड़े नेक उद्देश्य के साथ समाजकार्य में लगी है।
.          यहीं मेरी कई लोगों से मित्रता हुई। जिससे मेरी दोस्ती उडीसा, पंजाब, हिमाचल, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़, आंध्रप्रदेश, औरंगाबाद और दिल्ली सहित कई राज्यों तक फैल गई। सभी मित्रों से पत्रों के माध्यम से जीवंत संपर्क था। डाकिया मेरी मां से कहता था कि आपका लड़का करता क्या है? भारत के कई राज्यों से इसके पत्र आते रहते हैं। मैं भी एक साथ सौ-दो सौ पोस्टकार्ड खरीद लाता था। स्थानीय पोस्ट ऑफिस के बाबू कभी भी २५-५० से अधिक पोस्टकार्ड देते ही नहीं थे, तो सीधे मुख्य डाकघर से ही खरीदने पड़ते थे। हां तो इन्हीं दोस्तों में से एक अजीज था कुशल शर्मा। पंजाब से है। एकदम मस्तमौला। उसने शिविर के दौरान मुझे भांगड़ा सिखाने का बहुत प्रयत्न किया, लेकिन वह सफल नहीं हो पाया। उसके और मेरे बीच में प्रति सप्ताह दो पत्र तय थे। मेरी अंग्रेजी बहुत कमजोर थी और आज भी वैसी ही लंगड़ी है। उसने एक दफा कहा कि चल आज से हम अंग्रेजी में पत्र लिखा करेंगे जिससे तेरी अंग्रेजी अच्छी हो जाएगी। फिर शुरू हुआ अंग्रेजी पत्राचार। काफी लम्बे समय तक चला। उसके कहे अनुसार मेरी अंग्रेजी में निश्चित तौर पर सुधार हुआ। ठीक-ठीक याद नहीं फिर भी शायद उसका जन्मदिन था। इस अवसर पर मैंने उसे अंग्रेजी मैं पत्र नहीं लिखा, अपने हृदय की भाषा से अपने अंतर्मन के विचारों को अंतर्देशी पर उतारा था। पत्र का जवाब भी हिन्दी में ही आया। वह पत्र आज भी मेरे पास संभाल कर मेरे संदूक में रखा हुआ है। इस वक्त मैं कार्यालय में हूं वरना वह पत्र जरूर प्रकाशित करता। उसमें लिखा था- ''भाई आज से हम हिन्दी में ही पत्र लिखा करेंगे। हिन्दी में भाव हृदय की गहराई से निकलते हैं और अंग्रेजी में दिमाग की ऊपरी सतह से।"